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कैसे दूर कोर्ट में लंबित मामलों का बोझ

raghvendra
Published on: 5 Oct 2018 12:13 PM GMT
कैसे दूर कोर्ट में लंबित मामलों का बोझ
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प्रमोद भार्गव

हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी बनी ही रहती है। ऐसा केवल न्यायालयों में हो, ऐसा नहीं है, पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। संसद में इसी साल चर्चा के लिए तैयार किए गए दस्तावेजों के अनुसार प्रति 10 लाख की आबादी पर 19.49 जज हैं। निचली अदालतों में 5,748, उच्च न्यायालयों में 406 और सर्वोच्च न्यायालय में 6 जजों के पद रिक्त हैं। जजों के कुल स्वीकृत 22,474 पदों में से निचली अदालतों में 16,726 जज सेवारत हैं। इसी प्रकार उच्च न्यायालयों में मंजूर 1,079 पदों की तुलना में 673 जज ही कार्यरत हैं। सर्वोच्च न्यायालय में कुल 31 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 6 खाली हैं। गोया, न्यायपालिका में कुल 6,160 जजों के पद खाली हैं। जजों की कमी का मामला अप्रैल 2016 में उस समय सुर्खियों में आया था, जब तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने जजों की नियुक्ति में सरकार की निष्क्रियता का रोना रोते हुए मुकदमों के अंबार से निपटने के लिए जजों की संख्या 21 हजार से बढ़ाकर 40 हजार करने की बात कही थी। लेकिन तब से लेकर अब तक स्थिति यथावत है। वर्तमान में सभी अदालतों में कुल मिलाकर 2,76,74,499 मामले लंबित हैं। यह स्थिति तब है जब अदालतों का संस्थागत ढांचा भी बढ़ा दिया गया है। उपभोक्ता, परिवार और किशोर न्यायालय अलग से अस्तित्व में आ गए हैंं। फिर भी काम संतोषजनक नहीं हैं। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते अब बोझ साबित होने लगी हैं। अब तो एक अलग वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है।

आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुसार अनेक न्यायाधीश ग्रीष्म ऋतु में छुट्टियों पर चले जाते हैं। सरकारी नौकरियों में महिलाकर्मियों को 26 माह के प्रसूति अवकाश के साथ दो बच्चों की 18 साल की उम्र तक के लिए दो वर्ष का ‘बाल सुरक्षा अवकाश’ भी दिया जाता है। अदालत से लेकर अन्य सरकारी विभागों में मामलों के लंबित होने में ये अवकाश एक बड़ा कारण बन रहे हैं। इधर कुछ समय से लोगों के मन में यह भ्रम भी पैठ कर गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवाकर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है। इस कारण न्यायलयों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं,जो न्यायालय के बुनियादी कामों को प्रभावित कर रही हैं। जबकि प्रदूषण, यातायात, पर्यावरण और पानी जैसे मुद्दों में अदालत के दखल के बावजूद इन क्षेत्रों में बेहतर स्थिति नहीं बनी है।

न्यायिक सिद्घांत का तकाजा है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए,दूसरे आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला एक तय समय-सीमा में हो जाए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं होता। मुकदमों के लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था ‘न्यायाधीश भले ही निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवश्य दें। ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।’ इस तथ्य से यह बात सिद्घ होती है कि सभी अदालतों के न्यायाधीश बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं। गोया, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है। इन्हीं न्यायमूर्ति ने कहा था कि ‘जब अस्पताल 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं ?’ यह बेहद सटीक सवाल था।

यही प्रकृति वकीलों में भी देखने में आती है। वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए किसी दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना कोई ठोस पड़ताल किए न्यायाधीश इसे स्वीकार भी कर लेते हैं। तारीख बढऩे का आधार बेवजह की हड़तालें और श्रद्वांजली सभाएं भी हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने इस तरह के स्थगन और हड़तालों से बचने की सलाह दी थी। लेकिन जिनका स्वार्थ मुकदमों को लंबा चलाने में अंतर्निहित है,वहां ऐसी नसीहतों की परवाह किसे है?

कई मामलों में गवाहों की अधिक संख्या भी मामले को लंबा खींचने का काम करती है। ग्रामीण परिवेश और बलवों से जुड़े मामलों में ऐसा अक्सर देखने में आता है। इस तरह के एक ही मामले में गवाहों की संख्या 50 तक देखी गई है, जबकि घटना के सत्यापन के लिए दो-तीन गवाह पर्याप्त होते हैं। इतने गवाहों के बयानों में विरोधाभास होना संभव है। इसका लाभ फरियादी की बजाय अपराधी को मिलता है। इसी तरह चिकित्सा परीक्षण से संबंधित चिकित्सक को अदालत में साक्ष्य के रूप में उपस्थित होने से छूट दी जाए। क्योंकि चिकित्सक गवाही देने से पहले अपनी रिपोर्ट को पढ़ते हैं और फिर उसी इबारत को बोलते हैं। फोरेंसिक रिपोर्ट भी समय पर नहीं आने के कारण मामले को लंबा खींचती हैं। प्रयोगशालाओं में ईमानदारी नहीं बरतने के कारण संदिग्ध रिपोर्टें भी आ रही हैं। इसे भी देखा जाना चाहिए।

अदालतों में मुकादमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारों का रवैया भी जिम्मेवार है। वेतन विंसगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श व पारदर्शी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करतीं हैं। नतीजतन जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृति के बाद बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है।

इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य हैं, वह भटकता रहता है। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद बने रहना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनके रौब-रुतबा और पौ-बारह सुनिश्चित हैं। कारागारों में विचाराधीन कैदियों की बड़ी तादाद होने का एक बड़ा कारण न्यायायिक और राजस्व अदालतों में लेटलतीफी और आपराधिक न्याय प्रक्रिया की असफलता को माना जाता है। लेकिन अदालतें इस हकीकत को न्यायालयों और न्यायाधीशों की कमी का आधार मानकर अकसर नकारती हैं। इसलिए अच्छा है जजों की कमी से अलहदा कारणों की पड़ताल करके उन्हें हल करने के उपाय तलाशे जाएं ?

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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