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कृषि की बुनियादी समस्याओं से दूर हैं तीनों नए कृषि कानून!

तीनों अध्यादेश को संसद से पारित कर कानून तो बनाया जा चुका है लेकिन सुप्रीम कोर्ट, किसान संगठन और सरकार के बीच में फंसे तमाम मसलों ने इसे अभी लागू होने नहीं दिया है।

Vikrant Nirmala Singh
Written By Vikrant Nirmala SinghPublished By Ashiki
Published on: 21 Jun 2021 11:45 AM GMT
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कांसेप्ट इमेज (फोटो- सोशल मीडिया )

पिछले वर्ष जून महीने में सरकार ने अध्यादेश के जरिए तीन कृषि कानून लाए थे जो अभी भी विवाद का विषय बने हुए हैं। इन तीनों अध्यादेश को संसद से पारित कर कानून तो बनाया जा चुका है लेकिन सुप्रीम कोर्ट, किसान संगठन और सरकार के बीच में फंसे तमाम मसलों ने इसे अभी लागू होने नहीं दिया है।

सरकार और किसान संगठनों के बीच मतभेद ने इस पूरे प्रकरण को ऐसे मोड़ पर छोड़ दिया है, जहां सरकार झुकने को तैयार नहीं है और किसान संगठन आंदोलन वापस लेने को तैयार नहीं हैं। इस टकराव के बीच वर्तमान कृषि आंदोलन की सबसे बड़ी जीत यह है कि इस एक घटना ने कृषि से जुड़े तमाम पहलुओं को केंद्रीय विमर्श का मुद्दा बना दिया है। चाहे कृषि मंडियों में सुधार का मुद्दा हो या फिर एमएसपी को कानूनी रूप देने का मामला हो। एक लंबे अरसे से मुख्यधारा मीडिया से गायब रहे किसानों ने अपनी एक बड़ी जगह बना ली है। समय के साथ जैसे-जैसे यह आंदोलन बढ़ता गया, ठीक वैसे ही किसानों ने तीनों कानूनों में खामियों को और जरूरी कृषि सुधारों को देश के बड़े तबके तक पहुंचाने में सफलता हासिल कर ली है।

कृषि कानूनों के संदर्भ में चल रहे विवाद के बीच पहला तथ्य तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि किसान कृषि सुधारों के खिलाफ नहीं है। वह लंबे अरसे से चाहते हैं कि कृषि क्षेत्र में जरूरी नीतिगत सुधार किए जाएं। इसलिए उनको कृषि सुधारों के खिलाफ ना देखते हुए वर्तमान कानूनों में व्याप्त कमियों के खिलाफ देखा जाना चाहिए। इसी से जुड़े दूसरे तथ्य को भी समझना होगा कि कृषि क्षेत्र में लंबे समय से एक बड़ी त्रासदी चल रही है। सड़कों पर दिख रहा किसानों का यह गुस्सा एक लंबे समय से सरकारी उपेक्षा की देन है। यह विषय कांग्रेस बनाम भाजपा या किसी भी राजनीतिक दल के रूप में नहीं है ब्लकि पिछले कई दशकों से देश के किसान परेशान थे और नए कानूनों ने उनके गुस्से को सड़क पर ला दिया है।

किसानों की वीभत्स स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाना चाहिए कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 1995 से लेकर वर्तमान समय के बीच तकरीबन 3.50 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। वर्ष 2014 से 2018 के बीच में कुल 57,345 किसानों ने आत्महत्या की थी। यानी कि प्रतिवर्ष 11,469 किसान और प्रतिदिन 31 किसानों ने आत्महत्या की थी। इतनी बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या यह बताती है कि कृषि संकट एक लंबे समय से चल रही समस्या है जिसका समाधान सरकारों ने कभी ईमानदारी से करने का प्रयास नहीं किया है। समितियां बनती रहीं और उनकी रिपोर्ट आती रही लेकिन किसानों की आत्महत्या वर्ष दर वर्ष बढ़ती ही रही है।

कृषि समस्याओं के अध्ययन से पता चलता है कि पूरे कृषि संकट की बुनियाद में तीन प्रमुख कारण है। अगर इन तीन समस्याओं पर कार्य कर दिया जाए तो कृषि संकट को बड़े स्तर पर सुधारा जा सकता है।

1. पहली समस्या फसलों के विक्रय मूल्य के इर्द-गिर्द घूमती है। आज भी किसानों को उनकी फसलों का सही दाम नहीं मिलता है। सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी से नीचे उनकी फसलों की खरीदारी की जाती है, जिसकी वजह से किसान हमेशा घाटे में रहते हैं (शांता कुमार समिति के अनुसार महज 6 फ़ीसदी किसानों को ही एमएसपी मिलती है) और फसलों के मूल्य निर्धारण में सही फार्मूले का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। हाल ही में सरकार ने फसलों पर एमएसपी बढ़ाने का निर्णय लिया है लेकिन किसान बढ़े हुए एमएसपी से खुश नहीं हैं। इसकी ठोस वजह यह है कि एमएसपी निर्धारण का वर्तमान फार्मूला पूर्ण नही है।

किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की मांग करते हैं। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुसार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य का डेढ़ गुना दिया जाना चाहिए और सरकारें दावा भी करती रही हैं कि वह यह कार्य रहीं हैं। लेकिन किसान इस दावे पर हमेशा से ही सवाल उठाते रहे हैं। किसानों का कहना है कि स्वामीनाथन आयोग के अनुसार, फसलों के दाम सीटू यानी कॉम्प्रीहेंशन कॉस्ट प्रणाली के अनुसार तय होने चाहिए। सीटू प्रणाली के अनुसार इनपुट लागत, फैमिली लेबर, जमीन का रेंट और पूंजी पर ब्याज शामिल करने के बाद फसलों की कीमत तय की जाती है। किसानों का कहना है कि वर्तमान केंद्र सरकार ए टू प्लस फैमिली लेबर जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य तैयार करती है, जो कि किसानों के साथ धोखाधड़ी है। आपको यह जानकारी रहे कि एमएसपी का आकलन करने वाली 'कृषि लागत और मूल्य आयोग' खेती के लागत को तीन हिस्सों में बांटती है‌। पहला ए2, दूसरा ए2+एफएल और तीसरा सी2।

2. दूसरी समस्या किसानों के ऊपर भारी कर्ज चुकाने की है। यह समस्या किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण है। इस समस्या का बड़ा कारण पहली वाली समस्या में है। सही दाम न मिलने की वजह से किसानों को नुकसान होता है और वह खेती करने के लिए कर्ज लेने पर मजबूर होते हैं। लेकिन निकट भविष्य में भी कृषि उनके लाभ का जरिया नहीं बन पाती है और वह एक बड़े कर्ज के बोझ में दब जाते हैं।OCEID-ICRIER की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 से लेकर वर्ष 2017 के बीच सही दाम न मिलनेे की वजह से किसानों को 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था।

राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच साल में कृषि कर्ज 61 फीसदी बढ़ कर 11.79 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। वर्ष 2013-14 में कुल कृषि कर्ज 7.30 लाख करोड़ रुपये था। आज किसानों की आधी आबादी भारी कर्ज में दबी हुई है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 10.07 करोड़ किसानों में से 52.5 प्रतिशत किसान भारी कर्जे में दबे हुए हैं। हर कर्जदार किसान पर करीब 1.046 लाख रुपये का औसत कर्ज है। किसानों की मांग कर्ज माफी की हमेशा से रही है। लेकिन जब भी किसानों के कर्ज माफी की बात की जाती है तो क्रेडिट कल्चर के नाम पर आलोचना की जाती है। जबकि कारपोरेट कर्ज माफी पर ऐसे किसी क्रेडिट कल्चर की बात नहीं की जाती है। किसान से कर्ज वसूली की प्रक्रिया भी भयावह है। कॉरपोरेट क्षेत्र की तुलना में किसान अगर कर्ज नही चुका पाता है तो उसके लिए कर्ज रिकवरी के नियम बहुत सख़्त बनाए गए हैं। स्थिति इतनी नाजुक है कि कर्ज न चुकाने की स्थिति में किसानों के ऊपर क्रिमिनल चार्ज लगा दिए जाते हैं।

3. तीसरी समस्या कृषि क्षेत्र में आधारभूत संरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) के अभाव का है। सरकारों के उदासीन रवैये का ही परिणाम है कि आधी आबादी को आजीविका के अवसर उपलब्ध कराने वाला क्षेत्र जरूरी बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित है। सिंचाई व्यवस्था का हाल इस तथ्य से समझिए कि आजादी के 75 वर्ष होने को हैं और आज भी देश की 60 फ़ीसदी कृषि बारिश पर निर्भर करती है। सच तो यह है कि सरकारों ने कभी हर खेत तक पानी पहुंचाने के लक्ष्य पर ईमानदारी से कार्य ही नही किया है। इसलिए आज भी सूखे की स्थिति में देश के किसानों को पीड़ा से गुजरना पड़ता है।

फसलों के भंडारण के लिए सरकार कभी जरूरी संरचना तैयार ही नहीं कर सकी। आज भी खेतों से 20-20 किलोमीटर दूर गोदाम बने हुए हैं, जहां छोटे और मझोले किसान अनाज को पहुंचाने में असमर्थ होते हैं। अनाज की खरीद बिक्री के लिए मंडी इनके खेतों से दूर शहरों में बनाईं गई है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि देश में 42000 मंडियों की जरूरत है और वर्तमान में महज़ 7000 मंडियां मौजूद है।

अब तीनों ही कृषि कानून उपरोक्त समस्याओं के समाधान की बात नहीं करते हैं बल्कि एक समानांतर निजी बाजार जरूर बनाने की वकालत करते दिखते हैं। सवाल यही है कि किसानों की बुनियादी समस्याओं को सुलझाएं बिना समानांतर निजी बाजार बनाकर किसी समस्या का हल कैसे किया जा सकता है? वैश्विक स्तर पर भी कोई एक उदाहरण मौजूद नहीं है जहां निजी क्षेत्र ने कृषि संकट को दूर कर दिया हो। भारत में बिहार एक सबक के रुप में मौजूद है। हमारे नीति-निर्माताओं को चाहिए कि किसानों की बुनियादी समस्याओं को पहले ठीक किया जाए और तब किसी नए और बाजार आधारित सुधार की वकालत की जाए। इन्हें यह समझना जरूरी है कि किसान आईसीयू में है और आप बुखार की दवा से समस्या को ठीक करना चाहते हैं।

लेखक - विक्रांत निर्मला सिंह

संस्थापक एवं अध्यक्ष- फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल।

Ashiki

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