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रोजगार की चुनौतियों के बीच देश के युवा, आर्थिक सर्वे ने दिखाई वास्तविक तस्वीर

raghvendra
Published on: 29 Dec 2017 5:00 PM IST
रोजगार की चुनौतियों के बीच देश के युवा, आर्थिक सर्वे ने दिखाई वास्तविक तस्वीर
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प्रमोद भार्गव

युवाओं द्वारा स्वप्न देखना स्वाभाविक लक्षण है। लेकिन प्रचार के जरिए देश में माहौल कुछ ऐसा बना दिया गया है कि सरकारी अथवा निजी क्षेत्र में नौकरी करना ही जीवन की सफलता है। जो भी आर्थिक सर्वे आ रहे हैं, उनके अनुसार नई नौकरियों का सृजन सरकारी क्षेत्र के साथ निजी क्षेत्र में भी बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। जबकि बड़ी संख्या में शिक्षित युवा नौकरियों की तलाश में हैं। ऐसी विकट स्थिति में युवाओं ने नौकरी पाने के स्वप्र से स्वालंबन के अन्य उपाय नहीं तलाशे तो उनके लिए आर्थिक स्वालंबन चुनौती ही है। यदि युवा दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ रोजगार मांगने की बजाय रोजगार देने की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो यह राह आरंभ में थोड़ी कठिन जरूर लगे, लेकिन मंजिल तय है।

वैसे भी वर्तमान नीतिगत उपायों और कृत्रिम बौद्घिकता को संरक्षण देने के कारण यह आशंका प्रबल है कि जिस अनुपात में बेरोजगारी है, उस तुलना में नए रोजगारों का सृजन केंद्र या राज्य सरकारों के वश की बात नहीं रह गई है। ऐसे में आर्थिक उदारवाद के लागू होने के बाद से औद्योगिक घरानों के हित साधन के लिए पारंपारिक रोजगारों पर जिस तरह से कुठाराघात किया गया है, उससे भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का भयावह संकट पैदा हुआ है। इस लिहाज से एक बार फिर यह जरूरत अनुभव हो रही है कि युवा पारंपारिक उद्योगों के महत्व को रेखांकित करें।

भारत का आर्थिक विकास सिंधु घाटी की सभ्यता से प्रारंभ माना जाता है। भारत 17वीं सदी तक विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था था। रोजगार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। मुख्य रूप से रोजगार कृषि, पशुुधन और अन्य पेशागत तरीकों से मिलते थे। रोजगार के लिए सामाजिक सरंचना थी, जिसके आधार पर वस्तुओं का उत्पादन होता था। यह कार्यसंस्कृति स्थानीय संसाधनों से गतिशील होती थी। कृषि के साथ-साथ व्यापारिक संघ भी थे, जो देश - विदेश में भी उत्पादित माल निर्यात करने का रास्ता बताते थे। इन देशज उपायों के बूते भारत 18वीं शताब्दी तक वैश्विक उत्पादन में अग्रणी रहा। वस्त्र उद्योग में ढाका की मलमल, बनारस की सिल्क और चंदेरी की साडिय़ां दुनियाभर में मशहूर थीं। आभूषण, धातु, मिट्टी के बर्तन, चीनी, तेल और इत्र उत्पादन में लगे उद्योग खूब फल-फूल रहे थे। इनके बूते 18वीं सदी तक विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत थी। लेकिन भारत पर ब्रिटिश हुकूमत का कब्जा होने के बाद नीतिगत और दमनकारी उपायों के मार्फत लघु और कुटीर उद्योगों को खत्म करने का सिलसिला शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने जब भाारतीय उद्योग धंधों को चौपट कर दिया तो लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए। फलस्वरूप भारत औद्योगिक राष्ट्र से गरीब व लाचार राष्ट्र बन गया।

रोजगार मुहैया कराने के लिए सरकारों की ओर से दावे तो बहुत किए जाते हैं, लेकिन रोजगार फिर भी दूर की कौड़ी ही साबित हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र का आंकलन है कि 2018 में भी नए रोजगार सृजन की संभावनाएं न्यूनतम है। नोटबंदी और जीएसटी की मार से अर्थव्यवस्था में मंदी है। संगठित और असंगठित क्षेत्रों में जो रोजगार थे, वे भी धीरे-धीरे खत्म हो रहे है। ऐसे में कृत्रिम बुद्घिमता मसलन रोबोट भी युवा भारत के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर रहा है। कृत्रिम बुद्घि से तात्पर्य है, वह बुद्घि जो मानव मस्तिष्क की तरह काम करे। निर्माण कंपनियों में तो रोबोट सामान उठा-धरी का काम कर ही रहे हैं, अब चालकविहीन कारें भी आने वाली हैं। एक अनुमान के मुताबिक अमेरिका में चालकविहीन कारों के कारण न केवल चालक बल्कि अन्य कई प्रकार के रोजगारों में 10 फीसदी की कमी आने की आशंका है। हालांकि रोजगार को लेकर उठी आवाज के कारण फिलहाल सरकार ने यह दावा किया है कि ये कारें सडक़ों पर नहीं उतारी जाएगीं।

रोबोट शल्यक्रिया में भी कमाल दिखाने पर उतारू हैं। इसे रोबोटिक सर्जरी कहा जा रहा है। इस शल्यक्रिया को चिकित्सक कंप्यूटर के जरिए कहीं भी बैठकर अंजाम तक पहुंचा सकते है। वल्र्ड इकोनोमिक फोरम की रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 2016 तक रोबोट पचास लाख लोगों के हाथ से रोजगार छिन चुके हैं। यह कृत्रिम बौद्घिकता देश की निर्माण कंपनियों को मशीनीकरण की तरफ मोड़ रही है। इंटेल इंडिया ने भारत के चालीस वैज्ञानिकों को आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण में लगा रखा है। ये शैक्षणिक संस्थानों, स्वास्थ्य, रक्षा-तकनीक, मौसम, वित्त और बैंकिग सहित पचास अन्य संस्थानों में रोबोट से काम लेने की तैयारी में लगे है। इन क्षेत्रों में यदि कालांतर में कृत्रिम बुद्घि से परिपूर्ण रोबोट उतरते हैं तो रोजगार का संकट और गहराएगा।

भारत में 65 प्रतिशत युवा आबादी होने का दावा किया जाता है। इस हिसाब से करीब 81 करोड़ लोग युवा हैं। इतने लोग युवा भले ही हों, लेकिन बेरोजगार नहीं हैं। दरअसल भारत में जो 15 से 29 आयुवर्ग के युवा हैं, उनमें से 30.28 प्रतिशत के पास रोजगार नहीं है। बेरोजगारी के इस बोझ से छुटकारा पाने के लिए युवाओं की मानसिकता और व्यापारिक वातावरण विकसित करने की जरूरत है। यदि यह उद्यमिता विकसित होती है तो युवा सरकारी दफ्तरों और निजी कंपनियों के द्वार पर खड़े दिखाई नहीं देंगे। इस हेतु पारंपरिक लघु एवं कुटीर उद्योगों को रोजगारमूलक बनाना होगा।

वर्तमान में भूमंडलीकरण के चलते दुनिया को वैश्विक ग्राम में बदलने की चुनौती के चलते प्रतिस्पर्धा बढ़ी है। इस हेतु युवा उद्यमियों को व्यापारिक सुगमता के लिए भी कौशल विकास के जरिए सार्थक प्रयास करने होंगे। इन उद्यमियों का वैश्विक व्यापार के धरातल पर भी हस्तक्षेप के लिए रास्ते सरल बनाने होंगे। बढ़ती प्रतिस्पर्धा और निरंतर बदलती तकनीक के कारण नए बदलावों को भी समझने की जरूरत है। इस मकसदपूर्ति के लिए ‘एक्टिव लर्निंग’ यानी ‘सक्रिय सीख’ को भी बढ़ावा देना होगा।

भारत में कभी भी रोजगार की इतनी विकट समस्या नहीं रही, जो आज देखने में आ रही है। सूचना प्रौद्योगिकी और अध्यापन के क्षेत्र में लगे रोजगार कम हो रहे हैं। जिस तरह से आईटी कंपनियों में छंटनी हो रही है और इंजीनियरिंग एवं एमबीए कॉलेजों के बंद होने की खबरें आ रही हैं, उससे साफ है कि युवाओं को कंफर्ट जोन से बाहर निकलना होगा। कठिन व जोखिम भरे क्षेत्रों में रोजगार तलाशने होंगे। 2017 में रोजगार के संकट भरे क्षेत्रों में 18 फीसदी युवाओं ने रोजगार हासिल किए हैं। फिक्की की एक रिपोर्ट के अनुसार कठिनतम क्षेत्रों को अब युवा एक चुनौती के रूप में ले रहे हैं। इसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं। उम्मीद की जा रही है कि यदि युवा इस क्षेत्र में दखल बनाए रखते हैं तो आने वाले समय में युवाओं को सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरी की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। यदि वाकई युवा स्वरोजगार की ओर बढ़ते है तो 2025 में यह जो आशंका जताई जा रही है कि इस दौरान देश में दस करोड़ नए युवा रोजगार की कतार में खड़े होंगे, वह स्थिति निर्मित ही नहीं होगी।

(लेखक, वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं)



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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