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सियासत की आग में जल रहा कश्मीर, देश को युद्ध की तरफ ले जाने की होड़
मदन मोहन शुक्ला
पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर हुआ हमला राष्ट्र की चेतना और उसके स्वाभिमान पर करारा आघात था, लेकिन इस घटना के बाद जो माहौल बनाया गया उससे सवाल उठता है कि क्या देश को प्रतिक्रियावादी बनाया जा रहा है? टीवी चैनलों के एंकर युद्ध का एलान करने में नहीं चूकते। राजनीतिक सत्ता चुनौती व धमकी के शब्दों का इस्तेमाल करने से नहीं चूक रही। राजनीतिक दल कोशिश में हैं कि इसे किस तरह कैश कराया जाए क्योंकि दो महीने बाद ही लोकसभा के चुनाव होने हैं। सत्ता के सामने चुनौती है कि पाकिस्तान को कैसे सबक सिखाया जाए। इसकी शुरुआत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर हवाई हमले के साथ हो भी चुकी है। हां, एक बात और, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने कहा था कि पुलवामा में सुरक्षा में चूक हुई। अगर सूचना पहले से थी तो खुफिया तंत्र इस हमले को रोकने में नाकाम रहा। इसके लिए जो दोषी हैं उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है, यह देश को जानने का पूरा हक है। इस पर मीडिया चुप्पी साधे हुए है। इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा रहा।
बहरहाल, याद आता है 1971 का साल जब इन्दिरा गांधी ने थल सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशॉ से कहा था कि पाक पर हमला करो। मानकेशॅा ने साफ जवाब दिया था कि तैयारी नहीं है। इन्दिरा गांधी ने पूछा, कितना समय लगेगा। मानेक शॉ ने कहा कि छह महीने। मानकेशॅा ने युद्ध का समय जाड़े का चुना। इस युद्ध का अंजाम हुआ पाकिस्तान के दो टुकड़े। उस समय इस तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखी जो आज दिख रही है कि नेस्तनाबूद कर देंगे वगैरह वगैरह। भारतीय सेना की स्थिति क्या है? संसदीय समिति या रक्षा से संबंधित अन्य समितियों की क्या रिपोर्ट है? एक संसंदीय समिति की रिपोर्ट में बताया गया था कि 65 फीसदी रक्षा उपकरण पुराने और बेकार हैं। फिर भी आज होड़ लगी है देश को युद्ध की तरफ ले जाने की। अफगानिस्तान और इराक से अमेरिकी फौजें वापस हो रही हैं। सीरिया में आईएस का पतन लगभग हो चुका है। सीरिया में दुनिया भर के भाड़े के सैनिक लड़ाई रहे थे। अब वे सब खाली हो चुके हैं। इसका भारत में अवश्य असर होगा। जिहादियों का मनोबल इससे बढ़ेगा। ऐसे तत्व खासतौर से भटके कश्मीरियों को प्रोत्साहित कर सकते हैं कि हम सोवियत यूनियन और सुपर पावर अमेरिका तक को झुका सकते हैं तो भारत को क्यों नहीं। अगर ऐसा होता है तो यह बहुत ही खराब स्थिति होगी। इसको कैसे काउन्टर करना है, यह नीतिकारों को सोचना होगा।
सवाल उठता है कि क्या कश्मीर समस्या का अंत संभव है? सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि घाटी के अशान्त होने का मुख्य कारण बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा, विकास, आर्थिक असमानता और क्षेत्रीय असंतुलन नहीं है। कश्मीर में लड़ाई उस विषाक्त मानसिकता से है जिसमें घाटी के तमाम बाशिन्दे उस्मत बनाम काफिर-कुफ्र के भयानक मकडज़ाल में उलझे हए हंै। कश्मीर के शाह फैसल 2009 के आईएएस टॉपर रहे हैं। पिछले साल इस्तीफा देकर वह राजनीति में आ गए। एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा, कश्मीर जल रहा है। आखिर वहां का युवा आतंकवाद की तरफ क्यों बढ़ रहा है? इनके कारणों को खोजने की कभी कोशिश नहीं की गई। केन्द्र में बैठी सरकार हल केवल मिलिट्री स्ट्राइक में देखती है जबकि समस्या राजनीतिक है। स्थानीय, प्रदेशीय और केन्द्र स्तर पर राजनीतिक हितों ने स्थिति को और जटिल बनाया व बाहरी ताकतों को घुसपैठ करने का मौका दिया। बात सही लगती है। आज जरूरत है राजनीतिक सौहार्द पैदा करने की, लोकतंत्र बहाली की और भटके युवकों को मुख्य धारा में लाने की। जम्मू-कश्मीर के लोगों के अधिकारों की बहाली तथा हजारों कश्मीरी पंडितों के घर वापसी की।
पुलवामा हमले के बाद सबसे गंभीर बात यह है कि देश की न तो कोई कश्मीर नीति दिख रही और न ही पाकिस्तान संबंधी नीति। ऐसी कोई नीति शायद इसलिए भी नही बन पाई कि क्योंकि सरकारें आती-जाती रहीं और वे अपने हिसाब से कश्मीर व पाकिस्तान संबंधी नीति में फेरबदल करती रहीं। यह स्थिति इसलिए भी बनी क्योंकि राजनीतिक दलों के लिए देश के दीर्घकालिक हित पहली प्राथमिकता नहीं बन सके। कायदे से कश्मीर को शांत करने और पाकिस्तान में पनप रहे खतरे का सामना करने की कोई ठोस नीति तभी बन जानी चाहिए थी जब 1989 में उसने वहां दखल देना शुरू किया था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। हम इस भ्रम में रहे कि पाकिस्तान को हम अन्तराष्ट्रीय मंच पर अकेला करने में सफल हो गये, लेकिन यह हमारा भ्रम ही रहा। पाकिस्तान का खेल बदस्तूर जारी रहा। हम दुनिया से उम्मीद करते रहे कि पाकिस्तान को आतंकी देश घोषित कर दिया जाए जबकि हम खुद उसे आतंकी देश घोषित न कर सके।
जब हम कश्मीर पर पाकिस्तान से वार्ता करते हैं तो आम कश्मीरी के मन में यह सवाल जीवित हो जाता है कि अभी समस्याएं मौजूद हैं और कश्मीर का भविष्य और उनकी राष्ट्रीयता अनिर्णित है। कश्मीर का विलय भारत में हो चुका है और यह हमारा अटूट अंश है तो पाकिस्तान से वार्ता आखिर किस लिए? इन वार्ताओं की वजह से अलगाववादी सोच यह उम्मीद करने लगती है कि कश्मीर की आजादी संभव है। नियत्रण रेखा को अंतराष्ट्रीय सीमा मानने की नेहरू कालीन नीति का 1972 में इंन्दिरा गांधी और भुट्टो के शिमला समझौते के दौरान भी अलिखित तौर से स्वीकार्य किया गया था। एक विजयी देश पराजित देश की तरह व्यवहार कर रहा था।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान में वास्तव में कई पाकिस्तान हैं। वहां की सरकार, सेना, आईएसआई और आतंकवादियों के तमाम संगठनों के अलावा एक पाकिस्तान वहां की जनता का भी है जो भारत के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखती है। इसीलिए हमें पाकिस्तान की नापाक हरकतों का प्रतिउत्तर देने के लिए इसका बहुत ध्यान रखना होगा कि पाकिस्तान की अमन पसंद जनता का सकारात्मक दृष्टिकोण न खोए। अब देखना है कि सरकार राजनयिक, सैनिक, आतंकी, वैश्विक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य पहलुओं पर भविष्य मेें किस तरह की तात्कालिक, अल्पकालिक, दीर्घकालिक रणनीति अपनाती है जिससे पाकिस्तान की रोज-रोज की किच-किच से हमें निजात मिल सके और हम विकास एवं राष्ट्र निर्माण के काम में शांति से लग सके।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)