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अपसंस्कृति को दें चुनौती, देश के कर्णधारों ने नहीं समझा इसका महत्व

raghvendra
Published on: 29 Jun 2018 9:50 AM GMT
अपसंस्कृति को दें चुनौती, देश के कर्णधारों ने नहीं समझा इसका महत्व
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पूनम नेगी

हमारे की सम्पदा का लगभग दो सौ साल तक दोहन करने के उपरान्त अंग्रेज इस देश से विदा हुए। साम्प्रदायिक वैमनस्य के विष के साथ वे भीषण गरीबी भी विरासत में छोड़ गये। अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अपने शासनकाल में उन्होंने बड़ी चतुराई के साथ जीवन रस को सींचने वाली इस देश की प्राचीन सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संस्थाओं को यथाशक्ति नष्ट-भ्रष्ट तो किया ही, साथ ही लोगों के मन में भारतीय धर्म और परम्पराओं के प्रति अनास्था उत्पन्न करने का भरसक प्रयास भी किया।

स्वतंत्रता के बाद गुलामी के इस कलंक को मिटाने का कार्य देश के तत्कालीन नीति निर्माताओं ने अपने ढंग से किया भी मगर समग्र जीवन दृष्टि के अभाव में उन प्रयासों के नतीजे खट्टे-मीठे, कटु एवं तिक्त रूप में हम सबके सामने हैं। भौतिक रूप से विभिन्न उपलब्धियों को बटोरते हुए भी हमारा जन सामान्य आंतरिक रूप से विपन्न एवं दरिद्र ही है। ऐसा क्यों हुआ? हमारे प्रयासों में कौन सा मौलिक भटकाव रहा कि कभी विश्वगुरु रहा हमारा राष्ट्र आज अपसंस्कृति की माया से बुरी तरह जूझ रहा है।

यह एक स्वयंसिद्ध सत्य है कि नदी, पर्वत, वन और मैदान से भी अधिक किसी राष्ट्र का अस्तित्व वहां की जनता, वहां के स्त्री-पुरुषों के जीवनमूल्यों पर निर्भर करता है। समग्र शिक्षा के संस्कार द्वारा इस शक्ति को उपयोगी बनाना, इस सम्पदा को संवारना, हर काल और हर परिस्थिति में हर शासन का प्रथम कर्तव्य होता है। दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत में इसकी अनदेखी की गयी। देश के कर्णधारों ने शिक्षा व इसके महत्व को नहीं समझा।

गौरतलब हो कि वैदिक काल में देश में शिक्षा के लक्ष्य अत्यन्त स्पष्ट थे। लोग यह जानते और मानते थे कि स्वस्थ और स्वच्छ सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन तब तक सम्भव ही नहीं है, जब तक प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित न हो। जबकि आज राष्ट्र शिक्षा के विषय में किसी स्पष्ट दिशा से हीन दिखाई देता है। शिक्षा जैसे अतिशय महत्व के विषय के प्रति स्वतंत्र भारत की कितनी उपेक्षा वृत्ति रही है, यह इसी बात से प्रकट है कि आज भी हमारी शिक्षा का ढांचा वही है जिसे दासवृत्ति वाले अंग्रेजी पढ़े-लिखे कर्मचारियों को तैयार करने के प्रयोजन से लार्ड मैकाले की सिफारिश पर अंग्रेजों ने खड़ा किया था। उसमें थोड़ा सा परिवर्तन इस रूप में हुआ है कि आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य प्रतीत होने वाले कतिपय विषयों का प्रशिक्षण देने वाले इंजीनियरिंग कॉलेज, आई.आई.टी., मेडिकल कॉलेज, कृषि कॉलेज, बिजनेस मैनेजमेंट संस्थान जैसी शिक्षा संस्थाओं में भारी वृद्धि हो गई है।

स्कूल के स्तर पर पाठ्यक्रम और शिक्षा व्यवस्था, सामान्य रूप से इन्हीं विशिष्ट विषयों की शिक्षा देने वाली संस्थाओं के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने की दृष्टि से नियोजित होते हैं। जो गिने-चुने छात्र स्कूल की शिक्षा पूरी करके इनमें प्रवेश पा लेते हैं उनके लिए लक्ष्मी मंदिर के द्वार खुल जाते हैं, लेकिन जो इनमें प्रवेश से वंचित रह जाते हैं वे खंडित मनोरथ की कसक हृदय में लिए जीवनभर इधर-उधर भटकते रहते हैं। स्पष्ट है कि शिक्षा की इस व्यवस्था में न तो छात्रों के चरित्र निर्माण का कोई संकल्प है और न ही उन्हें जीवन की चुनौतियों से जूझने के लिए तैयार करने का प्रयत्न। परिणामस्वरूप हमारा शिक्षित व्यक्ति अपने विशिष्ट विषय का प्रकांड पंडित तो हो सकता है, लेकिन इस बात का कोई भरोसा नहीं कि वह अच्छा मनुष्य या अच्छा नागरिक भी होगा।

स्पष्टतया हमारी शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह व्यवसायीकरण हुआ है। इसका जीवन निर्माण एवं संस्कार से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। इसका एकमात्र उद्देश्य अधिक से अधिक धन का उपार्जन भर रह गया है और लक्ष्मी की एकाकी उपासना कभी भी श्रेयस्कर सिद्ध नहीं हुई है। भारतीय परम्परा में अर्थ एवं काम प्रधान भोगवादी संस्कृति को कभी मानव के लिए कल्याणकारी नहीं माना गया है। जबकि औद्योगीकरण एवं वैज्ञानिक प्रगति से उपजी संस्कृति में इन्हीं तत्वों की प्रधानता रही है।

विविध वस्तुओं का संख्यातीत उत्पादन कर उद्योगों ने यथार्थ में ही मनुष्य के सुख की वृद्धि की है। मनुष्य के लिए कौन सी और कितनी सामग्री आवश्यकता पूर्ति का साधन है अथवा विलास का, यह विवेक बनाये रखना ज्ञानी के लिए भी कठिन है। आधुनिक बाजारों और सम्पन्न लोगों के घरों का यदि अवलोकन किया जाए तो यह सरलता से स्पष्ट होगा कि आवश्यक सामग्री की तुलना में विलास सामग्री की ही सर्वत्र बहुलता है।

यदि यह स्वीकार भी कर लिया जाए कि औद्योगिक प्रगति के फलस्वरूप आधुनिक मनुष्य का जीवन भौतिक दृष्टि से अत्यधिक सुखी हो गया है, फिर भी इस तथ्य को नकारना तो असम्भव है कि उसका आन्तरिक जीवन निपट दारिद्रय से ग्रस्त हो गया है। औद्योगीकरण के प्रभाव के कारण यूरोप और अमेरिका से दूसरे देशों में फैलने वाली इस नई संस्कृति के स्वभावत: नये मूल्य, नये आदर्श और नये लक्ष्य हैं। इसकी व्याख्या भोगमूलक और व्यक्ति प्रधान संस्कृति के रूप में की जा सकती है। इस नई संस्कृति से आक्रान्त भारतीय समाज की दशा आज बड़ी विचित्र है। जहां एक ओर पुराने संस्कारों में पली-बढ़ी पुरानी पीढ़ी यह देखकर हैरान है कि राम, भरत, सीता, सावित्री और सत्यवान जैसे चरित्रों को जन्म देने वाली इस देव भूमि में माता-पिता बोझ, भाई-बहन पैतृक सम्पत्ति को हड़पने वाले षड्यंत्रकारी बच्चे अपने और पति-पत्नी एक दूसरे से छुटकारा पाने के लिए एक-दूसरे के छिद्रान्वेषणकारी कैसे बन गये? मित्रों की एक-दूसरे के दु:खों को बांटने वाली सहज निश्चल मैत्री कैसे खो गई?

कत्र्तव्य भावना से अपने कर्म को पूरा करने की शुचिता कहां विलुप्त हो गई? परिश्रम और ईमानदारी से कमाई सादी रोटी का मिठास कैसे नष्ट हो गयी? दिन-रात खोज में दौड़ते रहने पर भी भीड़ भरे राजमार्गों और लुभावने पदार्थों से सजे हुए बाजारों में मनुष्य का सुख-चैन कैसे अदृश्य हो गया? वहीं दूसरी ओर नई पीढ़ी यह सोच-सोचकर हैरान है कि पुराने लोगों को इतनी मोटी बात भी समझ में क्यों नहीं आती कि पारिवारिक परिवेश व्यक्ति की स्वतंत्रता में व्यर्थ ही रोका-टोकी करके उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयत्न में अवरोधक क्यों बनता है? क्यों पाप-पुण्य का ताना-बाना बुनकर एक काल्पनिक परलोक का हौवा उसके सामने खड़ा करने की हठीली कोशिश की जाती है कि वह अपने कौशल से अपने अभ्युदय के लिए अपनी मनमर्जी का उद्यम न कर सके? क्यों अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता और संघर्षपरता को संकीर्ण स्वार्थपरायणता माना जाता है? क्यों स्त्री-पुरुष के नैसर्गिक आकर्षण को कृत्रिम मर्यादाओं से बांधने का कुचेष्टा की जाती है? मन में मिथ्या आशंकाएं और विभीषिकाएं पैदा कर, क्यों उसे ऐश्वर्य भोग से विमुख करने का व्यर्थ प्रयास किया जाता है?

दरअसल वर्तमान भारतीय समाज की यह दशा मात्र दो पीढिय़ों में साफ दिखाई पडऩे वाले अन्तर के कारण नहीं अपितु भिन्न-भिन्न जीवन मूल्यों पर आधारित दो संस्कृतियों के टकराव के कारण बनी। आजादी के बाद इतने सालों तक अर्थ की उपासना कर लेने के बाद और उसके परिणामों से अच्छी तरह से परिचित हो जाने के बाद अब यह निश्चय करने का समय आ गया है कि हम अपने सर्वांगीण विकास पर बल देने वाली समन्वयात्मक प्राचीन संस्कृति को अपनाएं या फिर केवल जीवन के भौतिक पक्ष को ही एकान्त सत्य मानने वाली व्यक्तिवादी पाश्चात्य संस्कृति को।

समझना होगा कि जो राष्ट्र केवल अपने समय में वर्तमान में ही जीता है, वह सदा दीन होता है। यथार्थ में समुन्नत वही होता है, जो अपने आपको अतीत की उपलब्धियों तथा भविष्य की सम्भावनाओं के साथ जोडक़र रखता है। अपसंस्कृति को शिकस्त देने तथा युग की मांग को पूरा करने के लिए हमें वैदिक संस्कृति के शाश्वत मूल्यों को पुन: जाग्रत करना होगा और अपने राष्ट्रीय जीवन में उनको जीवन्त अभिव्यक्ति देनी होगी।

(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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