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कोरोना संकट और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जरुरत

Corona Vaccine :कोरोना की बार-बार उठ रही लहरों ने दुनिया, देश की विशाल आबादी को सदमे और लाचारी से झकझोर कर रख दिया है।

Rana Pratap Singh
Written By Rana Pratap SinghPublished By Shraddha
Published on: 30 May 2021 11:43 AM IST
संक्रमण और मृत्यु के आकड़ों में बार बार एक खतरनाक उछाल आ रहा
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कोरोना टीकाकरण (कांसेप्ट फोटो सौ. से सोशल मीडिया )

Corona Vaccine : कोरोना (Corona) की बार-बार उठ रही लहरों ने दुनिया, देश और विश्व की विशाल आबादी को सदमे और लाचारी से झकझोर कर रख दिया है। लंबे समय से प्रतीक्षित टीका आ गया है। टीके का सही असर आंकने में अभी समय लगेगा हालाँकि सभी विशेषज्ञ अभी टीके को ही कोरोना से लड़ने का प्रमुख हथियार मान रहे हैं। भारत सहित कई देशों में टीकाकरण (Vaccination) अभी भी प्रारंभिक स्तर पर है, परन्तु बढ़ते संक्रमण और मृत्यु के आकड़ों में बार बार एक खतरनाक उछाल आ रहा है।

विशेषज्ञ इसके कई कारण बता रहे हैं। एक यह कि दुनिया भर में कोरोना वायरस के अनेकों अधिक आक्रामक म्यूटेंट बन गए हैं, जो पिछले दिनों के खुले विश्व में यात्रियों के साथ एक देश से दूसरे देश और एक जगह से दूसरी जगह लगातार बीमारी को फैलाते रहे हैं। इसके अलावा अनेक स्थानीय कारणों से लोग चाहे अनचाहे रोग ग्रस्त लोगों के संपर्क में आ गए। जैसे भारत में विभिन्न राष्ट्रीय और स्थानीय चुनावों के दौरान कुंभ और अन्य धार्मिक जुटानों तथा सांस्कृतिक त्योहारों, विवाह समारोहों और चुनाव की सार्वजनिक रैलियों में बड़े पैमाने पर लोंगों के पास पास आने की संभावनाएं बनी। जो देश में इस महामारी की इस दूसरी लहर की अवधि के उछाल में बहुत सहायक रही।

शहर और टीवी चैनलों में कई बार चर्चा हुई कि कोरोना काल में साफ दिख रहा है समाज में कि हमारे रिश्तों में प्रेम और त्याग का अभाव बढ़ रहा है। हमारी मानवीय चिंताएं और सहयोग की भावनाएं बड़े पैमाने पर मरती जा रही हैं जो इस कोरोना काल में अधिक परिलक्षित हुईं हैं। हमने अपने आत्मीयों , करीबियों और जरूरतमंदों से उनके संकट के क्षणों में भी दूरी बना ली और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है। क्या यह मात्र डर, भ्रम और स्वार्थ के चलते हो रहा है, या इसका मुख्य कारण हमारी संस्कृति में व्यक्तिवाद, स्वार्थ और अमानवीयता का बढ़ता प्रभाव है ? क्या हमारे व्यक्तित्व में, हमारी संस्थाओं में, हमारे समाज में तथा हमारी व्यवस्थाओं के वैचारिक विमर्श में स्वार्थपरता, अवैज्ञानिकता, अस्पष्टता, आपाधापी तथा गैर पेशेवरपना बढ़ रहे है ? इस पर गंभीरता से बिना किसी वैचारिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक पक्षधरता पर विचार किया जाय तो हमें चिंतित होना पड़ेगा।

पिछले बार का लॉकडाउन ज्यादा प्रभावित

पिछले कोरोना उफान के पहले का लॉकडाउन इसका प्रसार रोकने में अत्यंत प्रभावी रहा था, तब भी भारत सहित अनेक देशों की सरकारें अपने आर्थिक समीकरणों के दबाव में इस बार लॉकडाउन को लंबे समय तक टालती रही पर अंत में वे यही विकल्प चुनने के लिए मजबूर हुई और तब कोरोना के आंकड़े कम होना शुरू हुए। ऐसा बहुत लोंगों का मानना है कि इस बार भी लॉकडाउन जल्दी हो जाता और भीड़ को इक्कठा नहीं होनें दिया जाता तो शायद स्थिति इतनी बेकाबू नहीं होती।

हम इस बार सही तरीके से अपने पुराने अनुभवों को विश्लेषित नहीं कर पाए और समझ नहीं सके कि महामारी की पहली लहर में भारत में कोविड प्रबंधन की सफलता के लिए लॉकडाउन एक महत्वपूर्ण कुंजी थी। पिछली बार और इस बार भी हमारे राजनीतिक दल, व्यापारिक समुदाय और नागरिक समाज लॉकडाउन के मुद्दों और कोविड से बचने के लिए तय प्रावधानों पर सख्ती के मुद्दों पर अत्यधिक बटें हुए नजर आए और महामारी के संकट का राजनैतिक लाभ लेने के लिए वस्तुस्थितियों को तोड़ मरोड़ कर अपने स्वार्थों के हिसाब से बयान देते रहे । इसलिए इस बार की असफलता और आपाधापी के लिए सरकारों के साथ साथ विपक्ष और नागरिक समाज, व्यापार प्रबन्ध की शक्तिशाली मंडली तथा अन्य राजनैतिक धुरंधरों एवं विचारकों को भी कठघरे में खड़ा करना होगा। हमें अपनी व्यक्तिगत, सामाजिक और संस्थागत विचार प्रणाली और कार्य प्रणाली के इतना खंडित, स्वार्थी और इकहरा होने देने से बचाना होगा, तभी हम एक सम्यक और तर्कसंगत राष्ट्रीय संस्कृति तथा एक आधुनिक, अधिकतम आत्मनिर्भर, खुशहाल और धारणीय राष्ट्र विकसित कर पाएंगे।

हमारी इस एक निर्णयात्मक चूक ने इस बार अस्पतालों, गलियों, श्मशानों और कब्रिस्तानों में अप्रत्याशित और अभूतपूर्व हाहाकार मचा दिया जिसकी अब तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी । पिछली महामारी में कुछ ऐसा ही हो हल्ला प्रवासी मजदूरों के पलायन और पैदल यात्रा के दौरान मचा था। इस दौर में उल्लेखनीय रूप से हम देख सकते हैं कि इस तात्कालिक लहर में महामारी उन सभी देशों में समान रूप से गंभीर नहीं रही, जो पिछली बार एक खतरनाक कोरोना उफान से पीड़ित थे।हमें इसका कारण समझने का प्रयास करना चाहिए। दुनिया कई राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक सीमाओं में विभाजित है। हम देखें तो पिछली बार से अलग इस बार भिन्न वैश्विक समाजों की अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और वैज्ञानिक सामाजिकता और शासन प्रणालियों के भिन्न दृष्टिकोण के हिसाब से अलग-अलग तरह से कोरोना संकट का प्रबंधन किया गया है। मात्र एक वर्ष बाद इसके प्रबंधन में आई इस वैश्विक भिन्नता के क्या क्या कारण हो सकते है ? इस पर निष्पक्ष और सार्वभौमिक विचार होना चाहिए।

भयावह संकट में एक तर्कसंगत तरीके से सोच सके

क्या इस महामारी की दूसरी लहर में खतरे की भयावहता सरकारों की नीतियों और समाजों की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों एवं उस देश के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के स्तर से जुड़ी रही है? या अलग-अलग देशों में अलग-अलग कोरोना म्युटेंट के उपभेद ही मात्र इसके मुख्य कारण हैं जिनमें कुछ कोरोना के वेरिएंटों के पास वायरस को मनुष्य में तेजी से फैलाने की अधिक आक्रामक क्षमता और रणनीतियां पैदा हो गयी हैं ? ये दोनों कारण एक साथ आकर हो सकता है कि स्थितियों को अधिक भयावह कर रहें हों । क्या यह अजीब नहीं लगता कि हम सात दशकों के स्वतंत्र राष्ट्र में एक मानवीय मानसिकता, सामाजिक आर्थिक पर्याप्तता, राष्ट्रीय चरित्र, पेशेवर ईमानदारी और एक सक्षम नागरिक और राजनैतिक समाज और शासन प्रणाली नहीं विकसित कर पाएं हैं जो कम से कम ऐसे भयावह संकट में एक तर्कसंगत तरीके से सोच सके? कहना नहीं होगा कि हम स्वतंत्रता के सात दशकों बाद भी देश में एक वैज्ञानिक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करने में सफल नहीं हो पाए हैं।

देश का भविष्य अब भी बेचैनी से ऐसी किसी गंभीर पहल का इंतजार कर रहा है, जो बड़े पैमाने पर हमारे समाज और तंत्र में उचित वैज्ञानिक चेतना जगा सके। हमें देखना होगा कि क्या हमारा समाज और हमारी संस्थाए समय की इस मांग पर गंभीरता से विचार करने के लिए उचित रूप से परिपक्व हो पायी हैं? क्या हमारा राष्ट्रीय दृष्टिकोण भी जातियों, धर्मो, आर्थिक समूहों , राजनैतिक दलों और शासन प्रशासन एवं विपक्ष के हितों के हिसाब से अलग अलग तरह का होगा . फिर हमारी राष्ट्रीयता , सार्वभैमिकता तथा वैश्विकता का मूल चरित्र क्या होगा? विचारणीय विषय है।

मानवीय सभ्यता पृथ्वी पर एक नए मानवयुग में आ गयी है जहाँ वह अपनी जननी पृथ्वी और उसकी प्रकृति से सीधे मुठभेड़ कर रही है। विज्ञान से उपजी तकनीकों, औजारों और अत्यंत विनाशक हथियारों से लैस होकर मनुष्य की सत्ता पर काबिज सत्ताधीशों के समूह ने ऐसा मान लिया है कि वे पृथ्वी और प्रकृति की उन शक्तियों से जिनमें ब्रह्माण्ड की अनेक जानी अनजानी अपार शक्तियां भी भागीदार हैं, अधिक ताकतवर हैं। पृथ्वी और उसकी प्रकृति ने कई बार सभी को यह अहसास करा दिया है, कि वह उसे नहीं ढोती रहेगी जो उसके पूरे जैविक अजैविक तंत्र का पूरक नहीं बनेगा . वह मात्र मनुष्य नहीं पूरी प्राकृतिक जाल की जननी है और किसी एक या कुछ जीव समूहों के नष्ट हो जाने पर भी उसकी अपनी यात्रा आसानी से बाधित नहीं होगी।

जलवायु परिवर्तन स्थितियाँ कर रही आगाह

वर्तमान की जलवायु परिवर्तन की संकटपूर्ण स्थितियाँ और कोरोना महामारी जैसी भयावह स्थितियाँ हमें बार बार आगाह कर रही हैं कि हम नहीं मानें तो पृथ्वी का विशाल और शक्तिशाली तंत्र हमें अपनी परिस्थिति से किसी न किसी तरह बाहर कर देगा। मनुष्य द्वारा निर्मित यह मानवयुग जिसे कलयुग भी कहा गया है , वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सम्यक, सार्थक और व्यापक फैलाव के न होने के कारण लगातार सामूहिक संकट की ओर बढ़ रहा है और हम सचेत नहीं हैं।

इस घातक महामारी के इस दूसरे भयानक दौर से जुड़ी अन्य स्वास्थ्य समस्याओं एवं कार्यप्रणालियों , तैयारियों और पूर्वानुमानों में आई कमियों , विसंगतियों और बाधाओं के आकलन का कोई वैज्ञानिक, तर्कसंगत, पेशेवर तथा पारदर्शी अध्ययन मनन होगा कि नहीं, कहना कठिन है। हम सबको परन्तु देश को और दुनिया को समझना होगा कि कोरोना की आगे की स्थितियों और भविष्य की महामारियों एवं आपदाओं के लिए तैयार रहना है, तो हमें इन प्रश्नों से लगातार जूझते रहना होगा और इस तरह के आकलन केंद्रित जवाबदेह और पारदर्शी अध्ययनों के लिए उचित व्यवस्थाएं बनानी होगी. एक देश के रूप में ,घनी आबादी वाले एक विशाल लोकतंत्र के रूप में और उभरती हुयी एक वैश्विक शक्ति के रूप में भारत के लिए यह भविष्य के संकट को समझने, उसका विश्लेषण करने और इसके लिए तैयार रहने का समय है। आखिर क्या कारण है कि आज जब हम विज्ञान और इंजीनियरिंग के अंतर्निहित सिद्धांतों के माध्यम से प्राप्त कई अत्यंत प्रभावशाली तकनीकी क्षमताओं के साथ स्वयं द्वारा निर्मित मानव युग में रह रहे हैं, तब भी वैश्विक विज्ञान तंत्र एक वर्ष के बाद भी इस विनाशकारी कोरोना वायरस की उत्पत्ति और इसके प्राथमिक स्रोत का पता नहीं कर पाया ।हमें समझना होगा कि ऐसा विज्ञान की सीमाओ के कारण हुआ , विज्ञान तंत्र की सीमाओ के कारण या राजनैतिक तंत्र की सीमाओं के कारण . पूँजीवाद के वैश्विक गांव की परिकल्पना मात्र व्यापार जगत के आर्थिक विस्तार तक ही सीमित है या इसमें व्यापक वैश्विक कल्याण की कोई ईमानदार संभावनाएं भी हैं , इस पर विचार करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक दिशा तो तय कर ही सकता है।

मुझे लगता है कि समकालीन समाज में वैज्ञानिक शिक्षा और वैज्ञानिक अभिरुचि पर राजनीतिक और व्यावसायिक हितों के प्रभुत्व ने समाज में विज्ञान की भूमिका को सीमित कर दिया है। इससे विज्ञान और समाज दोनों का संकट और अधिक गहराने वाला है। अविकसित समाजों और संस्कृतियों में आम तौर पर लोग मानते हैं , कि विज्ञान बाजार का एक उपक्रम है जिसमें उसकी भूमिका इस अर्थतंत्र में अधिक से अधिक उपभोक्ता पैदा करना तथा उसे संगठित रूप से उत्पाद और सेवाएं प्रदान करना है। यह भी कुछ समृद्ध और शिक्षित वर्ग के लोग ही मानते हैं। समाज का वंचित , शोषित तबका तो जानता ही नहीं कि विज्ञान किस चिड़िया का नाम है। सामाजिक व्यवहार और सामाजिक समस्याओं को संबोधित करने में विज्ञान की महत्ती भूमिका का अंदाजा करने वाले तो हमारे समाज में इक्का दुक्का ही हैं। मुझे हैरानी होती है कि आधुनिक दृष्टिकोण का दावा करने वाले विचारक, पेशेवर वैज्ञानिकों की भारी भीड़ और नित नए दावे ठोकने वाले मीडिया के संचारक इस साधारण सी बात को समझ क्यों नहीं पाते। हमें आधुनिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए विज्ञान की संस्कृति और विधियों को समझने और फैलाने की अत्यंत आवश्यकता है, ताकि हम अपनी समस्याओं को अधिक व्यवस्थित, व्यावहारिक और तर्कसंगत तरीके से समझ सकें और इनका उचित प्रबंधन कर सकें।




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Shraddha

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