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क्रिकेट ने खेल को हड़प लिया, सियासत ने संस्था को

raghvendra
Published on: 2 Aug 2019 10:29 AM GMT
क्रिकेट ने खेल को हड़प लिया, सियासत ने संस्था को
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मदन मोहन शुक्ला

क्रिकेट का जुनून भारतीयों के सर चढ़ कर बोलता है। क्रिकेट के मैदान पर भारतीय दर्शक अजूबी वेश -भूषा एवं विभिन्न भाव-भंगिमा के साथ तैनात रहता है। ज्यों-ज्यों खेल आगे बढ़ता है अगर भारत जीत की ओर है तो जूनून तूफानी हो जाता है, गर भारत हार रहा होता है तो दर्शकों के साथ-साथ पूरा देश शोक में डूब जाता है। मानों कोई गमी हो गई हो। माशाल्लाह अगर मैच पाकिस्तान से हो तो देश की जीत ,मानो इस्लामाबाद को फतह कर लिया हो और अगर हार गए तो मानो कश्मीर हाथ से निकल गया हो। यह है भारतीयों का क्रिकेट प्रेम।

क्रिकेट के हमारे कर्ताधर्ता अपने निजी स्वार्थ के लिए 123 करोड़ जनता की भावनाओं के साथ कैसे खिलवाड़ करते हैं, इसकी एक मिसाल है 2017 की चैंपियन ट्रॉफी स्पर्धा। टीम इंडिया के मुख्य कोच अनिल कुंबले और विराट कोहली में तनातनी चल रही थी। क्रिकेट एडवाइजरी कमेटी की सलाह को दरकिनार करते हुए विराट की ही बात को माना गया और रवि शास्त्री को कोच बनाया गया। इस घटना को आज के परिप्रेक्ष्य में देखिए। २०१९ के वल्र्ड कप में हार की नींव उसी दिन पड़ गयी थी। क्योंकि भारतीय कप्तान को लगने लगा था कि जब वह कोच चुन सकता है तो फिर अंतिम एकादश को चुनने से कौन रोक सकता है।

क्रिकेट के इस जूनून ने किस तरह दूसरे खेलों - फुटबाल, हॉकी, टेनिस, वॉलीबॉल और एथलेटिक्स को गर्त में पहुंचा दिया है। सरकार का सौतेला रवैया भी कम दोषी नहीं है। 2019-20 का स्पोर्ट्स का बजट 2216 करोड़ था जो पिछले बजट से मात्र 200 करोड़ ही ज्यादा है। अब अगर बीसीसीआई की कमाई का आकलन करें तो वह एक साल में इससे ज्यादा कमाई कर लेता है। और तो और, सरकार भी इस कमाई की प्रति नरमी बरतती है कि टैक्स में छूट की सुविधा दे रखी है। बहरहाल, भारत सेमीफाइनल में हार गया पूरा देश शोक में डूब गया। ट्वीटर पर संवेदना और ढांढस दिलाने की मानो होड़ लग गयी। काश ऐसा जूनून दूसरे खेलों के प्रति होता। स्टार धाविका दुती चंद ने इटली में वल्र्ड यूनिवर्सिटी गेम्स में गोल्ड मेडल जीत कर इतिहास रच दिया। इस खेल में गोल्ड मेडल जितने वाली पहली महिला बन गई लेकिन यह उपलब्धि क्रिकेट के शोर में दब कर रह गयी। जब भारत क्रिकेट में हारा तो 100 जानी मानी हस्तियों के ट्वीट क्रिकेट टीम को ढांढस दिलाने और संवेदना व्यक्त करने में किए गए। वहीं इस स्टार धाविका की उपलब्धि पर केवल 11 ट्वीट हुए। उसमें पीएम, राष्ट्रपति, खेल मंत्री व चंद आदिवासी बेल्ट के मुख्यमंत्रियों के अलावा सामान्य जनता के थे। वही कहावत है कि समर्थवान का साथ भगवान भी देता है।

क्रिकेट खिलाडिय़ों की आमदनी की अगर बात करें तो 2018-19 में कुल कमाई 1800 करोड़ रुपए की थी। विराट कोहली की ही कमाई 171 करोड़ रही। यह केवल क्रिकेट से है। विज्ञापन अन्य जरिए से हुई कमाई अलग है। भारतीय टीम के क्रिकेटरों की जो कमाई होती है वह अन्य खेलों के सारे खिलाडिय़ों की कुल कमाई का चार गुना है। क्रिकेट का खिलाड़ी अगर पहले 11 में नहीं है तब भी वह सालाना 11 करोड़ तक कमा लेता है।जरा सरकार द्वारा अन्य खेलों के लिए आवंटित बजट को देखिए। 2019-20 के लिए नेशनल स्पोर्ट्स फेडरेशन को पिछले बजट से 13 लाख कम यानी 245 करोड़, स्पोर्ट्स ऑथरिटी ऑफ इंडिया को 450 करोड़, नेशनल स्पोर्ट्स डेवलपमेंट फण्ड में 70 करोड़, खेल के प्रोत्साहन के लिए 411 करोड़, खेलो इंडिया के लिए 601 करोड़, राज्य,नेशनल एवं कॉलेज स्तर पर इंसेंटिव का फण्ड 230 करोड़। अगर क्रिकेट के बजट से तुलना करें तो यह मात्र 6 महीने के बजट के बराबर होगा। जो बजट अन्य खेलों के लिए आवंटित है उसका 40 फीसदी तो अधिकारियों पर खर्च हो जाता है।

एक बड़ा बिजनेस विज्ञापन का है। स्टार स्पोर्ट्स ने 2015 से 2023 तक प्रसारण का अधिकार 1200 करोड़ में खरीद रखा है। इसके एवज में विज्ञापन मुफ्त में मिलता है। कमाई 1500 करोड़ की होने की है। आईपीएल से 2500 करोड़ का विज्ञापन। अगर भारत खेल रहा है तो 10 सेकंड का 20लाख रुपए, अन्य देश के लिए 10 सेकंड का 6 लाख,अगर पाकिस्तान - भारत मैच है तो 10 सेकंड का 30 लाख रुपए। फाइनल में भारत के न होने पर केवल 10-12 लाख ही मिलेंगे।

जहां इतना पैसा दांव पर लगा हो वहां राजनीति तो होना लाजिमी ही है। इसी कारण भारतीय क्रिकेट जबर्दस्त राजनीति का शिकार है। बीते वल्र्ड कप में इसका मुजाहिरा सामने आया। खिलाडिय़ों के चुनाव में कोच और कप्तान की मनमानी चली। सेलेक्टर्स की तो मानो कोई हैसियत ही नहीं है। टीम इंडिया के कोच अनिल कुम्बले इसी राजनीति का शिकार हुए। कोहली को सख्त अनुशासन वाले कुम्बले पसंद नहीं थे सो उनको हटा दिया गया। वर्तमान कोच रवि शास्त्री को बुला कर जिम्मेदारी सौंपी गई।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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