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इस आंदोलन का 'महात्मा गांधी' कौन है ?
छह महीने के राशन-पानी और चलित चोके-चक्की की तैयारी के साथ राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पहुँचे किसान अपने धैर्य की पहली सरकारी परीक्षा में ही असफल हो गए हैं ,क्या ऐसा मान लिया जाए ?
श्रवण गर्ग
दो महीने से चल रहे किसान आंदोलन को अब कहाँ के लिए किस रूट पर आगे चलना चाहिए ? छह महीने के राशन-पानी और चलित चोके-चक्की की तैयारी के साथ राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पहुँचे किसान अपने धैर्य की पहली सरकारी परीक्षा में ही असफल हो गए हैं ,क्या ऐसा मान लिया जाए ? लगभग टूटे हुए मनोबल और अनसोची हिंसा के अपराध-भाव से ग्रसित किसानों के पैर क्या अब एक फ़रवरी को संसद की तरफ़ उत्साह के साथ बढ़ पाएँगे ? या बढ़ने दिए जाएँगे ?
किसान अपने धैर्य की पहली सरकारी परीक्षा में असफल
जैसी कि आशंका थी, चीजें दिल्ली की फेरी लगाकर वापस सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पहुँच गई हैं।सरकार के लिए ऐसा होना ज़रूरी भी हो गया था।दोनों पक्षों के बीच बातचीत की तारीख़ अब अदालत की तारीख़ों में बदल सकती है।तो आगे क्या होने वाला है ? सरकार ऊपरी तौर पर सफल होती हुई ‘दिख’ रही है।पर यह ‘दृष्टि-भ्रम’ भी हो सकता है।किसान असफल होते ‘नज़र’ आ रहे हैं। यह भी एक ‘तात्कालिक भ्रांति’ हो सकती है।असली हालात दोनों ही स्थितियों के बीच कहीं ठहरे हुए हैं।
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किसान अपना आंदोलन बिना किसी नतीजे के ख़त्म नहीं करने वाले
सरकारें हमेशा ही जनता से ज़्यादा चतुर, आत्मनिर्भर और दूरदृष्टि वाली होती हैं।इसलिए वर्तमान स्थिति में सरकार यही मानकर चल रही होगी कि केवल एक रणनीतिक चूक के चलते ही किसान अपना आंदोलन बिना किसी नतीजे के ख़त्म नहीं करने वाले हैं।नतीजा भी किसानों को स्वीकार होना चाहिए।सरकार के ‘स्वीकार्य’ का किसानों को पता है।छब्बीस जनवरी के बाद फ़र्क़ केवल इतना हुआ है कि समस्या के निराकरण की तारीख़ आगे खिसक गई है।’गणतंत्र दिवस’ की घटना के काले सायों ने ‘स्वतंत्रता दिवस’ के पहरों को ज़्यादा ताकतवर बना दिया है।
जांच किसानों की मौत पर नहीं 86 पुलिसकर्मियों के घायल बैठाई जाएगी
किसान जानते हैं कि जाँचें अब उनके सत्तर साथियों की मौतों को लेकर नहीं बल्कि 86 पुलिसकर्मियों के घायल होने को लेकर ही बैठाईं जाने वाली हैं।और,अगर किसी ने बताया हो तो, यह भी कि किसानों को अपने आगे के संघर्ष के साथियों और सारथियों का उसी तरह से चयन करना पड़ेगा जैसा प्रयोग महात्मा गांधी ने कोई सौ साल पहले किया था।
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गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ में भिड़ चुके पुलिसकर्मी-प्रदर्शनकारी
पाँच फ़रवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौरी चोरा नामक स्थान पर गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों के एक बड़े समूह से पुलिसकर्मियों की भिड़ंत हो गई थी।जवाबी कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी थी जिसके कारण बाईस पुलिसकर्मी और तीन नागरिक मारे गए थे।हिंसा की इस घटना से व्यथित होकर गांधी जी ने अपने ‘असहयोग आंदोलन’ को रोक दिया था।पर उन्होंने अपनी माँगों को लेकर किए जा रहे संघर्ष पर विराम नहीं लगाया; उसमें बड़ा संशोधन कर दिया।
नमक का कानून तोड़ा तो समूची अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गई
गांधी ने अपनी रणनीति पर विचार पुनर्विचार किया।’नमक सत्याग्रह’ (1930) के सिलसिले में उन्होंने अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम से चौबीस दिनों के लिए 378 किलो मीटर दूर दांडी तक यात्रा निकाली तो उसमें सिर्फ़ अस्सी अहिंसक सत्याग्रही थे। एक-एक व्यक्ति का चयन गांधी ने स्वयं किया और उसमें समूचे भारत का प्रतिनिधित्व था।ज़्यादातर सत्याग्रहियों की उम्र सोलह से पच्चीस वर्ष के बीच थी।इसीलिए जब गांधी ने दांडी पहुँचकर नमक का कानून तोड़ा तो समूची अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गई।
किसान आंदोलनकारियों का ‘गांधी’ कौन
किसान आंदोलन को तय करना होगा कि उसकी अगली ‘यात्रा’ में कितने और कौन लोग मार्च करने वाले हैं ! उनका नेतृत्व और उन्हें चुनने का काम कौन करने वाला है ? गांधी चाहते तो उनके दांडी मार्च में केवल अस्सी के बजाय अस्सी हज़ार लोग भी हो सकते थे।पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।सबसे बड़ा सवाल अब यह है कि आंदोलनकारियों के बीच ऐसा ‘गांधी’ कौन है जिसका कि कहा सभी किसान मानने वाले हैं ? क्या कोई दिखाई पड़ रहा है ?
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