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खत्म होती चुनावी पूर्वानुमानों की विश्वसनीयता

raghvendra
Published on: 1 Nov 2019 12:24 PM GMT
खत्म होती चुनावी पूर्वानुमानों की विश्वसनीयता
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प्रमोद भार्गव

महाराष्ट्र व हरियाणा के विधानसभा चुनाव परिणामों से जुड़े जनमत सर्वेक्षण गलत साबित हुए हैं। जमीनी सच्चाई से दूर इन अनुमानों में दावा किया गया था कि दोनों राज्यों में राजग, यानी भाजपा गठबंधन को भारी जीत मिलने जा रही है। इससे पता चलता है कि अधिकांश सर्वे टेबल पर बैठकर किए गए हैं। वैसे भी पिछले 22 चुनावों के एग्जिट पोल बमुश्किल 60 प्रतिशत ही सही साबित हुए हैं।

फिलहाल हमारे देश में चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण एक नया विषय है। यह ‘सेफोलॉजी’ मसलन जनमत सर्वेक्षण विज्ञान के अंतर्गत आता है। भारत के गिने-चुने विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम के तहत सेफोलॉजी को पढ़ाने की शुरुआत हुई है। जाहिर है, विषय और इसके विशेषज्ञ अभी अपरिपक्व अवस्था में हैं। परिपक्व चुनाव विश्लेषक के रूप में अब तक योगेन्द्र यादव को माना जाता रहा है। इस नजरिए से उनका सम्मान और विष्वसनीयता भी जनता में बरकरार रही थी। लेकिन बाद में वे आम आदमी पार्टी की सदस्यता लेकर प्रत्यक्ष राजनीति के पैरोकार बन गए थे, इसलिए चुनाव पूर्व आने वाले उनके जनमत सर्वेक्षण भी भरोसे के नहीं रह गए हैं।

सर्वेक्षणों पर शक की सुई इसलिए भी जा ठहरती है कि पिछले कुछ सालों में निर्वाचन-पूर्व सर्वेक्षणों की बाढ़ सी आई हुई है। इनमें तमाम कंपनियां ऐसी हैं, जो धन लेकर सर्वे करती हैं। गोया, छोटे पर्दे पर नतीजे इकतरफा नहीं आने के क्रम में कांग्रेस प्रवक्ता सुष्मिता देव ने एजेंसियों के सर्वेक्षण पर तंज कसते हुए कहा भी कि इन्हें अभी और सीखने की जरूरत है, जिससे परिणाम परिपक्व दिखें। चूंकि अनुमान सटीक नहीं बैठे, इसलिए एजेंसियों को दलों और मतदाताओं से विनम्रता के साथ माफी भी मांगनी चाहिए। बेवाकी के लिए मशहूर दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि ‘धन देकर पार्टियां अपने अनुकूल सर्वे करा लेती हैं।’ इसे नकारने की बजाए गंभीरता से लेने की जरुरत है। दिग्विजय सिंह की यह बात भरोसा करने वाली है कि सर्वे संस्थान धन लेकर जनमत सर्वेक्षण करने में लगे हैं। वैसे भी किसी भी प्रदेश के करोड़ों मतदाताओं की मंशा का आकलन महज कुछ हजार मतदाताओं की राय लेकर सटीक नहीं किया जा सकता है। कभी-कभी ये अटकलें खरी उतर जाती हैं। इसलिए चुनाव सर्वेक्षणों के प्रसारण व प्रकाशन पर रोक लगनी चाहिए।

ओपिनियन पोल मतदाता को गुमराह कर निष्पक्ष चुनाव में बाधा बन रहे हैं। इसीलिए पूर्व महाधिवक्ता गुलाम ई. वाहनवती ने केंद्र सरकार को निर्वाचन पूर्व सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की सलाह दी थी। वैसे भी ये सर्वेक्षण वैज्ञानिक नहीं हैं, क्योंकि इनमें पारदर्शिता की कमी है और ये किसी नियम से बंधे नहीं हैं। साथ ही ये सर्वे कंपनियों को धन देकर कराए जा सकते हैं। बावजूद इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने ढोया जा रहा है। जबकि ये पेड न्यूज की तर्ज पर ‘पेड ओपोनियन पोल’ में बदल गए हैं। इसीलिए इनके परिणाम भरोसे के तकाजे पर खरे नहीं उतरते। सर्वे कराने वाली एजेंसियां भी स्वायत्त होने के साथ जवाबदेही के बंधन से मुक्त हैं। गोया, इन पर भरोसा किस बिना पर किया जाए ?

दरअसल चुनाव आयोग ने 21 अक्टूबर 2013 को सभी राजनीतिक दलों को एक पत्र लिखकर, चुनाव सर्वेक्षणों पर राय मांगी थी। दलों ने जो जवाब दिए, उसमें मत भिन्नता पाई गई। वैसे भी बहुदलीय लोकतंत्र में एकमत की उम्मीद बेमानी है। जाहिर है, कांग्रेस ने सर्वेक्षण निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले बताए थे। बसपा ने भी असहमति जताई थी। माकपा की राय थी कि निर्वाचन अधिसूचना जारी होने के बाद सर्वेक्षणों के प्रसारण और प्रकाश पर प्रतिबंध जरूरी है। तृणमूल कांग्रेस ने आयोग के फैसले का सम्मान करने की बात कही थी। जबकि भाजपा ने इन सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाना संविधान के विरुद्ध माना था। उस समय ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षण भाजपा के पक्ष में आ रहे थे। उसने तथ्य दिया था कि सर्वेक्षणों में दर्ज मतदाता या व्यक्ति की राय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार क्षेत्र का ही मसला है। तय है, दलों के अलग-अलग रुझान भ्रम और गुमराह की मनस्थिति पैदा करने वाले थे, इसलिए आयोग भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रह गया।

जो राजनैतिक दलों और सर्वेक्षण कंपनियों के पैरोकार इन सर्वेक्षणों को अभिवयक्ति की स्वतंत्रता के बहाने जारी रखने की बात कह रहे हैं, उन्हें सोचने की जरूरत है कि संविधान में दर्ज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी के मौलिक अधिकारों के प्रावधानों का दुरुपयोग भी हुआ है। हर एक चुनाव में पेेड न्यूज के जरिए दलों और उम्मीदवारों का विद्युत व मुद्रित मीडिया ने कितना आर्थिक दोहन किया यह सक्रिय राजनीति और पत्रकारिता से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है। दरअसल संविधान की मूल भावना, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की ओट में ही मीडिया का उम्मीद से ज्यादा व्यवसायीकरण हुआ है। मीडिया में मीडिया से इतर व्यवसाय वाली कंपनियों ने बड़ी पूंजी लगाकर प्रवेश किया और देखते-देखते मीडिया के अनेक निष्पक्ष स्वायत्त घरानों, मंचों, पत्रकार समितियों व संस्थानों पर कब्जा कर लिया। नतीजतन मीडिया पर स्वामित्व मुट्ठी भर लोगों का हो गया। इसी का परिणाम है कि भूमाफिया, खनिज माफिया, शराब माफिया और चिटफंड कंपनियों का भारतीय मीडिया पर एकाधिकार हो गया। शारदा चिटफंड समूह जैसे प्रकरणों के सामने आने से साफ हुआ है कि सम्मानजनक पद पर आसीन लोग पद की गरिमा गिराकर कालाबाजारी में लिप्त हैं। लॉबिस्ट नीरा राडिया का गठबंधन भी ऐसी ही बानगी है। जाहिर है, पेड न्यूज के सिलसिले में तो मीडिया पहले ही अपना विष्वास खो चुका है और अब पेड ओपीनियन पोल खालिस मुनाफाखोरी की दिशा में आगे बढ़ रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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