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Diwali 2024: मैं दीपक हूँ, जलना ही तो मेरा मुस्काना है

Diwali 2024: जब जीवन जड़ता के बिंदु पर पहुंच जाए तो जड़ता को हराने के लिए उत्सवधर्मिता आवश्यक होती है, खुशियों की आवश्यकता होती है। यह दिए जलाने का उत्सव घर में और घर के बाहर दीए जलाने तक ही नहीं बल्कि अपने मन को भी रोशन करने को कहना होता है।

Anshu Sarda Anvi
Published on: 27 Oct 2024 8:38 PM IST
Diwali 2024 ( Pic- Social- Media)
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Diwali 2024 ( Pic- Social- Media) 

Diwali 2024: हमारा सबसे महत्वपूर्ण उल्लासमय पर्व दीपावली यानी पांच-दिवसीय प्रकाश और रोशनी का त्योहार, साफ -सफाई का त्योहार , नए विचारों को स्वीकार करने का त्योहार, पारस्परिक एकजुटता का त्योहार, रिश्तों को निभाने का त्योहार। जब जीवन जड़ता के बिंदु पर पहुंच जाए तो जड़ता को हराने के लिए उत्सवधर्मिता आवश्यक होती है, खुशियों की आवश्यकता होती है। यह दिए जलाने का उत्सव घर में और घर के बाहर दीए जलाने तक ही नहीं बल्कि अपने मन को भी रोशन करने को कहना होता है। लक्ष्मी स्वभावत: चंचला होती हैं।वहीं टिकती है जहां उसका मान -सम्मान होता है, तो ऐसे में मन में अगर उलझने हों तो मन भी अशांत, व्यग्र और क्लांत बना रहता है और जब तक मन अशांत होता है, हमें न तो प्रकाश दिखता है और न ही हम नवज्योति की प्रतीक्षा कर पाते हैं। ऐसे में स्वभाव से चंचल लक्ष्मी कहां ठहर पाती है उस व्यग्र मन के पास.....


दीपावली क्या आती है मानो घर में एक तूफान के साथ-साथ , पीछे-पीछे रौनक भी आ जाती है। उफ़ कितना काम होता है। लगता है कि पूरे साल तो घर में इतनी साफ- सफाई की जाती है फिर कहां से इतना कचरा इकट्ठा हो जाता है जो कि अगर दीपावली की सफाई न हो तो यूं ही पड़ा रह जाए। दीपावली के बहाने सिर्फ सामान की ही झाड़ पोंछ नहीं होती बल्कि स्मृतियों पर से भी धूल झड़ जाती है। कहीं दराज से निकलते पुराने एल्बम, फोटो तो कहीं पुराने कपड़े भीतर तक बीता हुआ समय याद दिला जाते हैं। व्हाट्सएप ग्रुप में जब कोई एल्बम से निकाल कर फोटो पोस्ट की जाती है तो बाकी लोग अपने आप पूछ बैठते हैं कि दीपावली की सफाई शुरू कर दी क्या? अब दीपावली के बहाने याद आते हैं पकवान, मिठाइयां और पूरी -कचोरी जो कि पहले एक -दूसरे के घरों में भी भेजे जाते थे। बदलते समय में अब उनकी जगह गिफ्ट हैंपर्स, ड्राई फ्रूट्स हैंपर्स, दिया हैंपर्स आदि ने ले ली है। पहले कच्चे मकान हुआ करते थे, गोबर से लिपाई -पुताई उनकी दीवारों पर मांडना बनाना विशेष महत्व रखते थे। समय बदला दीवारें पक्की हुईं तो हर साल पुताई करने वालों का भी महत्व हो गया। फिर आ गये वाशेबल प्लास्टिक डिस्टेंपर पेंट्स , दीपावली आते ही टीवी पर उनके विज्ञापनों की भरमार हो जाया करती थी। एक बार कराओ, अगले दो-चार साल तक उन्हें साफ करके दीवारों को नए के जैसा बना लो।


अब लाल रंग के खातों, बहीखातों का प्रचलन कम हो गया है। उनकी जगह ले ली है कॉपी और रजिस्टर ने या फिर अब वह भी खत्म हो चुके हैं क्योंकि सब जगह पेपरलेस अकाउंट्स बनाए जाते हैं। प्रतीक के तौर पर उनकी पूजा करके परंपरा का निर्वहन मात्र करना होता है। पहले लोग नौकरी करने, धन कमाने एक शहर से दूसरे शहर को जाया करते थे।कोई दीपावली पर घर जा पाता तो कोई नहीं पर जो घर नहीं जा पाता वह जहां काम करता, वे हीं उसका परिवार हो जाते और उनके साथ ही वह दीपावली मना लेता। अब बच्चे भी बाहर पढ़ने लगे हैं , युवा भी अपने परिवार समेत नौकरी के लिए बाहर बस गए हैं पर दीपावली आते ही ट्रेनों के रिजर्वेशन, फ्लाइट की टिकटें सब बुक हो जाती हैं। क्योंकि घर जाने से ही तो दीपावली मनती है। अपने घर , अपने त्यौहार की याद सबको खींच लेती है। पहले अपने परिवारों के साथ-साथ समाज में भी अपने बुजुर्गों के पास दीपावली का आशीर्वाद लेने जाया जाता था, अब भी जाते हैं पर धीरे-धीरे वह पहले की बनस्पत सीमित होता चला जा रहा है। अब दीपावली के गेट- टूगेदर होते हैं।


पहले पटाखों को फोड़ना बढ़ा बढ़िया, रोमांचक और खतरों के खिलाड़ी बनने वाला खेल हुआ करता था पर अब उनको सिर्फ देखकर ही अच्छा लगता है और अधिकांशतः पटाखे अब बैन हो चले हैं। अब पूजा, पकवान, पहनावे, पटाखे, दीपकों की रोशनी करना, साज-सजावट, मांडने मांडना आदि सभी में कमोबेश बदलाव हो रहे हैं। कुछ नया जुड़ रहा है, कुछ पुराना छोड़ रहे हैं। उत्तर भारत में पहले रंगोली की जगह मांडने बनाए जाते थे, पांडू और गेरू या हिरमिच से पर अब उनकी जगह या साथ -साथ दक्षिण भारत की रंगोली बनाई जाती है। लगभग 15-17 साल पहले तक दीपावली पर भेजे जाने वाले शुभकामना संदेश के कार्ड्स के डिजाइन और अंदर का मैटर फाइनल किया जाता था।उसके अंदर सिर्फ घर के पुरुषों या बेटों के नाम ही हुआ करते थे कहीं-कहीं ही घर की महिलाओं के नाम भी होते थे। तब घर की महिलाओं का व्यवसाय -व्यापार से कोई लेन-देन नहीं हुआ करता था।‌ पर फिर भी उन कार्ड्स को देखकर खुश हुआ जाता था, स्व की जगह सर्व का भाव जो हुआ करता था उनमें । इन कार्ड की बदौलत लोग अपने रिश्तेदारों और जानने वालों के नाम और पते से परिचित होने के साथ ही उनके साथ अपने रिश्तों से भी परिचित हुआ करते थे। कभी -कभी तो हाथ से बनाए गए कार्डस आते भी थे ।


दीपावली के शुभकामना संदेश आज भी आते हैं, भेजे जाते हैं। पोस्टकार्ड संदेशों से शुरू हुआ संदेशों को भेजने का यह सिलसिला अब मुठ्ठी में है दुनिया यानी मोबाइल से भी जारी है। उसमें नाम होते हैं पर पते नहीं होते, उसमें अच्छे से अच्छे शुभकामना संदेश होते हैं पर कागज की खुशबू नहीं होती, उसको चाहे जितने लोगों को फारवर्ड करने की आजादी तो होती है पर कार्ड्स के जैसे गिन-गिन कर , संभाल कर भेजने का मोल नहीं होता, उसमें बहुत से प्रयोग तो अब संभव है पर वो लक्ष्मी जी-गणेश जी और दीपकों की आंख चुराती सुंदरता नहीं होती। वो कार्ड्स जिंदा रखे हुए थे कई सारी भावनाओं को, नाम के साथ -साथ पतों को, उन पतों को लिखने वाली डायरियों को, आए हुए कार्ड्स की गिनती को.... और भी बहुत कुछ सजीव सा।


घर की महिलाएं पता नहीं कब से दीपावली की तैयारी में लगी होतीं थीं, अब भी होती हैं पर उनमें कहीं पर भी स्वयं को दिखाने का भाव नहीं हुआ करता था, वह सर्व की भावना में ही रहती थीं। भले ही खुद कितनी ही थक जाती हों, अपने परिवार को, अपने बच्चों को संभालने में और साथ-साथ त्योहार की अनगिनत व्यस्तता में भी कभी भी उसकी शिकायत नहीं हुआ करती थी। वे दीपक के जैसे अपने पूरे जोश और जोर के साथ अपने काम को करने की यानी जलने की पूरी कोशिश करती थी और करतीं भी हैं और हमें तिमिर से उजास की ओर आगे बढ़ने की हिम्मत भी देतीं हैं।अब बदलते समय में समय परिवर्तन को स्वीकार तो करना ही होगा क्योंकि परंपराएं वे हीं जीवित रह पाती हैं जिनमें समय के अनुसार बदलाव होते हैं अन्यथा वे बोझिल हो जाती हैं, भारी हो जाती है। भावार्थ यही है कि खुशियां मनाई जाएं, उल्लास मनाया जाए। रंगोली नहीं बना पाए तो रंगोली के स्टीकर लगाएं जाएं पर देह भाषा सकारात्मक होनी चाहिए, मन उत्साहित और खुशियों से लबरेज होना चाहिए। तभी तो इन त्योहारों का अर्थ होगा जब हम खुश होते हैं तो हमारे शरीर का रसायन चक्र भी सकारात्मक होता है। यही जीवन की मिठास है। अंत में हरिवंशराय बच्चन की कविता --

आभारी हूँ तुमने आकर

मेरा ताप-भरा तन देखा,

आभारी हूँ तुमने आकर

मेरा आह-घिरा मन देखा,

करुणामय वह शब्द तुम्हारा--

’मुसकाओ’ था कितना प्यारा।

मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है|


है मुझको मालूम पुतलियों में

दीपों की लौ लहराती,

है मुझको मालूम कि अधरों

के ऊपर जगती है बाती,

उजियाला कर देने वाली

मुसकानों से भी परिचित हूँ,

पर मैंने तम की बाहों में

अपना साथी पहचाना है।

मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है|

( लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं।)



Shalini Rai

Shalini Rai

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