निदंक नियरे राखिए.....

इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश में अराजकता फैलाने और अदालत का अपमान करने की आजादी दे देनी चाहिए। हमारी अदालतों और नेताओं को कबीर के इस दोहे को हीरे के हार में जड़ाकर अपने गले में लटकाए रखना चाहिएः

suman
Published on: 30 Jan 2021 3:11 PM GMT
निदंक नियरे राखिए.....
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Ved Pratap Vaidik

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आज दो बादल छाए हुए लगते हैं। एक तो सरकारों का बनाया हुआ और दूसरा अदालत का! उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की पुलिस ने उन छह पत्रकारों के खिलाफ रपट लिख ली है, जिन पर देशद्रोह, सांप्रदायिकता, आपसी वैमनस्य और अशांति भड़काने के आरोप हैं। इन आरोपों का कारण क्या है ? कारण है, 26 जनवरी के दिन उनकी टिप्पणियाँ, टीवी के पर्दों पर या ट्विटर पर! इन पत्रकारों पर आरोप है कि इन्होंने दिल्ली पुलिस पर दोष मढ़ दिया कि उसने एक किसान की गोली मारकर हत्या कर दी जबकि वह ट्रेक्टर लुढ़कने के कारण मरा था।

किसान ट्रेक्टर लुढ़कने

लेकिन आरोप लगानेवाले यह क्यों भूल गए कि उन्हें जैसे ही मालूम पड़ा कि वह किसान ट्रेक्टर लुढ़कने की वजह से मरा है, पत्रकारों ने अपने बयान को सुधार लिया। इसी प्रकार उन पर यह आरोप लगाना उचित नहीं है कि उन्हीं के उक्त दुष्प्रचार के कारण भड़के हुए किसान लाल किले पर चढ़ गए और उन्होंने अपना झंडा वहाँ फहरा दिया। पत्रकारों की टिप्पणियों के पहले ही किसान लाल किले पर पहुँच चुके थे। ज़रा यह भी सोचिए कि इतना बड़ा दुस्साहसपूर्ण षड़यंत्र क्या इतने आनन-फानन रचा जा सकता है ? जिन पत्रकारों के विरुद्ध पुलिस ने रपट लिखवाई है, उन्हें देशद्रोही या विघटनकारी आदि कहना तो एक फूहड़ मज़ाक है।

प्रतिष्ठित और प्रामाणिक

उनमें से कई तो अत्यंत प्रतिष्ठित और प्रामाणिक हैं, हमारे नेताओं से भी कहीं ज्यादा। इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय का उसके फैसलों से कुछ असहमत होनेवाले और कुछ व्यंग्यकारों से नाराज़ होना भी मुझे ठीक नहीं लगता। हमारे न्यायाधीशों की बुद्धिमत्ता और निष्पक्षता विलक्षण और अत्यंत आदरणीय है लेकिन उनके फैसले एकदम सही हों, यह जरुरी नहीं हैं। यदि ऐसा ही होता तो ऊँची अदालतें अपनी नीची अदालतों के कई फैसलों को रद्द क्यों करती हैं और सर्वोच्च न्यायालय अपने ही फैसलों पर पुनर्विचार क्यों करता है ? कई फैसलों को देखकर मुझे खुद लगता रहा है कि हमारे जज अंग्रेज का बनाया मूल कानून तो बहुत अच्छा जानते हैं लेकिन भारत में न्याय क्या होता है, यह गांव का एक बेपढ़ा-लिखा सरपंच ज्यादा अच्छा बता देता है।

सरकार और जनता

इसके अलावा हमारे न्यायाधीशों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनके हर फैसले को सरकार और जनता सदा सिर झुकाकर स्वीकार करती है। वह अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूज़वेल्ट (1933-45) की तरह अपनी सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं कहती कि यह आपका फैसला है, अब आप ही इसे लागू करें। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश में अराजकता फैलाने और अदालत का अपमान करने की आजादी दे देनी चाहिए। हमारी अदालतों और नेताओं को कबीर के इस दोहे को हीरे के हार में जड़ाकर अपने गले में लटकाए रखना चाहिएः

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय।

बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

suman

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