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Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati: मन से साधु और वचनों से राष्ट्रनीति को समर्पित एक आध्यात्मिक महापुरुष

Swami Swaroopanand: "जाति न पूछिअ साधु की, जब पूछिअ तब ज्ञान।" यह बहुप्रचलित सूक्ति पहले पहल मैंने शंकाराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के श्रीमुख से सुनी थी।

Ratibhan Tripathi
Published on: 11 Sept 2022 11:54 PM IST
Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati
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शंकाराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती

Swami Swaroopanand: "जाति न पूछिअ साधु की, जब पूछिअ तब ज्ञान।" यह बहुप्रचलित सूक्ति पहले पहल मैंने शंकाराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती (Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati) के श्रीमुख से सुनी थी, जब मैं बतौर पत्रकार उनका इंटरव्यू कर रहा था। यह अयोध्या आंदोलन (Ayodhya Movement) के कालखंड की बात है। स्वामी स्वरूपानंद (Shankaracharya Swami Swaroopanand Saraswati) यह कहते हुए अयोध्या के लिए रवाना हो गए थे कि वह श्रीराम मंदिर बनाने जा रहे हैं। संभवतः अक्टूबर 1993 का कालखंड था।

तब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार (Mulayam Singh Yadav government) थी। मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने स्वामी जी को गिरफ्तार करा लिया। उन्हें 15 दिनों तक चुनार के किले में नजरबंद रखा गया। स्वामी जी अपनी गिरफ्तारी से मर्माहत तो थे लेकिन जैसा साधु का स्वभाव होता है। वह इन सब बातों को भूल जाया करता है। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती भी भूल गए थे। उसी दौर में मोतीलाल वोरा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे।

त्रिपाठी ने बनाई धर्मज्ञान महोत्सव समिति

इलाहाबाद में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता उमाकांत त्रिपाठी स्वामी (Senior Congress leader Umakant Tripathi Swamy) के साथ सरकार द्वारा किए गए दुर्व्यवहार से दुखी थे। उन्होंने तय किया कि जिस मुख्यमंत्री ने उनको गिरफ्तार किया, वही उनका अभिनंदन भी करें। त्रिपाठी जी ने धर्मज्ञान महोत्सव समिति बनाई। उसका अध्यक्ष मोतीलाल वोरा को बनाया। समिति ने अनेक लोगों को जोड़ा 5 अप्रैल 1994 को कार्यक्रम की तारीख भी तय कर दी। त्रिपाठी जी मेरे लेखन से परिचित थे। उन दिनों मैं दैनिक जागरण का रिपोर्टर था। वह मेरे पास आए और पूरा वाकया बताते हुए स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती पर एक पुस्तक तैयार करने को कहा। मैं भी जुट गया प्राणपण से। समय कम था फिर भी कोशिश करके मैंने एक पुस्तक तैयार की। नाम दिया -"आचार्य शंकर की परंपरा और स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती"।

उमाकांत (Senior Congress leader Umakant Tripathi Swamy) गदगद थे कि यह एक अच्छा काम हो गया। निर्धारित तिथि पर पीडी टंडन पार्क में कार्यक्रम हुआ। राज्यपाल मोतीलाल वोरा (Governor Motilal Vora) और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (CM Mulayam Singh Yadav) एक ही हेलीकॉप्टर से उस कार्यक्रम में आए। दोनों नेताओं ने स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी का अभिनंदन किया। चूंकि स्वामी स्वरूपानंद स्वतंत्रता सेनानी थे और संन्यासी भी। इसलिए उस कार्यक्रम में सैकड़ों सेनानी और संन्यासी भी आमंत्रित किए गए थे। वहां सभी का सम्मान किया गया। मंच पर ही राज्यपाल मोतीलाल वोरा और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मेरी पुस्तक "आचार्य शंकर की परंपरा और स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती" का विमोचन किया।

पुस्तक की तैयारी से अनभिज्ञ थे स्वामी स्वरूपानंद

स्वामी स्वरूपानंद पुस्तक की तैयारी से अनभिज्ञ थे। मंच पर तो वह थे ही। मैंने उन्हें प्रणाम किया तो बोले बच्चा तुम्हें साधुवाद। तुम कल मनकामेश्वर मंदिर आकर मुझसे मिलना। दूसरे दिन सुबह जब मैं उनसे मिलने गया और उन्हें अपनी पुस्तक भेंट की तो उन्होंने उसे सरसरी तौर पर देखा। पुस्तक में मैंने शंकराचार्यों की पूरी परंपरा प्रस्तुत की है। शंकर मठाम्नाय महानुशासन का भी वर्णन है। चारों पीठों के उस समय तक के सभी शंकराचार्यों के नाम शामिल हैं। उसी कड़ी में जब ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम के शंकराचार्यों की सूची स्वामी स्वरूपानंद जी ने देखी और स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती का नाम पढ़ा तो उन्हें अच्छा नहीं लगा। बोले त्रिपाठी जी वासुदेवानंद शंकराचार्य नहीं हैं। मैं ही इस पीठ का भी शंकाराचार्य हूं तो मैंने कहा कि महराज जी, विराजमान तो स्वामी वासुदेवानंद जी हैं। वह चुप हो गए। दरअसल उस पीठ पर लंबे अरसे से मुकदमेबाजी है और स्वामी स्वरूपानंद स्वयं को उस पीठ पर अभिषिक्त मानते रहे हैं लेकिन भौतिक कब्जा स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती का ही रहा है।

परम दैदीप्यमान संत थे स्वामी स्वरूपानंद जी

बहरहाल, बात स्वामी स्वरूपानंद जी की हो रही है। कुछ विवादों को छोड़ दिया जाए तो सचमुच वह परम दैदीप्यमान संत थे। आध्यात्मिक महापुरुष थे। वेदों, पुराणों, उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रंथों का अनुशीलन उनका नित्य नैमित्तक विषय था। राष्ट्र की हर अहम समस्या पर उनके स्पष्ट विचार रहते थे। वह मन से आध्यात्मिक साधुता को तथा वचनों से राष्ट्र को आजीवन समर्पित रहे। राष्ट्र को लेकर उनके अपने विशिष्ट विचार थे इसलिए कुछ राजनीतिक संगठनों के लोग उन्हें कांग्रेसी शंकराचार्य कहा करते थे। यह अलग बात है कि कांग्रेस से जुड़े अनेक दिग्गज नेता उनके शिष्य रहे हैं।

एक बार मैं उनके पास मनकामेश्वर मंदिर में बैठा था। उन दिनों शंकर दयाल शर्मा भारत के राष्ट्रपति थे। स्वामी जी ने किसी काम से उन्हें फोन किया। उन्होंने राष्ट्रपति जी या कुछ और संबोधन के बजाय सीधे शंकर दयाल नाम लिया। मेरी उनकी मुलाकात प्रयागराज के माघ मेले में सदैव होती रही है। या जब कभी अपने किसी शिष्य के जरिए मुझे बुलाते, तब होती थी लेकिन इन सारी मुलाकातों में चर्चा में राष्ट्रनीति और धर्म ग्रंथ ही होते थे। इधर बीते कुंभ मेले के दौरान ही मैं उनसे मिला था। उनका वीडियो इंटरव्यू किया था।

आज जब उनके ब्रह्मलीन होने की सूचना मिली तो मन व्यथित हुआ। अब ऐसे व्यक्तित्व वाले संत कम ही रह गए हैं। उनका जैसा नाम वैसा ही स्वरूप भी था। दर्शन करने पर आनन्दानुभूति होती थी। भरकम काया के बावजूद 99 साल तक जीवन रहना उनके तप और तेजबल से ही संभव हो सका। मैं ऐसे आध्यात्मिक महापुरुष के श्रीचरणों में अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।



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Deepak Kumar

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