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जंगलों की कटाई से सूखे इलाकों में बंजर होती जमीन!
प्रदीप श्रीवास्तव
जमीन के लगातार दोहन और जंगलों की कटाई से जमीन का उपजाऊ हिस्सा खत्म हो रहा है और मरुस्थलीकरण तेज होता जा रहा है। विगत कुछ दशकों में दो घटनाएं बहुत आम हो गई हैं। पहली, बर्फ का पिघलना और दूसरी, रेगिस्तान का विस्तार। दोनों ही परिघटनाएं एक दूसरे से जुड़ी हैं और यह हमारी पृथ्वी को बहुत तेेजी से बदल रही है। प्रकृति में बदलाव बहुत जरूरी है, लेकिन मनुष्य द्वारा किए जाने वाले बदलाव का खामियाजा मनुष्य को ही भुगतना पड़ता है। बात करते हैं मरूस्थल की। साधारण भाषा में कहें तो मरुस्थलीकरण का मतलब उपजाऊ जमीन का रेगिस्तान बन जाना है। मरुस्थलीकरण अक्सर प्राकृतिक होता है लेकिन प्राकृतिक मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है। यह कई शताब्दियों में घटित होती है, जिससे वहां के फूल पौधों, पशु पक्षिओं और क्षेत्र की प्रत्येक बड़ी - छोटी चीज तक को अपने में बदलाव करने का मौका मिल जाए और प्राकृतिक संतुलन बना रहे। पूर्व में जब भी भयानक प्राकृतिक बदलाव हुए हैं, हमेशा जीवित चीजों को बदलाव का भरपूर मौका मिला है। लेकिन, अब जो बदलाव हो रहे हैं वह विनाशक हैं।
विगत कुछ दशकों से मरुस्थलीयकरण को मानवीय गतिविधियों से जोड़ा जाने लगा है। इसकी सबसे बड़ी वजह है जल का असामान्य दोहन। जब लोग सूखे इलाकों में पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन करते हैं, तो पेड़-पौधे खत्म हो जाते हैं और जमीन बंजर हो जाती है। यह घटना भारत समेत दुनिया के 70 प्रतिशत शुष्क इलाकों में देखी जा सकती है। पानी का अत्यधिक दोहन क्षेत्र की प्राकृतिक बनावट को तेजी से बदलता है। यह बदलाव बहुत से सूक्ष्म जीव समझ ही नहीं पाते और तेजी से विलुप्त होने लगते हैं, जिसका असर क्षेत्र की प्राकृतिक विविधता पर पड़ता है। प्राकृतिक विविधता की एक कड़ी भी टूटती है तो उस क्षेत्र का मरुस्थलीकरण और तेज होने लगता है। वैसे मरुस्थल अपने आप में कोई खराब नहीं है, यह भी प्राकृतिक विविधता का एक हिस्सा है लेकिन, हरियाली और मरुस्थल की तुलना में मरुस्थल एक मृत जगह है।
मानवीय वजहों से हर साल करीब 70,000 वर्ग किलोमीटर का नया रेगिस्तान बन जाता है। यह आयरलैंड के क्षेत्रफल के बराबर है। अफ्रीका की 40 प्रतिशत जनसंख्या रेगिस्तानी खतरे वाले इलाके में रहती है, जहां पर जिंदगी बहुत ही कठिन है। एशिया और दक्षिण अमेरिका में यह संख्या 39 और 30 प्रतिशत है। अब तीव्र जल दोहन होने और प्राकृतिक बदलाव के कारण जर्मनी, अमेरिका और स्पेन आदि देश भी खतरे में आ गए हैं। जनसंख्या वृद्धि मरुस्थलीकरण में बढ़ोतरी का एक बड़ा कारण है। चीन अपनी धरती का इस्तेमाल अब ज्यादा से ज्यादा लोगों को भोजन देने के लिए कर रहा है। बड़ी तादाद में मवेशी पूरे चारागाह को साफ कर देते हैं। यह मिट्टी फिर पक्की हो जाती है और हवा और बारिश से बंजर हो जाती है। इससे हर साल करीब 2,500 वर्ग किलोमीटर रेगिस्तान बन जाता है।
मरुस्थलीकरण में पानी और उपजाऊ भूमि जैसे जरूरी संसाधनों के बिना लोगों को जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। यहां तक कि उन्हें अपना घर छोडक़र दूसरी जगह जाना पड़ता है। जर्मन संस्था जीआईजेड का अनुमान है कि मरुस्थलीकरण से अफ्रीका में 48.5 करोड़ लोग प्रभावित हैं। यूएन का अनुमान है कि मरुस्थलीकरण के कारण वर्ष 2020 तक अफ्रीका के 6 करोड़ लोगों को अपने इलाके छोडक़र अन्यत्र जाना पड़ेगा। कई देश मरुस्थलों से लड़ाई लड़ रहे हैं। दशकों से चीन इस परिस्थिति के खिलाफ लड़ रहा है। 1978 में शुरू हुआ ग्रेट ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट इसका एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। वर्ष 2050 तक यह जर्मनी के बराबर के इलाके में फैल जाएगा। यूएन सभी देशों का ध्यान इस समस्या की ओर दिलाना चाहता है।
खतरे में बुंदेलखंड
बुंदेलखंड प्राकृतिक संपदा का धनी इलाका है। यहां का भौगोलिक स्वरूप समतल, पठारी व वनों से आच्छादित है। पानी की बात करें तो यहां प्राकृतिक जल स्रोतों का एक बड़ा व सशक्त संजाल है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के दो भागों में फैले बुंदेलखंड में छोटी-बड़ी करीब 35 नदियां हैं। यमुना, बेतवा, केन, बागै समेत लगभग 7 नदियां राष्ट्रीय स्तर की हैं। हरियाली के लिए पौधरोपण तो हर साल होता है, लेकिन इसके ज्यादातर अभियान महज पौधे लगाने तक ही सिमट कर रह जाते हैं। बाद में उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता है, जिस कारण से करीब 70 से 90 फीसदी तक पौधे समाप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि हर साल लाखों पौधे लगाने के बावजूद बुंदेलखंड में वन क्षेत्र का औसत नहीं बढ़ रहा है। जिस तरह से प्राकृतिक संसाधन उपेक्षा के चलते सिमटने लगे हैं, उन्हें बचाने के लिए, अब खानापूर्ति की नहीं बल्कि निष्ठा व निस्वार्थ भाव से काम करने की जरूरत है। बुंदेलखंड में साढ़े 17 हजार से अधिक प्राचीन तालाब हैं, सरकारी व निजी प्रयासों से काफी संख्या में नए तालाब भी खोदे जा चुके हैं। पेयजल के लिए कुएं हमारी अमूल्य धरोहर हैं, इनकी संख्या 35 हजार से ज्यादा है।
बुंदेलखंड में जल संरक्षण का जो प्राचीन फार्मूला है, वह अकेले तालाब व कुंओं तक ही सीमित नहीं था। इसमें बावड़ी व बीहर का भी अहम रोल रहा। आज भले ही ये दोनों गुमनामी की कगार पर हैं लेकिन बुंदेलखंड में इन दोनों की संख्या करीब 400 रही है इसमें 360 बीहर व 40 बावड़ी शामिल हैं। दस विशेष प्राकृतिक जल स्रोत हैं, जिन्हें हम कालिंजर दुर्ग, श्री हनुमान धारा पर्वत, गुप्त गोदावरी व बांदा के तुर्रा गांव के पास नेशनल हाईवे पर विसाहिल नदी में देखते हैं। इन प्राकृतिक स्रोतों से हर समय जलधाराएं निकलती रहती हैं। यहां बांधों की संख्या आधा सैकड़ा से ज्यादा है। मोटे तौर पर देखा जाए तो आज भी बुंदेलखंड में प्राकृतिक व परंपरागत स्रोतों की कमी नहीं है। फिर भी यहां के लोगों को अक्सर सूखा जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ता है। जलस्रोतों के सूखने के कारण बुंदेलखंड में सूखे व बंजर जमीन का क्षेत्रफल बढ़ रहा है।
आमतौर पर जल संचयन के किए जाने वाले सरकारी कामों में विभागों को टारगेट दे दिया जाता है। विभाग आंखमूंद कर इस टारगेट को पूरा करता है, उसे इससे कोई मतलब नहीं होता है कि यह कार्य समाज के लिए कितना उपयोगी है या अनुपयोगी। इसके अलावा, विभाग टारगेट को पूरा करने के लिए हर प्रकार का जतन करता है। इसमें कई प्रकार के फर्जी दावे व काम भी किये जाते हैं। जन जल जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय सिंह कहते हैं कि उनका संगठन पानी बचाने के लिये काम कर रहा है। इस अभियान में लोगों को जल स्रोतों से सीधे जोड़ा गया है। गांव में लोगों को आसपास की नदी के साथ जोड़ कर उन्हें नदी की महत्ता समझाई जाती है। हमें न सिर्फ नदी को बचाना है कि बल्कि आसपास के वातावरण को भी सुरक्षित रखना है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)