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क्यों ग्रामीण भारत नहीं झेल पा रहा कोविड-19 की तबाही?

coronavirus : उत्तर प्रदेश ग्रामों में कोविड जांच अभियान चलाया। कुल 97,000 ग्रामों में 4 लाख से अधिक मरीज पाए गए हैं।

Vikrant Nirmala Singh
Written By Vikrant Nirmala SinghPublished By Shraddha
Published on: 20 May 2021 9:34 AM GMT
क्यों ग्रामीण भारत नहीं झेल पा रहा कोविड-19 की तबाही?
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कांसेप्ट फोटो (सौ. से सोशल मीडिया )

coronavirus : उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के देवरिया जिले में रुद्रपुर तहसील स्थित बैदा गांव में 1 मई से 6 मई के बीच कुल 12 मौतें हुई हैं। बरहज ब्लॉक के बारा दीक्षित में पिछले 20 दिनों में 15 मौतें हुई हैं। भागलपुर ब्लॉक के अंडिला गांव में पिछले 15 दिनों में 20 मौतें हुई हैं। इन तीनों ही गांव में स्थानीय स्तर पर लोगों ने बताया कि हो रही मौतों में खांसी, बुखार और सांस लेने की तकलीफ जैसी समस्याएं मौजूद थी। आज इन गांवों में दहशत है और प्रशासन पर लगातार लापरवाही के आरोप लग रहे हैं। यह तस्वीर इस देश के सबसे बड़े राज्य के एक कम प्रभावित बताये जा रहे एक जिले के महज 3 गांवों की है।

आपको बता दें कि अब इसकी बुनियाद पर भारत के 60-65 फीसदी आबादी वाले ग्रामीण परिदृश्य का कोविड-19 के बीच हाल सोचिए। सच्चाई यह है कि कोविड-19 की दूसरी लहर ने भारत के ग्रामीण आबादी को कहीं अधिक प्रभावित कर दिया है। 9 अप्रैल से 9 मई के बीच में आए संक्रमित मरीजों के आंकड़ों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि कुल मरीजों में ग्रामीण हिस्सेदारी तेजी से बढ़ रही है।

ग्रामीणों में कोरोना संक्रमित मरीजों की बढ़ती संख्या

बिहार में 9 अप्रैल को कुल संक्रमित मरीजों में ग्रामीण मरीजों का हिस्सा 53 फीसदी था, 9 मई को यह 76 फीसदी हो गया, महाराष्ट्र में 32 फीसदी से बढ़कर 56 फीसदी हो गया और उत्तर प्रदेश में 49 फीसदी से बढ़कर 65 फीसदी हो गया। हाल ही में उत्तर प्रदेश ने राजस्व ग्रामों में कोविड जांच अभियान चलाया है। कुल 97,000 ग्रामों में चार लाख से अधिक लक्षण युक्त मरीज पाए गए हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की रिपोर्ट इकोरैप के अनुसार ग्रामीण इलाकों में कोरोना मरीजों की संख्या मार्च महीने से लगातार बढ़ रही है। मार्च महीने में ग्रामीण कोविड-19 केस 36.8% थी जो कि मई महीने में बढ़कर 48.5 फीसदी हो चुकी है। यह आंकड़े बेहद चिंतित करने वाले हैं और बड़ी बात यह है कि आधिकारिक रूप से मौजूद है। सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हो रहे आंकड़ों को अगर शामिल कर लिया जाए तो यह तस्वीर भयावह हो जाएगी।

भारत की 60 फीसदी आबादी गांव में रहती है

भारत के स्वास्थ्य ढांचे को देखें तो हम पाते हैं कि ग्रामीण भारत कभी भी ऐसे चिकित्सीय आपातकाल के लिए तैयार नहीं था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य रिपोर्ट 2019 के 14 वें संस्करण के अनुसार भारत की 60 फीसदी आबादी गांव में रहती है और ग्रामीण भारत के स्वास्थ्य ढांचे के लिए 25,743 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 1,58,417 उप स्वास्थ्य केंद्र और 5,624 सामुदायिक केंद्रों का निर्माण किया है। शहरी इलाकों में 10 लाख की आबादी पर 1,190 बेड की सुविधा उपलब्ध है, तो वहीं ग्रामीण इलाकों में 10 लाख की आबादी पर महज 318 बेड मौजूद है।

ग्रामीण भारत में कोरोना महामारी की बढ़ती तबाही कांसेप्ट फोटो (सौ. से सोशल मीडिया)


ग्रामीण भारत में दिखी जरूरी दवाइयों की कमी

राष्ट्रीय औसत देखें तो दो हजार की आबादी पर महज एक बेड उपलब्ध है। पिछले 1 वर्ष में भी कोविड-19 से निपटने के लिए की गई तैयारियों में ग्रामीण भारत को नजरअंदाज किया गया। यही कारण है कि आज ग्रामीण भारत में जांच केंद्र, जरूरी दवाइयां एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की नगण्य मौजूदगी है। शायद सरकार को यह लगा था कि कोविड-19 की पहली लहर में ग्रामीण भारत उतना प्रभावित नहीं हुआ था इसलिए यहां तैयारियों में बहुत ध्यान नहीं दिया गया।

शहरों में 80 फीसदी डॉक्टर हैं मौजूद

केंद्र सरकार ने राज्यसभा में यह जानकारी दी है कि अप्रैल 2020 की तुलना में जनवरी 2021 तक कुल 94,880 ऑक्सीजन आधारित बेड जोड़े गए हैं। अप्रैल 2020 में कुल 27,360 आईसीयू मौजूद थे जिन की वर्तमान संख्या बढ़कर 36,008 हो चुकी है, लेकिन इन आंकड़ों में ग्रामीण इलाकों में बढ़ाए गए बेडों की कोई स्पष्ट संख्या मौजूद नहीं है । केपीएमजी और फार्मास्यूटिकल्स उत्पादों के उत्पादक संगठनों के जरिए किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कुल स्वास्थ्य ढांचे का एक बड़ा हिस्सा शहरों में मौजूद है। इस रिपोर्ट के अनुसार 75 फीसदी दवा की दुकानें, 60 फीसदी हॉस्पिटल और 80 फीसदी डॉक्टर शहरों में मौजूद हैं।

सच्चाई यही है कि भारतीय स्वास्थ्य ढांचा कभी भी ऐसी किसी महामारी के लिए उपयुक्त नहीं था। आजादी के बाद से कभी भी स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 2% नहीं हो सका। सरकार के ही राज्यसभा में दिए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति सरकारी स्वास्थ्य खर्च महज 1418 रुपये सलाना है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य रिपोर्ट, 2018 के अनुसार भारत में एक सरकारी डॉक्टर औसतन कुल 11,082 मरीजों को देखता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार 1000 मरीज पर एक डॉक्टर का होना जरूरी है। सबसे वीभत्स स्थिति उत्तर प्रदेश की है। देश की सबसे बड़ी ग्रामीण आबादी वाला यह राज्य स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बेहद दयनीय स्थिति में है।

वर्ल्ड इकोनामिक फोरम

आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में 19,962 मरीजों पर एक डाक्टर मौजूद है। वर्तमान में नीति आयोग भी राज्यों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में इंडेक्स जारी कर रहा है। हाल ही जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश इस रैंकिंग में सबसे निचले पायदान पर है। सरकारों के स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए इसी उदासीन रवैये ने भारत में कभी एक मजबूत स्वास्थ्य ढांचा बनने ही नहीं दिया। आज यही कारण है कि वर्ल्ड इकोनामिक फोरम के अनुसार हेल्थ केयर में भारत की 150वीं रैंक है।

स्माइल फाउंडेशन पर दर्ज एक रिपोर्ट के अनुसार देश का 75 फ़ीसदी स्वास्थ्य ढांचा शहरों में रहने वाली कुल 27 फीसदी आबादी के बीच मौजूद हैं। ग्रामीण इलाकों को बेहद ही दयनीय सुविधा पर अकेला छोड़ दिया गया है। भारतीय स्वास्थ्य मानक के आधार पर महज 11 फीसदी उप केंद्र, 13 फ़ीसदी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 16 फीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ही उपयुक्त है। शेष ग्रामीण इलाकों में मौजूद यह त्रिस्तरीय स्वास्थ्य व्यवस्था निर्धारित मानक से बेहद नीचे खराब स्थिति में मौजूद है। दूर ग्रामीण इलाकों में मौजूद किसी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर डॉक्टर उपलब्ध नहीं होते हैं तो किसी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर दवाएं उपलब्ध नहीं होती। सामान्य परिस्थितियों में भी यह मौजूदा ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचा किसी काम का नहीं होता है।

कोविड-19 की इस वीभत्स तबाही ने ग्रामीण इलाकों में दयनीय स्वास्थ्य ढांचे को बड़े परिदृश्य में उभारा है। वर्तमान समय में मौजूदा व्यवस्था के जरिए ही गांव में फैल रहे कोरोना को रोकना होगा। जरूरी दवाइयां और अधिक से अधिक जांच केंद्रों का निर्माण ग्रामीण इलाकों में करने की जरूरत है। क्योंकि अगर इसको सही वक्त पर नहीं रोका गया तो गांव तबाह हो जाएंगे। भविष्य में भी सरकारों को यह ध्यान रखना होगा कि देश में किसी भी ढांचे का निर्माण गांव के जरिए होना चाहिए। देश की सबसे बड़ी आबादी यहां रहती है और हमारा वर्तमान विकास शहरों को केंद्रित कर किया जा रहा है। आज इसी शहरी केंद्रित विकास का परिणाम है कि गांव में बिना जांच और बिना उपयुक्त दवाइयों के हजारों जिंदगियां जा रही हैं। टीवी कैमरों पर शहरों में दिख रही तबाही उतनी भयावन नहीं है जितनी गांव में बिना इलाज के मर रहे लोग हैं।

शहर में कोशिश करने पर हॉस्पिटल में एक बेड पाया भी जा सकता है लेकिन गांवों में जिंदगियां संसाधनो के अभाव में तड़प रही हैं। आज जरूरत पूर्व की गलतियों को ठीक करने का है। ग्रामीण इलाकों में उच्च स्तरीय अस्पतालों का निर्माण और विशेषज्ञ डॉक्टरों की बड़े पैमाने पर नियुक्तियों की जरूरत है। शायद यह संकट काल ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य ढांचे के मजबूत करने का एक अवसर भी बनकर दिख रहा है। सरकारों को आत्मनिर्भर नारों से बाहर निकल सच में आत्मनिर्भर गांव बनाने चाहिए। संसाधनों के अभाव में मर रही ग्रामीण जनता को महज समान्य मौत नहीं ब्लकि सरकारों के जरिए सामुहिक हत्या समझना चाहिए। इस देश को अभी एक ग्रामीण आधारित स्वास्थ्य ढांचे की जरूरत है ना कि किसी नए ससंद भवन की है।

Shraddha

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