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जयंती पर विशेषः डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा मै कुचलने वाली मनोवृत्ति कुचल दूंगा
डा. मुखर्जी के प्रयासों से ही आधा पंजाब व आधा बंगाल भारत में रह सका। उन्होंने एक बार कहा था कांग्रेस ने देश का विभाजन किया है लेकिन मैं पाकिस्तान का विभाजन करने में सक्षम हुआ हूं ।
डॉ. समन्वय नंद
उस समय भारतीय राजनीति में जवाहरलाल नेहरू का युग था। संसद में किसी विषय पर चर्चा हो रही थी। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से कहा “ मैं जनसंघ को कुचल दूंगा”। इसके बाद जनसंघ के अध्यक्ष डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जवाहर लाल नेहरू को कालजयी जवाब दिया “ मैं कुचलने वाली इस मनोवृत्ति को कुचल दूंगा ”।
इसके बाद डा. श्य़ामा प्रसाद मुखर्जी को देश की सेवा करने के लिए अधिक समय नहीं मिला। भारत की अखंडता के लिए उन्होंने जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने की मांग को लेकर आंदोलन किया। शेख अबदुल्ला की जेल में उनकी रहस्यमय तरीके से मौत हो गई है। उनकी मौत के रहस्य पर से परदा अभी भी नहीं हटा है।
डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे राष्ट्रभक्त थे जिन्होंने देश की एकता व अखंडता के लिए स्वय़ं को बलिदान कर दिया था। उन्होंने भारत विभाजन का पुरजोर विरोध किया। जम्मू कश्मीर को शेष भारत से अलग करने की साजिश का उन्होंने न केवल विरोध किया बल्कि उसके लिए अपनी जान दे दी। वह उच्च कोटि के शिक्षाविद, संसदविद, राजनेता, मानवतावादी तथा प्रखर राष्ट्रभक्त थे।
व्यक्तित्व पर पिता की छाया
6 जुलाई 1901 को उन्होंने आशुतोष मुखर्जी के घर जन्म लिया। आशुतोष मुखर्जी कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति होने के कारण उनका काफी नाम था। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विद्वता, राष्ट्रीयता की भावना व निर्भयता उनके पिता से विरासत से प्राप्त हुई थी।
16 साल की आयु में मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कालेज में दाखिला लिया। इंटरमिडियेट की परीक्षा में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1921 में उन्होंने अंग्रेजी सम्मान में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।
डा. मुखर्जी भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक थे। उसलिए उन्होंने अंग्रेजी में एमए करने के बजाय बांला व एक भारतीय भाषा में एमए करने का निर्णय किया। भारतीय भाषा में एमए करने का निर्णय उनते पिता के उस नीति का अनुसरण करते हुए उन्होंने लिया जिससे भारतीय भाषाओं को विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा में उचित स्थान प्राप्त हो सकेगा व अंग्रेजी के प्रभुत्व को समाप्त किया जा सकेगा।
पहला भाषण गुरुदेव का
1934 में डा. श्यामाप्रसाद कोलकाता विश्वविद्यालय के सर्वकनिष्ठ कुलपति बने। भारतीय भाषाओं के प्रति उनकी भावना किस प्रकार थी उसका उदाहरण उनके कुलपति रहते हुए देखने को मिला था।
उनके कुलपति कार्यकाल में पहली बार रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने दीक्षांत समारोह में भाषण बांग्ला में दिया था और इसके साथ ही विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का प्रभुत्व समाप्त हो गया था।
जब भारत विभाजन की बात चली तो डा. मुखर्जी ने इसका विरोध किया। देश के विभाजन के प्रस्ताव के घोर विरोधी थे तथा इसके लिए उन्होंने काफी आंदोलन भी किया।
लेकिन जब कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा देश विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया उसके बाद उन्होंने पाकिस्तान को जाने वाली भारतीय भूभाग को कैसे अधिक से अधिक भारत में रखा जाए इसके लिए प्रयत्न किया।
पाकिस्तान के विभाजन में सक्षम
डा. मुखर्जी के प्रयासों से ही आधा पंजाब व आधा बंगाल भारत में रह सका। उन्होंने एक बार कहा था कांग्रेस ने देश का विभाजन किया है लेकिन मैं पाकिस्तान का विभाजन करने में सक्षम हुआ हूं ।
देश के विभाजन के बाद बनी राष्ट्रीय सरकार में शामिल होने के लिए उन्हें निमंत्रित किया गया। तब वह भारत के उद्योग मंत्री बने। उस समय के पूर्वी पाकिस्तान (आज के बांग्लादेश) में हिन्दुओं पर अकथनीय अत्याचार तब शुरू हो चुका था।
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हिन्दुओं की हत्या की जा रही थी, बहन बेटिय़ों के साथ दुष्कर्म किया जा रहा था। इस कारण हिन्दू शरणार्थी भारत में आ रहे थे। डा. मुखर्जी को इस बात ने व्यथित किया।
पाकिस्तान से मुआवजा चाहते थे
उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से कहा कि पाकिस्तान से भारत आने वाले हिन्दुओं के लिए उनके पाकिस्तान में रह गये जमीन के बदले उतने ही मात्रा मे जमीन मांगा जाना चाहिए । इसके साथ साथ शरणार्थियों के लिए पाकिस्तान से मुआवजा लिया जाए। लेकिन नेहरु ने उनकी बात को स्वीकार करने से इंकार कर किया। इस कारण डा. मुखर्जी की नेहरू से गहरे मतभेद होने लगे।
1950 में जब नेहरू – लियाकत समझौते को लेकर उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। उनके लिए भारत सरकार में मंत्री पद कुछ नहीं था, उनके लिए सिद्धांत ही सब कुछ था। वह सरकार से बाहर जाकर सरकार के तुष्टीकरण की नीतियों के खिलाफ अन्य लोगों को संगठित करने का प्रयास किया।
भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक
इसके बाद अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना की गई और वे इसके पहले अध्यक्ष बनें। भारतीय मूल्य, परंपरा, संस्कृति, आदर्श के वह प्रबल समर्थक थे । उनका मानना था कि केवल भौतिक संसाधनों से ही देश का विकास संभव नहीं है बल्कि देश के नागरिकों में चरित्र निर्माण, निष्ठा, आत्म सम्मान को वोध जागृत कर ही देश को सही मायनों में विकसित किया जा सकता है ।
कानपुर के जनसंघ के ऐतिहासिक अधिवेशन में उन्होने इस बात को रेखांकित करते हुए कहा कि “जो राष्ट्र इतिहास के उपलब्धियों से प्रेरणा लेने में असमर्थ होता है वह वर्तमान के निर्माण व भविष्य की योजना तैयार करने में भी असमर्थ रहता है। एक दुर्वल राष्ट्र कभी भी महान नहीं बन सकता । ”
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पंडित नेहरु की जम्मू कश्मीर को लेकर नीति ने उन्हें व्यथित किया । जम्मू कश्मीर को लेकर उन्होने आंदोलन किया और रहस्यमय तरीके से उनकी मौत हो गई है । आज धारा 370 हटा कर उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तो दी गई लेकिन उनके मौत के रहस्य पर अभी भी परदा है । उस रहस्य पर परदा उठाना अत्यंत आवश्यक है।