Freebies Culture: देश को कंगाल बनाने की घृणित राजनीति

Freebies Culture: चुनाव में मुफत रेवड़िया बांटकर सत्ता में आने वाली पार्टियों के कार्यकाल में उनके राज्यों की आर्थिक बदहाली का ही नतीजा रहा है कि कहीं बिजली तो कहीं पानी नहीं मिल पा रहा

Network
Newstrack Network
Published on: 23 Jun 2024 7:16 AM GMT
Freebies Culture
X

Freebies Culture

Freebies Culture: यदि चुनाव के समय राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणा पत्रों के माध्यम से अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध के लिये नाना प्रकार की मुफत की रेवाड़िया बांटने की संस्कृति पर लगाम न लगाई गई तो देश को कंगाल होने से कोई बचा नहीं सकता।इससे अधिक दुर्भाग्य और बिडम्बना हो भी क्या सकती है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बार-बार चिंता जताने और इस पर रोक लगाने की मंशा जताने के बावजूद आज तक न तो सुप्रीम कोर्ट का कोई आदेश आ सका और न सरकार कोई कानून बना सकी।

चुनाव में मुफत की रेवड़िया बांटकर सत्ता में आने वाली पार्टियों के कार्यकाल में उनके राज्यों की आर्थिक बदहाली का ही नतीजा रहा है कि कहीं बिजली नहीं मिल पा रही है तो कहीं पानी नहीं मिल पा रहा है। विकास के लिये तो मानों धन का अकाल ही पैदा हो गया है।हाल ही में यदि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को डीजल व पेट्रोल के दामों में भारी वृद्धि करने को विवश होना पड़ा है तो यह मुफत रेवड़ियां बांटे जाने का ही नतीजा है। यही हाल पंजाब व दिल्ली का हो चुका है।


जब इनके कर्मो से राज्य की बदहाली की सीमायें पार करने लगती है तो ये केन्द्र सरकार से अतिरिक्त सहायता की मांग करने लगते हैं और यदि केन्द्र सरकार ऐसा करने से मना करती है तो केन्द्र पर ही तरह-तरह के आरोप मढ़ने लगते हंै।इस दिशा में ३ अक्टूबर २०२२ को भारतीय स्टेट बैंक की एक रपट आंखे खोल देने को काफ ी है। रपट में मुफत रेवड़ी संस्कृति को देश की अर्थ व्यवस्था के लिये घातक बताया गया था।ज्ञात रहे २०२२ में सुप्रीम कोर्ट और मोदी सरकार ने इस दिशा में कड़े कदम उठाये जाने की मंशा जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि समस्या के निदान के लिये एक समिति का गठन किया जाना चाहिये। इसके बाद २०२३ में उसने मुफत रेवड़ियां बांटे जाने को लेकर ही एक याचिका पर मध्य प्रदेश राजस्थान और केन्द्र सरकार को नोटिस भी जारी किया था।


१६ जुलाई २०२२ को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 'बुदेलखण्ड एक्सप्रेस वे जनता को सौपने के बाद जनपद जालौन के कैथोरी गांव में एक जनसभा में कहा था कि देश की राजनीति से मुफत रेवड़ी संस्कृति खत्म करेगें। युवाओं को चेताया कि ऐसी राजनीति कर वोट बटोरने वालों से सावधान रहे, ये घातक है। उससे देश को नुकसान हो रहा है। रेवड़ी संस्कृति वाले कभी एक्सप्रेस वे, डिफें स कॉरीडोर एयरपोर्ट नहीं बनायेगें। वो तो रेवड़ी में फसाकर खुद के खजाने भरेगें।ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि देश की प्रबुद्ध जनता ही मुफत रेवड़ी संस्कृति को सदा-सदा के लिये खत्म करने को आगे आये वरन देश की आर्थिक बदहाली के नतीजे भोगने के लिये सभी को तैयार रहना ही होगा।


एक प्रत्याशी एक ही सीट से चुनाव लड़े

भारत निर्वाचन आयेाग को सरकार से जल्द से जल्द ये कानून बनाने की मांग करनी चाहिये कि एक प्रत्याशी सिर्फ एक सीट से चुनाव लड़ सकेगा। फि लहाल जब तक कानून नहीं बनता तब तक निर्वाचन आयोग को इस दिशा में स्वयं पहल करनी चाहिये।कौन नहीं जानता कि खासकर बड़े नेताओं की दो-दो सीटों से चुनाव लड़ने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है दोनो सीटे जीतने पर वे मनचाही एक सीट से प्रतिनिधित्व करते हैं और दूसरी सीट छोड़ देते हैं। नतीजतन उनके द्वारा छोड़ी गई ऐसी सीटों पर दुबारा चुनाव कराया जाता है और जिस पर देश की आम जनता की गाढ़ी कमाई दुबारा फूंकी जाती है।यह भी कम विचारणीय नहीं है कि ऐसे उपचुनावों से देश की आर्थिक स्थिति पर अनायास बोझ बढ़ जाता है और यह बोझ देश का करदाता उठाने को मजबूर होता है।

और पिसता ही जा रहा है देश का मध्यम वर्ग

चाहे निज राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि हेतु चुनावी रेवड़ियां बांटे जाने की बढ़ती परम्परा हो। चाहे गरीबों हेतु चलाई जाने वाली मुफत की योजनायें हों और चाहे दो सीटों से जीतने वाले प्रत्याशियों का एक सीट छोड़े जाने से होने वाले उपचुनाव, आखिर इनकाबोझ कौन उठाता है? साफ है देश का करदाता अब सवाल यह है कि समाज का कौन सा वर्ग है कि करदाता के रूप में जिसकी संख्या देश में सर्वाधिक है। सपाट उत्तर आता है मध्यम वर्ग। मध्यम वर्ग में अधिसंख्य व्यवसायी समाज और नौकरीपेशा के लोग आते हैं। सरकारी नौकरी में उच्च पदों पर कार्यरत लोगों को छोड़ दिया जाये तो अधिसंख्य सरकारी व निजी क्षेत्रों के नौकरी पेशा लोगों को समाज का सर्वाधिक बोझ उठाने वाला वर्ग कहा जा सकता है। समाज में ऐसी ही दशा उन छोटे व्यापारियों की भी है जो पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाने में ही अपनी सारी जिदंगी खपा देते और मृत्यु पर्यंत उन्हे सुकून नहीं मिल पाता।


हर बजट में चाहे केन्द्रीय बजट हो और चाहे राज्यों का बजट मध्यम वर्ग की नजरें हमेशा आयकर में छूट को लेकर ही जिज्ञासु रहती हंै। इसका कारण उसे तंगहाली से राहत मिलने की उम्मीद जो होती है। यह भी किसी को बताने की जरूत नहीं है कि राष्ट्र व समाज की रीढ़ होते हुये भी सरकारी योजनाओं का उसे कोई लाभ नहीं मिल पाता। सारा का सारा लाभ निम्न वर्ग व उच्च वर्ग को प्राप्त होता है।मध्यम वर्ग को इससे इंकार नहीं है कि सरकार उसके करों से समाज के जरूरतमंद लोगों के लिये लाभ की योजनायें न बनाये, न लागू करें। उसे खीझ व गुस्सा इस बात से है कि राजनीतिक दलों की स्वार्थ पूर्ति हेतु ही उसे बलि का बकरा बनाया जाता है।चुनाव में रेवड़ी बांटने की संस्कृति का होता विस्तार, दो-दो सीटों से चुनाव लड़कर एक सीट छोड़ने की परम्परा को आखिर मध्यम वर्ग क्यों ढोता फि रे? सरकार व विपक्षीदलों को इस दिशा में गहन विमर्श करना ही होगा और जितनी जल्द हो सके उतना जल्द किया जाये। यदि कहीं मध्यम वर्ग ने कंधा डाल दिया तो हालात संभाले न संभलेगें।

शिव शरण त्रिपाठी

( लेखक स्तंभकार हैं । ये लेखक के निजी विचार हैं।)

Shalini singh

Shalini singh

Next Story