Emergency in India: इसी तरह से दस्तक देता है आपातकाल

Emergency in India: असहमति को दबाने की जल्दबाज़ी में राज्य के दिमाग़ में विरोध प्रकट करने के प्राप्त अधिकार और आतंकी गतिविधियों के बीच की रेखा धुंधली होने लगती है।

Shravan Garg
Written By Shravan GargPublished By Vidushi Mishra
Published on: 25 Jun 2021 9:57 AM GMT
The Supreme Court and some of the High Courts of the country have delivered important decisions
X

आपातकाल(फोटो-सोशल मीडिया)

Emergency in India: सुप्रीम कोर्ट और देश के कुछ उच्च न्यायालयों ने नागरिक अधिकारों और उनके संरक्षण की लड़ाई में जुटे कार्यकर्ताओं, सरकारों के द्वारा क़ानून की विभिन्न धाराओं के तहत उनकी गिरफ्तारियों आदि को लेकर पिछले कुछ महीनों के दौरान महत्वपूर्ण फैसले सुनाये हैं। इन फैसलों को लेकर काफी प्रतिक्रियाएं भी हुईं हैं।

हाल ही के एक निर्णय में दिल्ली दंगों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए तीन युवा एक्टिविस्ट्स की जमानत अर्जियां मंजूर करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस आशय की टिपण्णी भी की कि :'असहमति को दबाने की जल्दबाज़ी में राज्य के दिमाग़ में विरोध प्रकट करने के प्राप्त अधिकार और आतंकी गतिविधियों के बीच की रेखा धुंधली होने लगती है। अगर ऐसी मानसिकता जोर पकड़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे दुखद होगा ।'

नागरिक अधिकारों की लड़ाई के प्रति अदालतों के नज़रिए

एक उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी और जमानत के फैसले पर प्रतिरोध करने की आज़ादी और उसकी राजनीति का समर्थन करने वाले लोगों का प्रसन्नता जाहिर करना स्वाभाविक था। गेंद अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में पहुँच गई है।

यू ए पी ए (अनलॉफुल एक्टिविटीज[प्रिवेंशन] एक्ट) के प्रावधानों की दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या के प्रति सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने अभी अपनी सहमति नहीं दिखाई है। सुप्रीम कोर्ट उस पर विचार करने के बाद अगर उसे ख़ारिज कर देती है तो क्या नागरिक अधिकारों की लड़ाई के प्रति अदालतों के नज़रिए को लेकर हमारी प्रतिक्रिया भी बदल जायेगी या पूर्ववत कायम रहेगी ?

राजद्रोह सम्बन्धी कानून के तहत पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में कायम हुए प्रकरण के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी के बाद भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामियों ने इसी प्रकार से अपनी ख़ुशी व्यक्त की थी, पर छोटी-छोटी जगहों पर काम करने वाले पत्रकारों के खिलाफ कायम किए गए इसी प्रकार के प्रकरणों में राहत मिलना या पुलिस की ओर से ऐसी कार्रवाइयों का बंद होना अभी बाकी है।

हम इस सवाल पर गौर करने से बचना चाह रहे हैं कि न्याय पाने के लिए जिन सीढ़ियों को अंतिम विकल्प होना चाहिए उन्हें प्रथम और एकमात्र विकल्प के रूप में इस्तेमाल करने की मजबूरी क्यों बढ़ती जा रही है ?

ज्यूडीशियल एक्टिविज़्म

दूसरी ओर, हाल के महीनों में कुछ ऐसा भी हुआ है कि विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा मानवाधिकारों के सम्बन्ध में दिए गए फैसलों या नागरिक हितों को लेकर सरकारों से की गई पूछताछ को गैर-ज़रूरी बताते हुए सत्ता पक्ष की ओर से उसे देश में सामानांतर सरकारें चलाने या 'ज्यूडीशियल एक्टिविज़्म' जैसे फतवों से नवाजा गया है।

वे तमाम लोग, जो न्यायपालिका की सक्रियता पर प्रसन्नता जाहिर कर रहे हैं ,और वे भी जो उसमें सामानांतर सत्ताओं के केंद्र ढूंढ रहे हैं, इस सवाल पर कोई बहस नहीं करना चाहते हैं कि देश में ऐसी स्थिति उत्पन्न ही क्यों हो रही है? नागरिक-हितों के संरक्षण की दिशा में न्यायिक सक्रियता का एक कारण यह हो सकता है कि प्रजातंत्र के अन्य तीन स्तंभों—विधायिका या व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और मीडिया –की ओर से पीड़ितों को किसी भी तरह का न्याय प्राप्त करने की उम्मीद या तो समाप्त हो चुकी है या होती जा रही है।

हुकूमतें भी इस बात को समझती हों तो आश्चर्य नहीं। न्यायाधीशों की नियुक्तियां, उनके तबादले, कॉलेजियम की अनुशंषाओं को ख़ारिज कर देना अथवा उन पर त्वरित निर्णय न लेना, उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों का बढ़ते जाना इस बात के संकेत हैं कि सरकारें न्यायपालिका की सीढ़ियों के अंतिम विकल्प को भी जनता की पहुँच से दूर करने का इरादा रखतीं हैं।

न्यायपालिका को लेकर सरकार की अपनी अलग तरह की चिंता तो हमेशा क़ायम रहने वाली है, पर नागरिकों के केवल सोच में भी इस बात को जगह मिलना अभी बाकी है कि प्रजातंत्र की हिफाजत के लिए विधायिका और कार्यपालिका को हर कीमत पर उनकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह कराते रहना अब अत्यंत ज़रूरी हो गया है।

न्यायपालिका न तो विधायिका और कार्यपालिका का स्थान ले सकती है और न ही नागरिक प्रतिरोधों का संरक्षण स्थल ही बन सकती है। इस फर्क को रेखांकित किया जा सकता है कि किसान तो अपने हितों को प्रभावित करने वाले कानूनों के खिलाफ सड़कों पर शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहे हैं जबकि कार्यपालिका बजाय उनसे उनकी मांगों पर बातचीत करने के संकट की समाप्ति के लिए न्यायपालिका का मुँह ताक रही है।

न्यायपालिका अगर किसानों के लिए अपना आन्दोलन ख़त्म करके घरों की ओर रवाना होने के निर्देश जारी कर दे और किसान उस आदेश को चुनौती दिए बगैर मानने से सविनय इंकार कर दें तो कार्यपालिका के लिए किस तरह की स्थितियां बन जाएंगी ?

विधायिका और कार्यपालिका यानी सरकार का जन-भावनाओं के प्रति उदासीन हो जाना या उनसे मुंह फेरे रहना हकीकत में सम्पूर्ण राजनीतिक विपक्ष और संवेदनशील नागरिकों के लिए सबसे बड़ी प्रजातांत्रिक चुनौती होना चाहिए। उन्हें दुःख मनाना चाहिए कि जो फैसले कार्यपालिका को लेने चाहिए वे अदालतें ले रहीं हैं।

जो न्यायपालिका आज सरकार से ऑक्सीजन की आपूर्ति या टीकों का ही हिसाब मांग रही है वही अगर किसी दिन उससे देश में प्रजातंत्र की स्टेटस रिपोर्ट मांग लेगी तो सरकार उसके ब्यौरे कैसे और कहाँ से जुटाकर पेश करेगी?

अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में प्रजातंत्र की स्थिति अथवा अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर जारी किये जाने वाले ब्यौरों को देश के खिलाफ षडयंत्र बताकर ख़ारिज करते रहना तो सरकार के लिए हमेशा ही एक आसान काम बना रहेगा।

हम शायद महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं की बैठकें अब उस तरह से नहीं हो रही हैं जैसे पहले कभी विपक्षी हो-हल्ले और शोर-शराबों के बीच हुआ करतीं थीं और अगली सुबह अखबारों की सुर्खियों में भी दिखाई पड़ जाती थीं।

हम महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि हमें प्रजातंत्र के कुछ महत्वपूर्ण स्तम्भों की सक्रियता के बिना भी देश का सारा कामकाज निपटाते रहने या निपटते रहने की आदत पड़ती जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि कोई भी कार्यपालिका से यह सवाल नहीं करना चाहता है कि जब भरे कोरोना काल में विधानसभा चुनावों के दौरान भीड़ भरी जन-सभाएं और लाखों लोगों का कुम्भ स्नान हो सकता है तो फिर संसद और विधानसभाओं की बैठकें क्यों नहीं हो सकतीं ?

अदालतों की सीढ़ियों के ज़रिए सरकार और बहुसंख्य नागरिक दोनों ही अपने लिए शार्ट कट्स तलाश रहे हैं। करोड़ों की आबादी में गिनती के लोग ही कार्यपालिका को उसकी उपस्थिति और दायित्वों का अहसास कराते रहते हैं और वही लोग अपने ख़िलाफ़ होने जाने वाली ज़्यादतियों को लेकर न्यायपालिका से न्याय की उम्मीदें भी करते रहते हैं।

उनकी उम्मीदें कभी-कभार पूरी हो जाती है और कभी-कभी नहीं हो पातीं। जब विपक्ष और आम नागरिक अपेक्षित दायित्वों के प्रति विधायिका और कार्यपालिका की उदासीनता को स्वीकार करने लगते हैं, प्रजातंत्र की जगह आपातकाल और अधिनायकवाद देश में दस्तक देने लगता है।

Vidushi Mishra

Vidushi Mishra

Next Story