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कांटा लगा: सपा थामे रही कांग्रेस का तंग दामन, राहुल ने ही छुड़ा लिया अखिलेश से हाथ
प्रेक्षक मानते हैं कि विधानसभा या पहले लोकसभा चुनाव में मिली हार से भी विपक्ष कोई सबक लेने को तैयार नहीं हैं। यदि कांग्रेस ,सपा और बसपा मिलकर निकाय चुनाव लड़तीं तो बीजेपी को चुनौती दी जा सकती थी क्योंकि उसे शहर के साथ ग्रामीण इलाकों से भी अच्छी सीटें मिली हैं।
Vinod Kapoor
लखनऊ: कहा जाता है कि दिन और समय जब खराब हो तो ऊंट पर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट लेता है और यही हो रहा है क्षेत्रीय समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ।
मुश्किल से लगा था टांका
फरवरी मार्च में हुए विधानसभा चुनाव के पहले उसवक्त के यूपी के सीएम अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया था। अखिलेश को ये लगा था कि उनका काम बोल रहा है और यदि उस काम को कांग्रेस का हाथ मिल जाए तो यूपी का किला फिर फतह किया जा सकता है।
काफी दिनों तक चली जद्दोजहद के बाद कांग्रेस और सपा यानि अखिलेश और राहुल साथ आए। बात कभी सीटों पर फंसी तो कभी दोनो पार्टी के नेताओं के बयानों पर। सपा के उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने तो यहां तक कह दिया कि कांग्रेस यूपी में 50 सीट के भी लायक नहीं लेकिन पार्टी उन्हें 85 सीटें दे रही है। दूसरी ओर कांग्रेस 125 सीटें मांग रही थी। आखिर में 105 सीट देने पर समझौता हुआ।
साथ न आया रास
गठबंधन में यह तय किया गया था कि अखिलेश राहुल के साथ तो प्रियंका गांधी, डिंपल यादव के साथ संयुक्त प्रचार करेंगी। अखिलेश-राहुल ने तो साझा प्रेस कांफ्रेंस, रोड शो और दो तीन साझा सभाएं भी कीं। लेकिन डिंपल और प्रियंका कभी भी साथ नहीं आईं। कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने दोनों को लेकर नया नारा भी गढ़ दिया ..यूपी को ये साथ पसंद है। लेकिन परिणाम ने दिखाया कि यूपी को ये साथ पसंद नहीं आया।
प्रियंका ने खुद को बेमन से अमेठी ओर रायबरेली तक ही सीमित रखा। दो तीन दिन तक सभाएं की और वापस दिल्ली चली गईं। लगता है कि उन्हें परिणाम का अंदाजा पहले ही हो गया था।
चुनाव में मिली हार को अखिलेश ने कड़ुवे घूंट की तरह स्वीकार किया और कहा कि दो युवाओं यानि उनका और राहुल का साथ आगे भी जारी रहेगा जबकि राहुल गांधी ने साथ रहने के बारे में कोई बयान नहीं दिया।
उम्मीद थी कि अगले दो तीन महीने में होने वाले स्थानीय निकाय के चुनाव में दोनों दल एक बार फिर साथ मिलकर बीजेपी के लिए चुनौती पेश करेंगे लेकिन कांग्रेस ने ही अपने हाथ खींच लिए। कांग्रेस का ये चौंकाने वाला फैसला था। अब पूरी हिंदी पट्टी में कांग्रेस को एक सहायक की जरूरत है। खासकर यूपी में तो उसकी हालत सबसे खस्ता है। जनाधार लगातार कम होता जा रहा है, उसी हिसाब से सीटों की संख्या भी लगातार गिर रही है।
तंग दामन कांग्रेस
पहले 32, फिर 28 और अब 7...ये है पिछले तीन विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का हाल। पार्टी के पास यूपी में ऐसा कोई नेता नहीं जो पार्टी को संभाल ले। अध्यक्ष स्वास्थ्य कारणों से लाचार हैं तो राहुल के लिए राजनीति पार्ट टाइम काम।
इसके बावजूद राज्य में होने वाले स्थानीय निकाय चुनाव के लिए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं। प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर का कहना है कि कांग्रेस बिना किसी अलायंस के यह चुनाव लड़ेगी। दोनों पार्टियां यूपी विधानसभा चुनाव के लिए एक-साथ आईं थीं, लेकिन अलांयस का कोई फायदा नहीं मिला। राज बब्बर कहते हैं कि पार्टी अब निकाय चुनाव अकेली लड़ेगी।
नहीं लिया सबक
राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि विधानसभा या उससे पहले लोकसभा चुनाव में मिली हार से भी विपक्ष की पार्टियां कोई सबक लेने को तैयार नहीं हैं। यदि कांग्रेस ,सपा और बसपा मिलकर निकाय चुनाव लड़तीं तो बीजेपी को चुनौती दी जा सकती थी क्योंकि विधानसभा चुनाव में बीजेपी को शहर के अलावा ग्रामीण इलाकों की भी अच्छी खासी सीट मिली है।
ग्रामीण इलाकों में पार्टी की पैठ बनाने का ये अच्छा मौका होता लेकिन विपक्ष इस मौके को लपकने को तैयार नहीं है। हालांकि हार के बाद सपा फिर से उठने का पूरा प्रयास कर रही है। सपा का सदस्यता अभियान चल रहा है और पार्टी के दावे के अनुसार 42 लाख नए सदस्य बने हैं। सदस्यता अभियान जून तक चलेगा।