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पापा का छाता
“मानव” अपनी पत्नी “अभिलाषा” के साथ मलवे में तब्दील अपने पैत्रिक घर “उम्मीद कुटीर” के सामने, पुत्र “विकास” और बेटी “समृद्धि” के साथ “महमूदपुर” गाँव को करुणा भरी दृष्टि से निहार रहा था।
"मानव" अपनी पत्नी "अभिलाषा" के साथ मलवे में तब्दील अपने पैत्रिक घर "उम्मीद कुटीर" के सामने, पुत्र "विकास" और बेटी "समृद्धि" के साथ "महमूदपुर" गाँव को करुणा भरी दृष्टि से निहार रहा था l गाँव में पसरा सन्नाटा यह बता रहा था कि गाँव में कोई यह पूछने के लिए शेष नहीं है कि, मानव से यह पूछ ले कि वह लंदन से कब वापस आया l सामने के टीले पर गिद्धों का एक झुंड जरुर शांत बैठा था l उनमें कोई हलचल न थी। जैसे, वे भी सदमें में मांस नोचना भूल गए हों l आवारा कुत्ते भी अपने अगले पैरों के बीच जमीन पर मुंह छिपाए एकदम शांत ऐसे पड़े थे, जैसे मातम मना रहे हों। उनमें कोई हलचल न थी l ऐसा लग रहा था जैसे उनके प्राणों को भी लकवा मार गया है।
मानव ने विषादपूर्ण मनोस्थिति में महमूदपुर गाँव के चारों तरफ नजर घुमाई तो वीरान हुए गांव में मौत भौंक रही थी l कुछ लोगों का झुण्ड इकट्ठा होकर मृत लोगों के गले और जेब से सामान और पैसा निकालकर थैले में भर रहे थे l मानव कहना तो बहुत कुछ चाह रहा था लेकिन, लाख कोशिशों के बावजूद भी उसके गले ने साथ नहीं दिया, एक भी शब्द नहीं निकल पाया जैसे; किसी ने गले में हाथ डालकर आवाज को निकलने से रोंक दिया हो l वह सिर्फ अपनी पत्नी "अभिलाषा", पुत्र "विकास" और बेटी "समृद्धि" की तरफ एक नजर उठाकर देखभर पाया, जो शब्दों की सीमा को तोड़ रहे थे l
"मानव" मलवे में तब्दील जिस "उम्मीद कुटीर" की चौखट के सामने सिर पर हाथ रखें; जमीन पर बैठा था उसे। उसके पापा ने दिन-रात मेहनत करके बनाया था l विकास और समृद्धि की तलाश में मानव ने अपने इस घर को कई साल पहले अकेला छोड़कर लंदन चला गया था; बूढ़े बाप के सहारे l मां तो बचपन में ही गुजर गई थी l उसके मन में महमूदपुर गांव का बचपना पानी की गोल भंवर की तरह तेजी से नाचने लगा l वह बेसुध जमीन पर बैठा सोचता रहा; "जिंदगी एक तिनका है जो नियति के बवंडर में क्षण-भर भी नहीं टिक सकती" l
अभिलाषा ने मानव के सिर पर हाथ रखकर धीरे से कहा; "मानव उठो" !, 'उम्मीद कुटीर के मलबे की तरफ देखों' सब कुछ विलीन हो गया l पापा को भी मलवा निगल गया l मानव ने सिहरन भरे मन से सिर ऊपर उठाया l उठने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके दोनों पैर बेजान हो चुके हैं। उनमें शरीर का भार उठाने की शक्ति ही नहीं है l पत्नी अभिलाषा ने सहारा दिया, मानव का हाथ पकड़कर उठाया l मानव लड़खड़ाते क़दमों से उम्मीद कुटीर के जमींदोंज सेहन में गया l पैरों से चारों तरफ बिखरे मलबे को कुरेदने लगा l तभी उसको मलबे में दबा काले रंग की कोई चीज दिखी l वह वहीँ बैठकर दोनों हाथ से मलवा तेजी से हटाने लगा, तभी अभिलाषा बीच में बोली, मानव ! क्या कर रहे हो ? लेकिन मानव को जैसे कुछ सुनाई ही न पड़ा हो l उसने मिट्टी हटाई तो उसे टूटा-फूटा काले रंग का एक छाता मिला l
छाते को हाथ में लेकर मानव निढ़ाल जमीन में बैठ गया l मालूम नहीं किस सोंच के बियायान जंगल में खो गया l यह वही छाता है जिसे पापा आंधी तूफ़ान से बचाने के लिए उसके ऊपर तान देते थे l खुद भीग जाएँ, लेकिन मेरे ऊपर मज़ाल क्या कि पानी की एक बूंद पड़ जाए l पापा को पता नहीं कितनी बार इस छाते को अपने हाथ से सिलते हुए मैंने देखा था l मैंने एक बार पूंछा था, "पापा आप इसे लगाते नहीं फिर भी आप इसे इतना संभालकर क्यों रखते हैं" ? पापा ने हँसते हुए कहा था "बेटा इसे मैं अपने लिए थोड़े सिल रहा हूँ, तेरे ऊपर धूप लग रही है, आ छाते के नीचे आ जा l तेरी मां भी तो तुझे मेरी गोंद में ही डालकर चिरविश्राम में चली गई हैं l" तूने अभी खाना भी नहीं खाया है चल खाना खा ले l सुबह तुझे खेत पर ले चलूँगा l रात में बारिस बहुत ज्यादा हुई थी, वारिस भाई ने खबर दी थी कि धान के खेत का मेंड बह गया है l उसे बांधना होगा l
पापा सुबह जल्दी उठ गए थे जानवरों को चारा दिया l खुद तैयार होकर मुझे जगाने आए बोले, मानव बेटा उठ ! तैयार हो जा ! खेत पर चलना है l मैं नहीं उठा तो पापा मेरे सिर के पास आए, सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "मानव" बेटा उठेगा नहीं, उठ जा खेत पर चलना है l मैं उठकर जल्दी से तैयार हो गया, खेत पर जाने के लिए l क्योंकि पापा मुझे कभी अकेले नहीं छोड़ते थे l उनके अंदर कोई डर, भय या आशंका गहरे में पैठ बना चुकी होगी l खैर, पापा ने अपने बाएं कंधे पर फावड़ा रखा और दाहिने हाथ में छाता लिया और मैं उनके पीछे-पीछे निर्भय होकर चलने लगा l मौसम बहुत खराब था, बादल छाए हुए थे लेकिन उनको कोई चिंता नहीं थी l पापा बार-बार छाते की तरफ देखते और उसे चूम लेते l
खेत पर पहुंचकर उन्होंने अपना अगौंछा बिछाकर मुझे बैठा दिया l छाते के ऊपर लगी कील के सहारे छाते को जमीन में गाड़ दिया l मुझे ऐसा लग रहा था जैसे वह छाता मेरी पहरेदारी में खड़ा हो l और पापा खुद फावड़े से खेत की 'मेड' बाँधने लगे l करीब एक घंटे बाद बूंदा-बांदी होने लगी l पापा मेरे पास आये और छाते को खोलकर मेरे ऊपर लगा दिया, और खुद भीगकर मिट्टी से खेत बांधने लगे l पानी खूब बरसा, "पापा भीग गए" लेकिन "मेरे ऊपर पानी की एक बूंद भी न पड़ने पाई" l मैं सोंचने लगा आखिर जब इस छाते को पापा को खुद लगाना नहीं है, उन्हें भीगना ही है तो वह क्यों इसे इतना संभालकर रखते है l तभी मुझे लगा कोई मुझे झकझोर रहा है और कह रहा है, "मानव ! उठो ! कहाँ खो गए ? उठो ! उठो ! उठो ! l
मुझे लगा, जैसे किसी ने मुझे सोते से जगा दिया हो, लेकिन "यह मेरे पापा तो नहीं थे", क्योंकि मेरे पापा तो इस तरह कभी नहीं जगाते थे l मानव ने ऊपर सिर उठाया तो देखा कि 'अभिलाषा' उसे उठा रही थी l मानव छाते को हाथ में लेकर उठा और एक बार उस छाते को आँख के पास लाया उसके बाद, वह छाते को सीने से लगाकर जोर-जोर से बिलख-बिलखकर रोने लगा l आंसुओं की धारा थमने का नाम नहीं ले रही थी l हाथ में पकड़े जीर्ण-शीर्ण छाते को पत्नी "अभिलाषा" पुत्र "विकास" और बेटी "समृद्धि" को दिखाते हुए रुंधी आवाज में कहा, "आज मैं अनाथ हो गया", जो छाता धूप-छाँव से मुझे बचाता था आज वह टूट गया, बिखर गया l मेरे ऊपर संकट आने के पहले यह छाता उससे लड़ने के लिए मेरे ऊपर तन जाता था l
तभी कुत्तों के भौंकने की आवाज आई l सामने झुण्ड में बैठे गिद्धों ने 'कों', 'कों' की आवाज की l उन्होंने शायद लोगों के सामान और गहने निकालने वाले गाँव के गिद्धों को देख लिया था l शायद मुझसे कहना चाहते थे कि ऐसी ह्रदय विदारक आपदा में तो हम अपनी प्रवृत्ति तक भूल बैठे हैं लेकिन, इन गिद्धों को तो "आपदा में अवसर" ढूंढने का मौका जैसे मिल गया हो l मानव के हाथ से छाता छूट गया l पत्नी अभिलाषा से रोते हुए कहा अब हमें जीवन मूल्यों के पीछे चलना है, अंधी भूख और दौड़ को हमेशा के लिए छोड़कर अब इसी गाँव में पापा की विरासत को आगे बढ़ाना है, हमें भी अपने बच्चों का छाता बनना है जो पैसों की तीली से नहीं प्यार की तीली से बना हो l मानव ने छत्रपाल को जोर से आवाज लगाई, जो महमूदपुर गाँव के प्रधान थे l गाँव वालों ने भारी बहुमत से उन्हें चुनाव में जिताया था l इन गिद्धों को रोंकने का दायित्व तो गाँव के लोगों ने उन्ही को सौंपा था l उनका घर तो पक्की ईंट से बना था जो अब भी सीना ताने लोगों को चिढ़ा रहा था, बाहर से ताला लगा था l शायद ! वह कहीं गाँव से दूर अपने काम से गए होंगे l इतने दिन हो गए सारी दुनिया महमूदपुर गाँव की त्रासदी को जान चुकी है लेकिन, छत्रपाल अभी तक गाँव वापस नहीं आ सके l तब मानव ने झुककर एक पत्थर उठाया।