TRENDING TAGS :
फ्रांस को पछाड़कर अर्थव्यवस्था की ऊंचाई पर भारत
प्रमोद भार्गव
यह भारतवासियों के लिए खुशी की बात है कि फ्रांस को पछाड़कर भारत दुनिया की छठवीं आर्थिक ताकत बन गया है। इसके पहले हम सातवें स्थान पर थे। अब हमसे आगे अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और ब्रिटेन ही हैं। अब भारत का लगातार आगे बढऩा तय है। इसी आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले साल भारत ब्रिटेन को पछाड़ देगा। विश्व अर्थव्यव्स्था में किस देश की क्या हैसियत है, इसका आकलन देश के सकल घरेलू उत्पादन यानी जीडीपी के आधार पर किया जाता है। यह आकलन 2017 के आंकड़ों पर निर्भर है। हालांकि अर्थव्यवस्था को जिन पैमानों से नापा जाता है। उसमें आंकड़ेबाजी के गुणा-भाग का भी अपना खेल होता है, जिसे आम आदमी को समझ पाना कठिन होता है। दरअसल यही वैश्विक रेटिंग एजेंसियां विश्व-बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और संयुक्त राष्ट्र संघ, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, खुशहाली, भ्रष्टाचार, कुपोषण और भुखमरी के परिप्रेक्ष्य में हमारे देश की बदहाली बताती है तो हमें शर्मसार होना पड़ता है। दुनिया की तुलना में हम कहां खड़े हैं, इस हकीकत से रूबरू होने पर पता चलता है कि आर्थिक विसंगतियों की खाई देश में बहुत चौड़ी होती जा रही है।
भारत के लिए यह उपलब्धि इसलिए अहम है क्योंकि उसने एक विकसित देश को पछाड़ा है। बावजूद इसके भारत अभी विकसित देशों की सूची में शामिल नहीं हो पाया है। साफ है इसकी पृष्ठभूमि में वे आर्थिक असमानताएं है, जो भुखमरी और कुपोषण का कारण बनी हुई हैं। इसीलिए यही रेटिंग एजेंसियां भारत की आर्थिक चिंता भी जताती रही हैं। धर्मनिरपेक्ष देश होने के बावजूद देश को असहिष्णु घोषित करने में भी इन देशों ने संकोच नहीं किया है।
एजेंसियों के सर्वेक्षण की तस्वीर अकसर एक पक्षीय होती है। क्योंकि समृद्घि नापने के उनके जो पैमाने होते हैं, वे पूंजीवाद को बढ़ावा देने वाले होते हैं। यदि प्रतिव्यक्ति की आमदनी के हिसाब से सर्वे का आकलन किया जाए तो भारत अभी भी फ्रांस से बहुत पीछे है। भारत की आबादी इस समय 1.34 अरब है। जबकि इसकी तुलना में फ्रांस की आबादी महज 6.7 करोड़ है। यदि जीडीपी का प्रति व्यक्ति के हिसाब से आकलन किया जाए तो फ्रांस में प्रतिव्यक्ति आमदनी भारत से 20 गुना ज्यादा है। सर्वे में उम्मीद जताई गए है कि अगले साल भारत ब्रिटेन को भी पछाड़ सकता है। यह संभव हो भी जाता है तो भारत समग्र रूप में खुशहाल या विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आ पाएगा।
गौरतलब है कि फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की कुल आबादी भारत की कुल आबादी के पांचवें हिस्से से भी कम है। इन तीनों देशों में प्रति व्यक्ति आय सालाना साढ़े 42 हजार डॉलर से साढ़े 46 हजार डॉलर के बीच बैठती है। इनकी तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति की आय 1,964 प्रति डॉलर है। आमदनी का यह अंतर जाहिर करता है कि हम जीवन को खुशहाल बनाने के संसाधन उपलब्ध कराने में इन देशों से बहुत पीछे हैं।
प्रति व्यक्ति आमदनी नापने का पैमाना भी उचित नहीं है। दरअसल आमदनी सकल लोगों की आय के आधार पर नापी जाती है। बतौर उदाहरण, मुंबई के जिस वार्ड में मुकेश अंबानी रहते हैं, उस वार्ड के सभी कामगार लोगों की आमदनी जोडक़र उसमें उस वार्ड की आबादी का भाग लगा दिया जाता है। मसलन अंबानी की कागजी स्तर पर तो आय सब लोगों के बीच बंट जाएगी, लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है। हाल ही में अर्थव्यवस्था की वृद्घि से जुड़े क्षेत्रीय योगदान के आंकड़े भी उजागर हुए है।
जीडीपी में सरकारी लोक सेवकों की आय भी जोड़ी जाती है, जबकि यह उत्पादक वर्ग नहीं है। पिछली तिमाही के मुकाबले इस तिमाही में जीडीपी में लोकसेवकों की आय 7 प्रतिशत बढ़ी है। इसका आशय यह हुआ कि सरकारी कर्मचारियों की वेतनवृद्घियां जब तक बढ़ाते रहेंगे तब तक सकल घरेलू उत्पाद दर बढ़ती रहेगी। लोकसेवकों ने वित्त वर्ष 2017-18 में तीसरी तिमाही में जीडीपी का कुल 17.3 फीसदी का योगदान दिया था, जो चौथी तिमाही में बढक़र 22.4 फीसदी हो गया है। यह जीडीपी के क्षेत्र में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले विनिर्माण क्षेत्र से थोड़ा ही कम है। लेकिन यहां सोचनीय पहलू यह है कि लोकसेवकों का यह योगदान महज सातवां वेतनमान बढ़ा देने से हुआ है, उत्पादकता से इस योगदान का कोई वास्ता नहीं है।
लिहाजा जीडीपी में इस तरह के आंकड़े एक छलावा भर हैं। भारत मेें गैर-बराबरी की तस्वीर अंतरराष्ट्रीय संगठन ऑक्सफेम ने साल 2017 में पेश की थी। इसमें पूंजीपतियों को हुई कमाई के आंकड़े प्रस्तुत हैं। इस सर्वे के अनुसार 2017 में होने वाली आमदनी का 73 प्रतिशत धन देश के महज एक प्रतिशत ऐसे लोगों की तिजोरियों में केंद्रित होता चला गया है, जो पहले से ही पूंजीपति हैं। इस साल अमीरों की आय में बढ़ोतरी 20.9 लाख करोड़ रुपए दर्ज की गई, जो देश के सालाना बजट के लगभग बराबर है। इस असमानता के चलते 2016 में देश में अरबपतियों की संख्या 84 से बढक़र 101 हो गई। मिसाल के तौर पर यदि हमारे वस्त्र उद्योग में कार्यरत एक ग्रामीण मजदूर को इसी उद्योग के शीर्ष अधिकारी के बराबर वेतन पाने का उद्यम करना है तो उसे 941 साल लगेंगे। इसीलिए ‘रिवार्ड वर्क नॉट वेल्थ’ नामक इस रिपोर्ट में सुझाया गया है कि भारत के मुख्य कार्यपालन अधिकारियों (सीईओ) के वेतन में यदि 60 फीसदी की कमी लाई जाए तो यह खाई कुछ कम हो सकती है। लेकिन देश में जिस तरह से जन-प्रतिनिधियों, सरकारी अधिकारियों और न्यायाधीशों के वेतन बढ़ाए गए हैं, उससे नहीं लगता कि सरकार वेतन घटाने की पहल करेगी।
इन समस्याओं से छुटकारे के लिए नरेंद्र मोदी ने इन्हीं उदारवादी नीतियों के परिप्रेक्ष्य में ही डिजिटल माध्यमों से रोजगार के उपाय खोजे। अपेक्षा की गई थी कि युवा रोजगार पाने की बजाय रोजगार देने की मानसिकता विकसित करेंगे। इन योजनाओं के चलते यदि महज एक फीसदी आबादी को ही सक्षम उद्यमी बना दिया जाता तो देश की अर्थव्यवस्था के कायापलट हो जाने की उम्मीद थी, लेकिन इनके कारगर परिणाम सामने नहीं आए। इसके उलट इंडिया एक्सक्लूजन-2017 की जो रिपोर्ट आई, उसमें पहली मर्तबा ऐसे लोगों का जिक्र किया गया, जो डिजिटल माध्यम से दी जा रही सुविधाओं के कारण वंचित होते चले गए। जबकि मोदी सरकार ने इस माध्यम को इसलिए अपनाया था, जिससे सभी नागरिकों तक सुविधाएं बिना किसी भेदभाव के पहुंचाई जा सकें। लेकिन इन्हें लागू करने की कमियों ने देश में डिजिटल विषमता का भी इतिहास रच दिया।
इस ऑनलाइन विषमता का दंश करोड़ों दिहाड़ी मजदूर, दलित, आदिवासी, महिलाओं, वरिष्ठ नागरिकों, अल्पसंख्यक और उन किन्नरों को भुगतना पड़ रहा है, जो इंटरनेट कंप्यूटर और एंड्रायड मोबाइल खरीदने और उन्हें चलाने से अनभिज्ञ हैं। इन तथ्यों से पता चलता है कि इंडिया तो अमीर बन रहा है, लेकिन भारत के लोग गरीब व वंचित ही हैं। पिछले साल जो वैश्विक भूख-सूचकांक की रिपोर्ट आई थी उसमें भी 139 देशोंं की सूची में हमारा स्थान सौंवा था।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)