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27 June In History: पुण्यतिथि 27 जून -क्या कोई दूसरा सैम मानेकशॉ होगा?

27 June In History:भारत की हजारों सालों में पहली किसी युद्ध में जीत थी। उसने दुनिया के नक्शे की तस्वीर बदल दी। भारत के सामने 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया। सैंम मानेकशॉ

RK Sinha
Report RK Sinha
Published on: 26 Jun 2024 5:54 PM IST
Sam Manekshaw
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Sam Manekshaw

27 June In History: फील्ड मार्शल सैम होर्मसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ अपने जीवनकाल में ही एक किवदंती बन गए थे। जब भी सैम मानेकशॉ का नाम आता है, तो 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध याद आता है। उस युद्ध में वह भारतीय सेना का नेतृत्व कर रहे थे। सैम मानकशॉ 1969 में भारत के सेनाध्यक्ष बने और उनके शानदार करियर का चरम 1971 में पाकिस्तान के साथ जंग में शानदार जीत था। उस युद्ध के बाद ही पूर्वी पाकिस्तान बना बांग्लादेश। सैम मानेकशॉ ने 1971 में भारत की सैन्य जीत की जमीन तैयार की। कहते हैं, वह भारत की हजारों सालों में पहली किसी युद्ध में जीत थी। उसने दुनिया के नक्शे की तस्वीर बदल दी। भारत के सामने 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया। सैंम मानेकशॉ


ने सुनिश्चित किया कि पाकिस्तान के युद्धबंदियों के साथ जेनेवा कन्वेंशन के तहत शालीन व्यवहार किया जाये। उन पाकिस्तानी युद्धबंदियों को भारत में ईद मनाने की भी छूट मिली। उन्हें कुरआन की एक प्रति दी गई जब वे वापस अपने देश में गए। अब एहसान फरामोश पाकिस्तान की करतूत जान लें। कैप्टन सौरभ कालिया करगिल जंग के पहले शहीद थे। जिनके बलिदान से करगिल युद्ध की शुरुआती इबारत लिखी गई। महज 22 साल की उम्र में 22 दिनों तक दुश्मन उन्हें बेहिसाब दर्द देता रहा। पाकिस्तानियों ने सौरभ कालिया के साथ अमानवीयता की सारी हदें पार करते हुए उनकी आंखें तक निकाल ली और उन्हें गोली मार दी थीं। दिसंबर 1998 में आईएमए से ट्रेनिंग के बाद फरवरी 1999 में उनकी पहली पोस्टिंग करगिल में 4 जाट रेजीमेंट में हुई थी। जब मौत की खबर आई तो बमुश्किल चार महीने ही तो हुए थे सेना ज्वाइन किए। 14 मई को कैप्टन सौरभ कालिया अपने पांच जवानों के साथ बजरंग चोटी पर पहुंचे थे। उसके बाद पाकिस्तान ने उन्हें बंदी बना लिया और 22 दिन बाद उनका शव सौंपा। सौरभ कालिया के साथ जो हुआ उससे सैम मानेकशॉ का भी खून तो खौला होगा।


बहरहाल,1971 के युद्ध के बाद, टाइम पत्रिका ने लिखा था कि "हिंदू" भारत के सैन्य अभियान का नेतृत्व एक पारसी ( सैम मानेकशॉ) ने किया । बांग्लादेश को मुक्त करने वाली सेना की पूर्वी कमान का प्रमुख एक सिख (लेफ्टिनेंट जनरल जे.एस. अरोड़ा) थे, और अभियान की योजना एक यहूदी चीफ ऑफ स्टाफ ( जे.एफ. जैकब) ने बनाई थी। सैम मानेकशॉ समर नीति के गहरे जानकार थे। पर उनकी जुबान भी फिसलती रहती थी,जिसका उन्हें कई बार बहुत नुकसान भी उठाना पड़ा था। वे 1971 की पाकिस्तान के साथ हुई जंग में विजय का क्रेडिट जाने-अनजाने खुद लेने की फिराक में लगे रहते थे। उन्होंने एक बार तो एक इंटरव्यू में यहां तक दावा कर दिया था कि अगर वे पाकिस्तान सेना के प्रमुख होते तो 1971 की जंग में पाकिस्तान विजयी हो गया होता। उनके इस दावे पर तब भी बहुत बवाल कटा था। जंग सेना के साथ-साथ रा देश ही लड़ता है। इसलिए विजय भी सम्पूर्ण देश की ही होती है। हां, ऱणभूमि के वीरों का अपना विशेष महत्व तो होता ही है।1971 के युद्ध में जे.एफ. जैकब की रणनीति के तहत भारतीय सेना को अभूतपूर्व कामयाबी मिली थी। वे भारत में जन्मे यहूदी थे और समर नीति बनाने में महारत रखते थे। पाकिस्तान सेना के रणभूमि में परास्त करने के बाद जनरल जैकब ने पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट नियाज़ी से अपनी फौज को आत्मसमर्पण का आदेश देने को कहा था। हां, मानेकशॉ कभी-कभी सोच-समझकर नहीं बोलते थे। इससे उन्हें नुकसान भी हुआ। 1971 की जंग के बाद एक महिला पत्रकार ने उनसे पूछा: "सर, अगर आप पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व कर रहे होते, तो कौन युद्ध जीता होता?" मानेकशॉ का जवाब था: "पाकिस्तान युद्ध जीत गया होता!"। उनके इस कथन के बाद काफी बवाल भी हुआ था। हालांकि यह बात मजाक में कही गई थी, पर वे अपने जवाब पर अड़े रहे। कहते हैं, उनकी इस टिप्पणी से देश की तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी काफी नाराज हो गईं थीं।


स्वतंत्रता के बाद, सैम मानेकशॉ सभी प्रमुख सैन्य अभियानों में शामिल थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री सरदार पटेल के निर्देशों को मानते हुए कश्मीर ऑपरेशन (1947-49) की योजना बनाई। उन्होंने चीन के साथ 1962 के युद्ध में पराजय के बाद पंडित नेहरू से खुलकर कहा था कि हम खराब नेतृत्व के कारण हारे। हमारे जवान तो खूब बहादुरी से लड़े। तो बहुत साफ है कि सैम मानेकशॉ ने उस जंग में पराजय के लिए नेहरू जी के नेतृत्व को ही जिम्मेदार माना। सिर्फ सैम मानेकशॉ ने ही नहीं,नेहरू जी को 1962 की जंग का खलनायक तो सारा देश मानता है। इस बीच, राजधानी के कृष्ण मेनन मार्ग पर लगी वी.के. कृष्ण मेनन की आदमकद मूर्ति को देखकर ना जाने कितने हिन्दुस्तानियों को उस चीन युद्ध की यादें ताजा हो जाती हैं। उस जंग में हमारे सैनिक कड़ाके की ठंड में पर्याप्त गर्म कपड़े पहने बिना ही लड़े थे।


उनके पास दुश्मन से लड़ने के लिए आवश्यक शस्त्र भी नहीं थे। इसका जिम्मेदार नेहरू और उनके रक्षा मंत्री मेनन थे। पर, मेनन को नेहरू जी और उसके बाद इंदिरा गांधी का सम्मान मिलता रहा। मेनन घनघोर घमंडी और जिद्दी किस्म के इंसान थे। नेहरू जी ने मेनन को 1957 में रक्षा मंत्री बनाया तो देश में उनकी नियुक्ति का स्वागत हुआ था। उम्मीद बंधी थी कि मेनन और सेना प्रमुख कोडन्डेरा सुबय्या थिमय्या की जोड़ी रक्षा क्षेत्र को मजबूती देगी। पर यह हो ना सका। मेनन किसी की सुनते ही नहीं थे। चीन युद्ध में उन्नीस रहने के मेनन का 10 अक्तूबर, 1974 को निधन हो गया। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने उनके नाम पर राजधानी के एक अति विशिष्ट क्षेत्र की सड़क समर्पित कर दी।चीन ने 1962 के युद्ध में भारत के 37,244 वर्ग किलोमीटर श्रेत्र पर कब्जा कर लिया था। उसका सीधे तौर पर जिम्मेदार नेहरू जी और मेनन थे। मानेकशॉ ने परोक्ष रूप से नेहरू जी को चीन युद्ध की हार का जिम्मेदार बताकर गलत तो कुछ नहीं कहा था। बेशक, मानेकशॉ जैसे रणभूमि के वीर बार- बार जन्म नहीं लेते। समाप्त।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

Shalini Rai

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