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बदहाली का आलम: अदालती विवादों में बेसिक शिक्षा, कैसे सुधरे पढ़ाई का स्तर
प्रवीन चंद्र मिश्र
यूं तो मुकदमों और याचिकाओं के विभिन्न न्यायालयों में लंबित होने से प्रदेश सरकार का कोई भी विभाग अछूता नहीं होगा, क्योंकि भारतीय संविधान ने हम भारतीयों के मूल अधिकारों के संरक्षण की गारंटी दी है और जहां नागरिकों के अधिकारों का हनन होता है, वहां वे न्यायालय की शरण में जाने को स्वतंत्र हैं।
यदि उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा विभाग के लंबित मुकदमों पर नजर डालें तो शायद ही कोई जनपद बचा होगा जिसके मुकदमे लंबित न हों। यह जरूर है कि भौगोलिक व क्षेत्राधिकार में छोटे व बड़े जनपदों में लंबित मुकदमों में अंतर कम या ज्यादा हो सकता है।
बेसिक शिक्षा में मूल रूप से सेवारत परिषदीय अध्यापकों, प्रबंधकीय विद्यालयों के अध्यापकों बनाम प्रबंधक व प्रधानाचार्य, शिक्षामित्रों, सेवानिवृत्त शिक्षकों से संबंधित पावतीयों व देयों से संबंधित विवादों के कारण पीडि़त पक्षकार प्रशासनिक अधिकारियों के समक्ष प्रत्यावेदन देकर अपनी समस्या का निदान खोजता है, किन्तु जब उसकी जायज समस्या का समाधान नहीं होता है तो वह उच्चन्यायालय के समक्ष संविधान के अनुच्छेद २२६ के अन्तर्गत अपनी याचिका प्रस्तुत करता है।
उत्तर प्रदेश के अधिकांश जनपदों के मुकदमों का क्षेत्राधिकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय तथा शेष का लखनऊ उच्च न्यायालय है। दोनों न्यायालयों के समक्ष बेसिक शिक्षा के हजारों मुकदमे लंबित हैं। इतना ही नहीं, जिला न्यायालयों में भी कुछ ऐसे मामले लंबित हैं जो किराए के मकानों में संचालित परिषदीय विद्यालयों से संबंधित हैं अथवा प्रबंधकीय विद्यालयों के भिन्न-भिन्न प्रकार के विवादों के मुकदमें लंबित हैं।
शिक्षामित्रों के अधिकांश मुकदमों में तो जिला बेसिक शिक्षाधिकारियों अथवा उच्चाधिकारियों को फार्मल पार्टी बनाना मुकदमे को विविध स्वरूप देने और न्यायालय की स्वीकार्यता हेतु आवश्यक होने के कारण वादी की विवशता है। वर्ना मुख्य विवाद ग्राम सभा स्तर पर चयनित सर्वोच्च अंक पाने वाले शिक्षामित्र व दूसरे अथवा तीसरे स्थान प्राप्त ऐसे अभ्यर्थियों में रहा है जो यह दावा करते हैं कि चयनित शिक्षामित्र की नियुक्ति का आधार फर्जी अंकपत्र अथवा चयनित शिक्षामित्र का अधिवास प्रमाण पत्र फर्जी है।
कई मामलों में सच्चाई सामने आने पर वर्षों से शिक्षामित्र पद पर कार्य करते लोगों की सेवाएं भी समाप्त की गई हैं लेकिन फिर भी मुकदमेबाजी को बढ़ावा देने के लिए कभी-कभी जानबूझ कर भी व्यर्थ के वाद योजित किए जाते हैं। बेसिक शिक्षा में कार्यरत पटल सहायकों की लापरवाही भी बढ़ते मुकदमों के कारक हैं क्योंकि उन्हें पता है कि मुकदमों में प्रतिवादी मुख्य रूप से अधिकारी ही होते हैं।
शायद इसी कारण उच्च न्यायालयों द्वारा जो निर्देश अथवा आदेश दिये जाते हैं उनके निस्तारण में विभाग के बाबुओं द्वारा कोई रुचि नहीं ली जाती है और मामला जब अवमानना याचिका अथवा विभागीय अधिकारियों के पर्सनल अनुभव यानि व्यक्तिगत पेशी तक पहुंचता है तो आनन-फानन में अधिकारियों द्वारा आदेश पारित कर अपने बचाव में विभाग के हितों की बलि चढ़ा दी जाती है।
विभाग के अधिकांश जिम्मेदार न मुकदमों को गंभीरता से लेना चाहते हैं और न ही उसके निस्तारण में रुचि लेते हैं। प्रबंधकीय विद्यालयों के मुकदमों में भी मुकदमों के संबंध में स्थिति अत्यंत सोचनीय है। बेसिक शिक्षा परिषद में बढ़ते मुकदमों के कारण सरकार के राजस्व का बड़ा हिस्सा परिषदीय अधिवक्ताओं के भुगतान और मुकदमों की पैरवी कर रहे अधिकारियों के वाहनों के डीजल और पेट्रोल मद में खर्च हो रहा है।
यदि बेसिक शिक्षा अधिनियम व अध्यापकों की भर्ती व सेवा नियमावली के अनुरूप ही अध्यापकों की भर्ती से लेकर सेवा समाप्ति तक के समस्त उपबंधों को लागू करना विभागीय अधिकारियों से लेकर बाबुओं की जिम्मेदारी है तो इस चूक के कारण मुकदमों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है, यह यक्ष प्रश्न है।
अध्यापकों द्वारा छोटी-छोटी बातों में मुकदमे बाजी करना भी एक आम बात हो गई है लेकिन सवाल यह उठता है कि कहीं न कहीं उनके अधिकारों का हनन होता है जिसका समाधान प्रशासनिक स्तर पर नहीं होता तभी वह न्यायालय की शरण में जाते हैं। वास्तविकता यह है कि जिन कार्यों को करने की जिम्मेदारी संविधान में व्यवस्थापिका व कार्यपालिका को सौंपी थी, आज वह न्यायपालिका कर रही है क्योंकि न्यायपालिका नागरिकों हितों व संविधान में उल्लिखित अनुच्छेदों के क्रियान्वयन की सजग प्रहरी है।
बेसिक शिक्षा में क्रियाशील विभिन्न संगठन यथा शिक्षामित्र संघ, प्राथमिक शिक्षक संघ, पूर्व माध्यमिक शिक्षक संघ, रसोईया संघ, अनुदेशक संघ, प्रेरक संघ, विशिष्ट बीटीसी, अध्यापक संघ और इन संगठनों के आपस में बटे हुए कई धड़े अपने-अपने हितों और अधिकारों की लड़ाई के लिए तत्पर रहते हैं वहीं दूसरी ओर बाबुओं को बैकडोर से खुशकर मन चाहे नोटशीट तैयार करा कर अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए अपने-अपने रसूख का बेजा इस्तेमाल करने वाले लोग जाने अनजाने में अपने हित के आदेश अधिकारियों से करा लेने में इसलिए सफल हो जाते हैं क्योंकि लाभार्थी व नोटशीट लिखने वाले बाबू नियमों की गलत व्याख्या करते हैं और अधिकारीगण को नियम अधिनियम को समझने की फुर्सत नहीं है या फिर वे नियमों के जानकार नहीं हैं।
प्रदेश के अधिकांश जिलों के बेसिक शिक्षाधिकारी एकेडमिक संस्थाओं यथा जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थाओं अथवा जीआईसी या जीजीआईसी से जिला बेसिक शिक्षाधिकारी पदों पर पद स्थापित किए गए हैं न कि पीईएस सेवा संवर्ग के अधिकारी। पीईएस से चयनित जिला बेसिक शिक्षाधिकारियों में अपेक्षाकृत प्रशासनिक क्षमता अधिक देखी गई है तथा विद्यालयों की पठन-पाठन की दशा व दिशा ठीक करने में इनकी भूमिका भी सकारात्मक रही है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णित अवमानना याचिका सख्या २६०८/२०११ यूपी पॉवर कार्पोरेशन बनाम राजेश कुमार क्रियान्वयन करने हेतु आलोक रंजन, तत्कालीन मुख्य सचिव उत्तर प्रदेश शासन द्वारा समस्त विभागाध्यक्षों को दिनांक २१ अगस्त २०१५ के पत्र द्वारा निर्देशित किया गया था कि न्यायालय के आदेश के समादर में आदेश का पालन करें। १
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)