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Aaj Ka Rashifal

जाती हुई पीढ़ियों के लोग

हमारे ज्ञात पूर्वज का नाम पं. लच्छाराम था। उनके बाद की तीन पीढ़ियों का नाम अज्ञात ही रहा। उनके बाद पं. रामदयाल के पुत्र पं. हीरा के पुत्र पं. कान्ता प्रसाद थे। पंडित कान्ता प्रसाद के पुत्र पं. चुन्नीलाल हमारे परम पूज्य बाबा जी थे।

Prakash Chandra Sharma
Published on: 5 Aug 2021 3:13 PM IST (Updated on: 5 Aug 2021 4:23 PM IST)
Prakash Chandra Sharma People of generations passing away forgotten memories
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।। या कुन्देन्दुतुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृताया

वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेत पद्यासना।

या ब्रह्माच्युत शंकर प्रभृतिभिर्देवैः सदा बन्दिता।

सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।।

हम ब्रह्मा जी के यज्ञ से उत्पन्न एवं देवी सरस्वती पलित "कवि ऋषि" वंशज ब्राह्मण भट्ट-ब्रह्म भट्टब्राह्मण हैं।

संदर्भ:-1. ऋग्वेद मंडल 5, सूक्त 39 मंत्र 5

2. ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त -114, मंत्र-5

3. यजुर्वेद अध्याय 7, मंत्र 24

4. श्रीमद्भागवत दशमस्कन्ध श्लोक-44

5. महाभारत- अनुशासन पर्व अध्याय 85 श्लोक 104 सं 136 एवं अध्याय 94 श्लोक 4

6. स्कन्ध पुराण अध्याय 1 श्लोक-8


पवित्र सरयू नदी (घाघरा) के नाम पार्श्व स्थित ग्राम "कांवडीह" कालान्तर में प्रचलित (कौवाडीह), कौवाडील पोस्ट- भीटी समयथान, थाना एवं तहसील गोला, तप्पा, चांदपार, परगना धुरियांपार, विधानसभा क्षेत्र चिल्लूपार, जनपद गोरखपुर का निवासी हूं। सम्प्रति लखनऊ का निवासी हूं।

हमारे ज्ञात पूर्वज का नाम पं. लच्छाराम था । उनके बाद की तीन पीढ़ियों का नाम अज्ञात ही रहा। उनके बाद पं. रामदयाल के पुत्र पं. हीरा के पुत्र पं. कान्ता प्रसाद थे। पंडित कान्ता प्रसाद के पुत्र पं. चुन्नीलाल हमारे परम पूज्य बाबा जी थे। हमारे बाबा जी राम भक्त एवं साधु स्वभाव के गृहस्थ थे। उनका विवाह तिलौली ग्राम की पंजीरी देवी से सम्पन्न हुआ था। उनके दो पुत्र पं. रामजी शर्मा- पिताजी एवं पं. राधेश्याम शर्मा चाचा जी हुए। द्वय भ्राता के दो-दो पुत्र एवं चाचा जी की एक पुत्री हमारे कुल में हुए। उत्पत्ति क्रमानुसार ज्येष्ठ भ्राता मुरलीधर शर्मा, पुत्र पं. रामजी शर्मा, उनके बादजगन्नाथ शर्मा पुत्र पं. राधेश्याम शर्मा एवं पुत्री उमा शर्मा से परिवार की वृद्धि हुई। उक्त नामों से हीस्पष्ट है कि ये सभी नामकरण हमारे पूज्य बाबा ने किये। इसके पश्चात मेरा प्रकाशचन्द्र शर्मा पुत्र पं. रामजी शर्मा का जन्म हुआ। तत्पश्चात हमारे लघु भ्राता दिनेश चन्द्र शर्मा पुत्र पं. राधेश्याम शर्मा काअवतरण हुआ।

इस प्रकार हम सब चार भाई एवं सबकी प्यारी बहन उमा शर्मा से परिवार प्रमुदित रहा। हमारी प्यारी बहन उमा शर्मा हम चारों भाइयों, पिता-माता एवं चाचा-चाची की लाडली बहिनिया तथा बिटिया रानी रही। मेरे पिता पं. रामजी शर्मा गांव पर ही रहकर कृषि कार्य एवं जिला परिषदीय विद्यालय में अध्यापन कार्य करते थे।

हमारे चाचा पं. राधेश्याम शर्मा जी ने बनारस "क्वीन्स कॉलेज" एवं "इलाहाबाद विश्वविद्यालय" सेस्नातकोत्तर तक की शिक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात महालेखाकार कार्यालय इलाहाबाद में कार्यरत हुए। हम सब भाई-बहन जैसे-जैसे शिक्षा ग्रहण की उम्र को प्राप्त करते गये तत् हेतु धार्मिक नगरी एवं शिक्षण केन्द्र प्रयागराज इलाहाबाद क्रमानुसार आते गये और इलाहाबाद में हीमाध्यमिक शिक्षा परिषद "शिक्षा निदेशालय" एंव महालेखाकार कार्यालय में क्रमानुसार ही कार्यरत होते गए।




भूली-बिसरी यादें

मेरी धुँधली यादों में अब भी कभी यदा-कदा याद आता है कि जब मैं घिसटते हुए या लड़खड़ाते कदमों से घर के बाहर आ जाता था तब दुआर के सामने बने दो कमरों के सहन के एक कमरे में पूज्यबाबा जी को बैठे एवं एक बड़ी सी गठरी में उनके हिलते हुए हाथ देखता तथा कुछ बोलते हुए सुनता। तब क्या पता था कि वे क्या कर रहे हैं? संज्ञान में होने पर बाद में पता चला कि वे उस समय तुलसीकी हजारिया माला (1001 मनकों की) से 'रामनाम' जप करते थे। वह हजारिया माला उनके बाद हमारे पिता जी जपते थे । वह माला आज भी हमारी धरोहर है।

गर्मी की छुट्टी में हम अपनी प्यारी बहिनिया के साथ गांव जाते थे। दिनभर गुल्ली डण्डा, चिकही, कबड्डी आदि खेलते थे। दोपहर में तालाब में तैरते-नहाते थे। घर जाकर पेट पूजा प्राप्त करते थे, सोथ के देह की मालिश हो जाती थी। मेरी माताजी तो नहीं पर चाची जी इस कार्य हेतु सदा तत्पर रहती थी क्योंकि हम सब लोगों को सही सलामत इलाहाबाद ले जाने की जिम्मेदारी तो उन्हीं की थी। जरा भी ऊंच नीच होने पर चाचा जी का सतत भाषण कई दिनों तक उन्हें ही तो सुनना होता था।

इन यादों में मेरे भविष्य वक्ता होने की भी याद है। आठ लोगों की लाडली होने से हमारी प्यारी बहिन जी बहुत जिद करती थी। वे किसी बात की भी जिद कर बैठती थी। फिर जब तक पिता जी जिद पूरी नहीं करते तब तक वे लगातार रोती रहती तथा सिर को आगे-पीछे हिलाती हुई झूमती रहती थी। माता जी एवं चाची जी क्रोधित होती थी। बहन जी पिता जी की प्रतीक्षा में रोती/झूमती रहती थी। एक दिन आँगन में पैर पसारे अपने नित्य कार्य में लगी थीं। माई और चाची इसे कुटेव समझती थीं। और मना करके परेशान हो गयी थीं। घर पर मैं और माता जी एवं चाचा जी ही थे।


ऐसे में इन दोनों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। ऐसे में पिताजी ने घर में पदार्पण किया। उन्हें देखते माता जी एवं चाची जी एक स्वर से उन पर भड़क गयीं तथा कहा कि "इसे आप ही ने बिगाड़ कर रख दिया है। जब देखो तब रोती/झूमती रहती है।" पिता जी आगे बढ़े और अपनी लाडली को उठाते हुए बोले, "तुम लोग क्यों चिंता करती हो? मैं इसकी शादी हाथी वाले घर में कर दूंगा। सारा विभेव मिट जाएगा। चाची जी ने मारे गुस्से के कहा हाँ हाँ बहुत देखे हैं हाथी वाले। उस समय मेरी आयु 7-8 वर्षतथा बहिन जी की आयु 9-10 वर्ष की थी। बेसाख्ता मेरे मुंह से निकल गया हाँ हाँ, " चितहा वालों के यहां हाथी है। वहीं इनकी शादी की जायेगी।" असलियत में मैं कुछ ही दिन पूर्व अपने ममेरे भाई की शादी में चितहा बरात में गया था। उनके यहां हाथी और बाल हठ में मैंने वहां हाथी की खूब सवारी की थी। हाथी की सवारी की याद एकदम ताजी-ताजी थी। अतः एका एक मुंह से बात निकल गयी और बात आई-गई हो गयी।

समय अपनी गति से चलता चला रहा

समय अपनी गति से चलता चला रहा। कुछ वर्षों के उपरान्त चाचाजी लाडली की शादी हेतु वर की तलाश में लग गये । सौभाग्य वश वह अपनी तलाश में सफल हुए एवं विवाह तय कर दिया। उन दिनों हमारे यहाँ शादियाँ ग्रीष्म ऋतु में हुआ करती थी। अतएव तद्नुसार तैयारी करने लगे एवं "माघ मकरसंक्रांति" स्नान पर जब पिता आते तब उनसे विस्तृत वार्ता करने हेतु पत्र भी लिखकर भेज दिया। पिताजी को पोस्ट कार्ड प्राप्त हुआ कि शान्त रहो। माघ में बात होगी। तब देखी जायेगी। चाचा जी एक तो पोस्ट कार्ड पत्र देखते ही भड़क गये। उसको उपाध्याय चाचा जी की तरफ बढ़ाते हुए बोले लो भाई साहब को।

उपाध्याय चाचा जी, आजमगढ़ के निवासी थे एवं चाचा जी के सहपाठी थे। सेन्ट्रल एक्साइज विभाग, इलाहाबाद में कार्यरत थे। वे सदा से ही चाचा जी के साथ रहते थे। हमारे बहुत ही घनिष्ठ पारिवारिक सदस्य थे। हर पारिवारिक निर्णय के महत्वपूर्ण सदस्य थे। माघ मास मेंमकर संक्रान्ति पर गंगा स्नानार्थ पिता जी आये। माघ स्नानादि किया। चाचा जी से अपनी लाडली की शादी के बारे में बात की। उपाध्याय चाचा जी से पूछा क्यों उपाध्याय तुमने घरद्वार एवं लड़कादेखा है। उन्होंने कहा नहीं भाई साहब मैं नहीं गया था। यही हुडक चुल्लू गया था और इसी ने देखा और तय किया था। बस फिर क्या ? पिताजी का फरमान जारी हो गया। मैं कल जाकर देखूंगा फिर बात करूंगा। दूसरे दिन वे गये, देखा और लौटकर कह दिया वहां शादी नहीं होगी। वहां तो मेरी बेटी घुटकर मर जायेगी। चाचा जी गुस्से से लाल हो गये बोले, फिर आप ही जानें। पिता जी ने कहा हां भाई मैं जान लूंगा। देख रहे हो उपाध्याय इसको। अच्छा ठीक है। मैं आज रात की गाड़ी से गांव जा रहा हूं। उपाध्याय चाचा जी ने कहा आज नहीं कल जाइएगा भाई साहब। बात खत्म हो गई।

अब संयोग और भवितब्यता का खेल प्रारम्भ हो गया। दूसरे दिन प्रातःकाल हमारे यहां कैलाश चंद्र मिश्र नामधारी एक व्यक्ति पधारे। घर के भूतल पर पिता जी एवं उपाध्याय चाचा थे। स्वागतोपरान्त बातचीत करने में पता चला कि वे चितहा ग्रामवासी पं राम स्वारथ मिश्र जी के द्वितीय पुत्र हैं। वे चार भाई हैं। तीन भाइयों की शादी हो चुकी है। कनिष्ठ भ्राता लहरी बाबू इण्टरमीडिएट में अध्ययनरत हैं। और भी औपचारिक बातें हुई होगी क्योंकि दिन के भोजन के उपरान्त पिताजी एवं आगन्तुक जी सारा दिन मुंह जोड़े वार्तालाप में संलग्न रहे। समय-समय पर हम भाई-बहिन चाय-शर्बत प्रस्तुत करते रहे। सायं चार-पांच बजे चाचा द्वय जब घर आये तब पिता जी ने घोषणा की वे रात की गाड़ी से गोरखपुर से पडरौना होते हुए चितहा जा रहे हैं।

हमारी लाडली बहिन एवं पिताजी की प्रिय पुत्री का विवाह

शेष वहां से लौटने पर सूचित करूंगा। चाचा जी ने एक वाक्य कहा, "परन्तु पोस्ट कार्ड पर नहीं।" पिता जी चले चितहा यात्रा पर। दूसरे दिन सायंकाल तक वहां पहुंचे। पं रामस्वारथ मिश्र जी के घर पहुंचे। सामान्य औपचारिक वार्ता क्या शुरू होना था कि मास्टर द्वय देखते ही देखते एक दूसरे के अन्तरंग हो गये। सोने में सुहागा राम स्वारथ मिश्र जी के ज्येष्ठ पुत्र पं हरिश्चन्द्र मिश्र भी अध्यापक थे। सो कनिष्ठ अध्यापक दो वरिष्ठ मास्टरगण की सेवा भगत में लगे रहे। खाते-पीते, सोते में लोगवार्तालाप में लगे रहते। दोनों पक्षों में सकारात्मक वार्तालाप करते-करते दो दिन के समय का सदुपयोग किया। दोनों पक्ष राजी हुये। उन दिनों काजी नहीं होते थे। इस प्रकार हमारी लाडली बहिन एवं पिताजी की प्रिय पुत्री का विवाह "हाथी वाले घर" में चिंरजीवी लहरी बाबू उर्फ प्रेमचन्द्र मिश्र से होना निश्चित हो गया।

गांव पहुंच कर पिता जी ने अपने स्वभाव एवं आदतानुसार पोस्टकार्ड में लिखकर चाचा जी को पूर्व विवरण भेज दिया। चाचा जी ने पोस्टकार्ड हेतु रोष प्रकट करते हुए पिता जी को पत्रोत्तर भेजा कि तय तो आपने कर दिया पर यह सब कैसे होगा। वे आर्थिक पक्ष को लेकर परेशान होने लगे एवं इसेप त्र में प्रकट किया। पिता जी का उत्तर आया कि शादी के मंगल कार्ड में "स्वागताकांक्षी" में अपना नाम लिखवा देना। बाकी सब हो जायेगा।

संयोग से विधि का विधान देखिए जब पिता जी चितहा यात्रा वार्ता में संलग्न थे तब एक दिन सायंकाल बनारस एवं लखनऊ निवासी पंडित शिवनाथ भट्ट जी पं हरिशंकर शर्मा के साथ हमारे नया कटरा, इलाहाबाद के निवास पर पधारे । वे अपनी पुत्री राजकुमारी जी का विवाह हमारे ज्येष्ठ भ्राता मुरलीधर शर्मा के साथ करने हेतु पधारे थे। चाचा जी, उपाध्याय चाचा जी एवं पं शिवनाथ, हरिशंकर जी चतुर्मण्डली बैठी तथा विवाह कार्य हेतु सहमति बन जाने के बाद ही रात्रि में भोजन पर बैठे। लाडली के विवाह तय होने के पत्र का उत्तर देने का अवसर आने से पहले ही चाचा के पास मुरली भाई साहब के विवाह के निश्चित होने का सु समाचार उपलब्ध था। दोनों के बीच समाचारों का आदान-प्रदान हुआ। दोनों विवाह मई/जून 1954 की ग्रीष्म ऋतु में ही सम्पन्न होने थे। तत्कालीन प्रथा के अनुसार घर बसा कर नहीं उजाड़ा जाता था। इसलिए पहले बहिन जी का, उसके बाद भाई साहब का विवाह हुआ।


हमारी प्यारी बहिनियां उमा शर्मा की शादी मई या जून 1954 में कार्यक्रमानुसार संपन्न होने की व्यवस्था होने लगी। पचास के दशक में पूर्वांचल अच्छा खासा पिछड़ा क्षेत्र होता था। गोरखपुर एवं देवरिया उसी में शामिल था। दोनों जिलों के शहरों में सड़क, बिजली, पानी आदि की पूरी दुर्व्यवस्था थी, तो गांव देहात का तो कहना ही क्या? हमारा गांव कौवाडील एवं भावी जीजा जी लहरी बाबू का गाँव चितहा तो पिछड़ेपन के अग्रणी उदाहरण कहे जा सकते थे। यूं तो ये जननी 'जन्मभूमिश्च स्वर्गदिपि गरीयशी' थे। मेरे बालमन में जो स्मृतियां आज भी कौंधती रहती हैं वे आज भी चौंका देती हैं।

वैवाहिक समारोह के चार-पांच दिनों तक हमारे घर से लेकर बारात के ठहरने के शामियाना स्थल तक तारों के जाल में छोटे-छोटे लट्टू लटके थे। वे शाम होते ही जाने किस जादू से भरे थे कि रात को दिनमें बदल देते थे। ऐसा दृश्य मैंने न तो पहले कभी देखा था न आगे भविष्य में लगभग दो या तीन दशकों में अपने ग्रामीण क्षेत्र में देखा। हाँ, इलाहाबाद में यह जगमग जरूर देखी थी। शादी समारोहके चार-पांच दिनों तक मेहमानों की गहमागहमी, तरह-तरह के बनते पकवानों की खुशबू , मेहमानों की आवभगत की भागा दौड़ी में हम बच्चे लगे रहे। बात-वे-बात बड़ों के थप्पड़ घूसा खाते जाते थे। थक हार कर जहां पर पकवान बन रहे थे, वहाँ चले जाते थे। वहां शिरपति (श्रीपति) चाचा लाठी लिये कुर्सी पर बैठे थे। तुलसी चाचा सोटी लिए चौतरफा कवायद कर रहे थे। हम लोगों को हुरपेट करभगा देते थे। यह क्रम लगातार चलता रहता जो हमारा शगल बन गया।


'हाथी आइल, हाथी आइल पदलस पोय'

शादी वाले दिन सुबह-सुबह हम लोगों को जगाकर मुंह हाथ धुलकर दाल-भात खिलाकर घर से बाहर किया गया, इस हिदायत के साथ कि दोपहर तक इधर दिखाई मत देना। हमारी बाल मण्डली को सबसे सुरक्षित स्थान बारात विश्राम स्थल लगा और वहीं पहुंच कर धमा चौकड़ी शुरू कर दी। थोड़ी देर में चार-छह लोगों से लदे-फंदे, दो-तीन हाथियों को आते देख हम सब 'हाथी आइल, हाथी आइल पदलस पोय' चिल्लाते हुए उनके चारों ओर चक्कर लगाने लगे। थोड़ी ही देर में घुड़सवारों के आने का ताँता लग गया। दोपहर होते-होते घुर्र-घुर्र, घर्र-घर्र करती हुई, चार पहियों वाली गाड़ियों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। उसमें तरह-तरह के धूल धक्कड़ से लिपटे लोग धुर-धुरा कर निकलते थे।

यह तो बाद में कुछ वय प्राप्त होने पर, पता चला कि ये सब बाराती थे जो गोरखपुर रेलवे स्टेशन से गांव तक लाये जा रहे थे। दोपहर बाद भी जब हम सब घर नहीं पहुंचे तो हमारी तलाश करते बड़े भाईसाहब मुरलीधर जी दिखे। उन्हें देखते ही मैं तो भूत की तरह भाग कर घर पहुंचा । प्रथानुसार सत्कार के बाद नहला-धुलाकर नया हाफ पैन्ट, कमीज, जूता पहनाकर बड़े भाई साहब के हवाले कर दियागया। फिर तो उन्होंने हमें एक चारपाई पर बिठा कर समझो बांध ही दिया। वहां से केवल हाजत की ही अनुमति थी वह भी उनसे पूछ कर । पर मैं कब तक एक जगह बैठ सकता था? मेरी चाची अक्सरकहती थी, 'इसके तशरीफ' (तब इसे वे कुछ और ही कहती थीं) में मांटा लगा रहता है एक जगह टिक ही नहीं सकता।

मैं वहां से भाग खड़ा हुआ। मुझे अपने जीजा जी को देखना था । उनसे ढेरों बात करने की इच्छा मन में संजोये था। सो मैं शामियाने में पहुंच गया। उस भीड़ में समझ नहीं सका कि कौन हैं जीजा जी औरकहां बैठे हैं। बहुत देर तक मैं परेशान हाल भौचक सबको देखता रहा । मैं तो किसी को पहचानता भी नहीं था । थोड़ी देर बाद देखा कि धोती-कुर्ता धारी एक सज्जन को तो पहचानता हूं। अरे ये तोकैलाश अंकल है। उनके पास पहुँच कर उनके कुर्ते का कोना खींचते हुए अंकल-अंकल करके कहा।

अरे तुम! मैं तुम्हारा अंकल नहीं जीजा हूं। साले साहब मैंने कहा, नहीं, आप तो इलाहाबाद आये थे।वे मजाक करने लगे । बड़े ही हँसमुख मुस्कराते हुए चेहरे वाले थे। बोले अच्छा चलो तुम्हें जीजादिखाता हूं। सजे हुए शामियाने के नीचे एक बड़े से बक्से के आगे तीन-चार सुन्दर-सुन्दर सजे-बजेलड़के बैठे। बीच में बैठे लड़के को जीजा बताया। विश्वास ही नहीं हो रहा था - बहुत ही सुन्दर - परउनके सिर पर बाल ही नहीं थे। एकदम दुरापट्टी हुई थी । मैं उनसे मिला, सिर पर हाथ फिराया। अपनेपरिवार का पहला सदस्य था जिसने उनके सिर पर हाथ फिराया। बाद में देखा कि मेरे घर के बड़ेलोग जब आते तो उनके सिर पर हाथ फिरा कर आशीर्वाद देते थे। वास्तव में तिलक समारोह के दिनउनका उपनयन संस्कार हुआ था। जिसमें सिर का मुण्डन होने की प्रथा है।

शाम होने से पहले ही बाराती अनेकानेक प्रकार से सजने लगे। पांच-छह हाथियों तथा आठ-दस घोड़ोंका जमावड़ा हो चुका था । उनके सवार उनकी तथा अपनी सजावट करके तैयार हो चुके थे।बरातियों का दल भी तैयार हो गया। मुझे भी पकड़वाकर घर लाया गया। घराती पक्ष सजकरदीपोज्जवलित मंगल कलश साथ लेकर शामियाने पहुंचा और समधी पं रामस्वारथ मिश्र सहित सभीबारातियों का स्वागत किया। अगवानी हेतु निमंत्रित किया। उसके बाद लगभग एक मील चौड़े तथातीन मील लम्बे खेत के मैदान में पहले हाथियों की फिर घोड़ों की अद्भुत दौड़ का कार्यक्रम सम्पन्नहुआ। उसके बाद हमारे पिता जी एवं चाचा जी ने अपने समधी को द्वारचार हेतु अपने द्वार पर आने काविनम्र निवेदन किया एवं आमंत्रित किया।

बड़ी गहमागहमी के बीच द्वारचार पूजन आदि हुआ। रात्रि में वैवाहिक विधि सम्पन्न हुई। दूसरे दिनभी बड़ा ही रोचक रहा । शामियाने में दिन भर दो नृत्यांगनायें नृत्य एवं गायन करती रहीं। सायंकाल शिष्टाचार संस्कार का निर्वहन किया गया। तीसरे दिन प्रातः बारात विदाई समारोह हेतु द्वार परदरियां एवं कालीन आदि बिछाये गये। तरह-तरह के पकवान सजाकर रखे गए थे। द्वार पर भारी भीड़जमा थी। गाजे- बाजे के साथ वर पक्ष के सभी लोग आये। जलपान आदि के बाद पिताजी एवं चाचाजी, जीजा जी के पिता एवं चाचा के गले मिले। कुछ द्रव्यचरणों में अर्पित किया। एक-एक बाराती खड़ा होता। हमारे पक्ष से भी एक व्यक्ति जाकर उनसे गले मिलता और द्रव्य अर्पित करता। यह प्रक्रिया काफी देर तक चली।


उस विदाई की भागम-भाग में मैं तो कहीं खो ही गया

उसके बाद हाथी, घोड़े चिघाड़ते , हिनहिनाते अपने सवारों सहित प्रस्थान करने लगे। फिर गाड़ियों में भर-भर कर बाराती धूल उड़ाते हुये प्रस्थान कर गए। उस विदाई की भागम-भाग में मैं तो कहीं खो ही गया। सारे दृश्य एक-एक करके आखों के सामने आते-जाते रहे। मीठी स्मृतियों के अतिरिक्त सबउजाड़ सा लगता। इस भीड़ भाड़ में प्यारी बहिन तो देखने को ही नहीं मिली। मैं भी जीजा जीमनमोहक लहरी बाबू के पास ही रहने के चक्कर में सब कुछ भूल सा गया था। बारात विदाई के बादही प्यारी बहिन देखने को मिली।

अरे ये तो तमाम लाल-लाल वस्त्रों आभूषणों से लदी-फदी " देवी जी" की मूरत जैसी लालो लाल लगरही थी। दो चार दिन बाद ही हम भाई-बहन सामान्य सा खेलने- कूदने लगे। पर कहां ! फिर तोकानखटाई करके पीठ पर बस्ता लादा गया। तीन दूना है मील की पदयात्रा । वहां मास्टर साहब कीसंटी, किताबों से आंख गड़ाए पीठ पर घूसे की धम्म का क्रम शुरू हो गया । कुछ दिनों बाद फिरगहमा-गहमी शुरू हुई, भाई साहब की शादी की।उजड़ा घर बसाना जो था।

यह क्या ही समय था कि बिटिया रानी का घर उजाड़ना, पुत्र रत्नों का विवाह घर बसाना । बहरहालभाई साहब की शादी की या़त्रा बारात बनारस तक छुक-छुक गाड़ी, फिर गंगा मइया नाव से पार कररामनगर पहुंची। शादी सम्पन्न हुई । हम बालकों को करने लायक कुछ था ही नहीं, सिवाय कभीहाफ पैण्ट, पहनों, कभी कुर्ता, पाजामा पहनो, खाओ पियो, सो जाओ।

बस याद है कि चाचा जी के बाये हाथ की तीसरी उँगली , जिसे पढ़-लिख कर अनामिका जान गए, में गलका माई निकल आयी। जिसको हमारे बड़े लोग कहते हैं कि -, "ये राधेश्याम लड़की की शादीमें दामाद का टीका करते समय बाये हाथ को दामाद के सिर पर नहीं रखा होगा सो आशीर्वाद माईनिकल आई हैं। उन्हें बहुत दर्द होता था। दर्द से कराहते थे , मजाक पर हँसते भी थे। दर्द-ओ- विनोदके बीच उनका चेहरा देखते ही बनता था।

एक और याद है लौटते समय गंगा मईया की रेती में गंगा जल के बीच एक मचान थी । बारातियों मेंहलचल सी मची। देवरहा बाबा , देवरहवा बाबा की ध्वनि गूंजने लगी। सभी लोगों के साथ ही साथमैं भी वहां गया। कुछ देर प्रतीक्षा के बाद उस मचान पर एक जटाजूटधारी देव पुरूष प्रकट हुए।देवरहवा बाबा की जय का घोष होने लगा। हम बालक वृन्द भी चिल्लाने लगे। बाबा ने दोनों हाथ उठाकर सबको आशीर्वाद दिया। कुछ देर बाद देखा कि बाबा के दोनों हाथ मचान पर ही नीचे करते-ऊपर करते और तरह-तरह के फल हम सब की तरफ उछाल देते। सभी लोग दौड़ कूद उन फलों को लेते और माथे से लगाते और अपने-अपने झोले में रख लेते। बड़ी भागा-दौड़ी से मुझे भी कोई एकफल मिला। अपनी सबसे सुरक्षित जगह मुंह में रखकर तुरन्त ही उदरस्त कर लिया। जब तक हम यहां रहे बाबा को आश्चर्य से देखते रहे कि ये यहां गंगा के बीच जल में कैसे पहुंचे, और कैसे रहते हैं, और कहां से ये इतने सारे फल आदि प्राप्त करते हैं। क्योंकि सभी लोग कह रहते थे कि देवरहवा बाबा इसी जल में रहते हैं, चलते हैं, सोते, सब कुछ करते है। अपनी बुद्धि में तो कुछ घुसा ही नहीं। बस आश्चर्य में ही डूबते उतराते गांव-घर पहुंच गये। इन सब प्रक्रियाओं में अपने हाथ तो कुछ लगा ही नहीं। रहे मूढ़ के मूढ़ । पुनः भागा-दौड़ी, बस्ता-किताब, घूंसा-संटी में ढकेल दिये।

कम्बल ओढ़कर लालटेन की रोशनी में पढ़ते थे

बीच में नखलिस्तान सा दशहरा दीवाली मौज-मेला का दौर आया और बीत गया। स्कूल पहुंचे तोवज्रपात हुआ। जूनियर वर्नाकुर यानी दर्जा आठ की परीक्षा नजदीक है। अतः दिन में स्कूल अवधि केबाद रात में हेडमास्टर साहब के घर दिया-बाती के समय से पहले पहुंचकर रात्रि पाठशाला में पढ़ाईहोगी। रात में कम्बल ओढ़कर लालटेन की रोशनी में पढ़ते, जरा सी झपकी पर हेडमास्टर साहब काघूंसा चैतन्य करता। राम राम करते वक्त बीता। परीक्षा रूपी काल सिर पर आ गया जो मार्च अप्रैलसन् 1955 होना था। इसी के बीच बहिन जी की विदााई का शुभ अवसर निश्चित हुआ। मौका मिला। मैं बाल हठ कर बैठा कि मैं ऐसे अवसर पर परीक्षा केन्द्र पर रहने और परीक्षा देने नहीं जाऊँगा ।फिर तो पिताजी का थप्पड़ घूसा साथ ही आश्वासन भी कि जाओ परीक्षा पर ही तुम्हे दर्शन देने केबाद ही तुम्हारी बहिन आगे की यात्रा करेंगी। पिता जी मेरी जिद को जानते मानते थे। अतः उसीप्रकार उनकी विदाई मुझे दर्शन कराकर सम्पन्न हुई।

परीक्षा के बाद घर लौट कर पाया कि प्यारी बहिनिया के बिना तो वाकई हमारा घर हमें उजड़ा हीलगा। इतने बड़े घर में रह गये काका (पिता जी) माई (मेरी मां) और मैं। रात तो रात दिन में भी डरलगता था। सारा दिन बाग-बगीचा एवं तालाब पर खेलते हुड़दंग करते बीत जाता । घर खाने औरसोने मात्र का आश्रय स्थल था।

ग्रीष्म ऋतु के जून मास में इलाहाबाद से चाचा जी गांव आये। दो-चार दिन तक घर पर बड़ी भीड़लगती रही। सुबह से शाम तक लोगों के आने जाने का तांता लगा रहता था। ज्यादातर लोग नौकरीपाने के जुगाड़ एवं सिफारिश पत्रों की चाहत में आते थे। हमारे क्षेत्र के मिडिल पास यानी जूनियरवर्नाकुलर ( कक्षा 8 पास)उत्तीर्ण लोग शिक्षा विभाग में बीटीसी ट्रेनिंग करके प्राइमरी स्कूल केअध्यापक बनने को इच्छुक रहते थे एवं चाचा जी के प्रयत्नों से इसमें सफल भी हो जाते थे। एक दिनचाचा जी ने इलाहाबाद लौटने का कल का कार्यक्रम बता दिया। दूसरे दिन सुबह उन्होंने कहा किप्रकाश का झोला तैयार कर दीजिये इसकी आगे की पढ़ाई वहीं होगी। खुशी-खुशी उनके साथ प्रयागआ गया। सी.ए.वी. इण्टर कॉलेज में नौवीं कक्षा में प्रवेश लेकर आगे का प्रगति मार्ग प्रशस्त हुआ।

एक दिन कार्यालय से लौटकर चाय नाश्ता के बाद चाचा जी टहलने जाते हुए मुझ भी अपने साथ लेगये, तरह- तरह की पढ़ाई लिखाई की बात करते रहे। समझाते रहे। मैं कुछ नहीं सुनता, मैं कुछ नहींसमझता क्योंकि देश या भेष नया था। मैं भौचक चारों ओर देख रहा था। चलते-चलते देखा एकबड़ा सा गेट उस पर द्वारिका प्रसाद गर्ल्स इण्टर कॉलेज लिखा था। मैं चौंककर उसे देखता रहा।सोचा मेरा तो प्रवेश हो चुका है। तो यहां क्यों लाये । वह भी लड़कियों के स्कूल में। चाचा जी आगेनिकल गये। तब तक मेरे कानों में आवाज आयी , "वहां क्यों रूके हो यहां आओ।" मैं दौड़कर उनकेपास गया। वे एक लोहे के बड़े से गेट के सामने खड़े-खड़े उसे खोलने का प्रयास कर रहे थे। मैंआश्चर्यचकित देखने लगा। अन्दर बड़ा सा घर था। गेट पर और महल से मकान की ऊपरी दीवार परसाकेत लिखा था। चाचा जी हाथ पकड़कर मुझे अन्दर उस महलनुमा घर में ले गये। अन्दर बहुत बड़ासा आंगन था। बड़ा सा ओसारा था। वहां बड़े से सोफें पर एक महिला एवं बगल में एक कन्या बैठीथी। वहीं एक तख्त भी लगा था। उस पर एक अद्भुत व्यक्तित्व धारी बैठे थे। मैं अभिभूत सा खड़ादेखता रहा । एकाएक चाचा जी का स्वर कानों में घुसा," पैर छुओ।" इस बीच चाचा जी उन लोगों सेक्या वार्ता कर रहे थे, मैं कुछ भी नहीं सुन सका।


मैं तुम्हारी 'बुआ' हूँ

अचकचा कर मैंने झुककर उन भद्र महिला का पैर छुआ। उठ ही रहा था तब तक पतली मीठी सी आवाज आयी मेरे भी मैं तुम्हारी 'बुआ' हूँ। हडबड़ाहट में ही सही पर उनके भी पैर छुए। खड़ा होते हुए, मैं उस धीर-गम्भीर व्यक्तित्वधारी की तरफबढ़ा और उनके पैर छुए। मैं सीधा खड़ा भी नहीं हो पाया था कि उन्होंने मेरा सिर सहलाते हुए अपनीगोद में बिठा लिया और कहा 'रामजी के पुत्र हो', लव-कुश बनो। बुद्धिमान बनो।' यह मेरे जीवन कापहला आशीर्वाद था। हृदय में स्थायी भाव सा स्थापित हो गया। बुद्धिमान कितना बना या नहीं बनायह तो मरे जीवन के बारे में जानने वाले ही जाने एवं निर्णय लें। हाँ, मेरे संज्ञान में एक बात जीवन भरमुझे प्रभावित करती रही कि गलत लगने वाली बात का मैं तत्काल विरोध कर देता हूँ। प्रतिफल चाहेअनुकूल हो या प्रतिकूल। ऐसा क्यों हुआ यह पता तो आगे के अध्ययन एव लव-कुश के चरित्र-ज्ञानके बाद ही लगा।

मैं थोड़ा-थोड़ा सामान्य सा होने लगा और सभी लोग वार्तालाप में संलग्न हो गये तब भद्र महिला नेआदेशात्मक स्वर में कहा जाओ राजलक्ष्मी के साथ खेलो। वे झुक एक कमरे में ले गयी । जहां तरह-तरह के खिलौने पड़े थे। वे मुझे बताती रही, मैं देखता रहा एवं खेलता सा महसूस करता रहा। कुछदेर बाद चाचा जी ने बुलाया तथा वहां से लौटते समय बताया ये तुम्हारी 'दादी जी हैं' ये दादा जी हैं।पैर छुओ। दोनों के पैर हुए। उसके बाद उन्हें दादी जी एवं दादा जी कहने लगा। दादी जी ने मुझे अपनेपास बुलाया, सिर पर हाथ फिराया। पूछा-स्कूल जाते हो! मेरे हां कहने पर उन्होंने कहा स्कूल कीछुट्टी के बाद सीधे यहीं आया करो। मुझसे मिलने के बाद जब कहूं तब घर जाना फिर तो यह क्रमस्कूल/कालेज तक बराबर चलता रहा। भरत के बड़े भाई रामजी के पुत्र हो। प्यारे लग रहे हो।

राजलक्ष्मी के राजमहल से बाहर निकलते समय गेट पर रूककर ध्यान से गेट पर लिखे-साकेत। डॉ. रामकुमार वर्मा, प्रयाग विश्वविद्यालय की तीन लाइनों को पढ़ा। लौटते हुए चाचा जी ने बताया किवह बहुत बड़े विद्वान हैं। दोनों ही चाचा जी को पुत्रवत मानते है। मुझे भी उनका आदर करने एवं आज्ञापालन की हिदायत-सीख दी। रास्ते भर मैं यहीं सोचता रहा कि डाक्टर क्या होता हैं? विद्यालय तोदेखा-सुना था-ये विश्वविद्यालय क्या होता है? कितना बड़ा होता होगा। ऊहापोह में पड़ा रहा। फिर तोदैनंदिनी कार्यक्रमानुसार हाई-स्कूल, इण्टरमीडिएट बी.ए. एम.ए. किया पर उस धीरे गम्भीर विद्वान सेपढ़ने की चाह नहीं पूरी हो सकी।

प्रयाग विश्वविद्यालय में बी.ए. में हिन्दी विषय का चयन किया । परवे तो बी.ए. की कक्षा ही नहीं लेते थे। एक दिन जिस हाल में वे पढ़ाते थे, उसमें जाकर बैठ गया किइतनी ज्यादा संख्या में क्या पता चलेगा। इतना ज्यादा मिलना-जुलना जो दैनिन्दनी का हिस्सा था सोकोई ध्यानाकर्षण का विषय नहीं लगा। उन्होंने सम्पूर्ण हाल का अवलोकन सा किया। मुझे अपनेपास आने का इशारा किया। सारे विद्यार्थियों का ध्यान मुझ पर गया, पर निर्भीक सा मैं उनके पासगया। गम्भीर स्वर में हाल के गेट की तरफ दिशा दर्शन कराते हुए कहा 'जाओ' । एम.ए. में प्रवेश केबाद। भरी कक्षा में मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। दूसरे या तीसरे दिन 'साकेत' जाने पर पूरे घन्टे भरकी क्लास ली, अनुशासन का पाठ पढ़ाया तथा तरह-तरह की शिक्षा दी। यही मेरे लिए उनकाव्याख्यान रहा, क्योंकि एम.ए. में मैंने 'अर्थशास्त्र' का चयन किया जो मेरे शेष जीवन के लिए व्यर्थ हीसा रहा, क्योंकि सरकारी नौकरी तो स्नातक स्तर के शिक्षा आधार वाली की। पूरे अड़तीस वर्षों कीराजकीय सेवा एवं सेवानिवृत्ति के बाद से अब तक अपने अर्थ-तंत्र को बिगाड़ता ही रहा।

मकान पर 'साकेत'क्यों लिखा है?

प्रयाग आगमन से पूर्व का जीवन खेलना, स्कूल आना जाना एवं स्कूल में जो पढ़ा दिया वही पढ़ाई की इति रही। इसके अतिरिक्त भी कोई क्रियाकलाप है, यह बिल्कुल ही नहीं जानता समझता था। प्रयाग का जीवन वहां से बिल्कुल ही अलग था। डॉ. वर्मा के यहां संध्याकाल बिताने के दौरान मैंनेहाट बाजार जाना सब्जी व गृह सामग्री क्रय करने तक का कार्य सीखा। वहां जाने पर सबसे पहलेदादी जी चाय-नाश्ता देती थीं।उसे खाते समय दादाजी (डॉ. वर्मा) स्कूल के बारे में आज क्या पढ़ा एवंसहपाठियों के बारे में पूछते। तरह -तरह की अच्छी बातें बताते।


मकान पर 'साकेत'क्यों लिखा है? मेरे यह पूछने पर थोड़ा-थोड़ा रोज 'राम' कथा बातते थे। 'साकेत' का भी महत्व भी बताया। 'मानस' से लेकर मैथिली शरण गुप्त जी रचित 'साकेत' तक के कथानक को बताया। समझाया। वह मेरेबाल मन में बैठ गया । नाश्ते के बाद दादी जी बटुये से रूपये निकाल यत्न सहित मेरे जेब में रख देतीथीं। उन्हीं के हाथों में मैंने पहली कागज का एक रूपया-दो रूपया और दस रूपया देखा। एक-एकरूपये को अपने दोनों हाथों से इतना घिस-घिस कर निकालती थी कि डर लगता था कि यह कागजका रूपया फट न जाय। पहले दस पन्द्रह दिनों तक नौकर के साथ भेजती थी। वह क्रय करता था, दादी जी को सीख के अनुसार मूल्य चुकाता, जोड़ गांठ करके पैसे वापस लेता। फिर जब उन्हेंविश्वास हो गया कि मैं यह कार्य ठीक प्रकार से कर लूँगा तब यह जिम्मेदारी मेरे कन्धों पर डाल दी।इस प्रकार हाट-बाजार के काम में दादी जी ने मुझे पूर्णतः प्रशिक्षित कर दिया। दादी जी मध्य प्रदेशमें सेवारत डिप्टी कलेक्टर की पुत्री थीं। प्रशासनिक क्षमता उनके कूट-कूट कर भरी थी। उनका यहप्रशिक्षण मेरे संयुक्त परिवार एवं बाद में मेरे पारिवारिक जीवन में बहुत काम आया। हर कार्य को वहसेवाभाव से करने की सीख बराबर देती थीं। यह 'सेवाभाव' मेरे बड़े काम आया।

उन्हीं दिनों चाचा जी के ज्येष्ठ पुत्र जगन्नाथ भाई 'प्लूरेसी' रोग से ग्रस्त हो गये। महीनों दवा चलतीरही पर कुछ लाभ नहीं हो रहा था। एक सांयकाल शिक्षा निदेशालय के एक बड़े अधिकारी सरदारबलवन्त सिंह जी घर आये। भाई साहब को देखकर चाचा जी को कहा राधेश्याम क्या कर रहे हो, लड़के को मार डालोगे क्या? दूसरे दिन वे 'रायबहादुर डॉ. आर.यन दरबारी' को लेकर घर आये।उन्होंने देखा। दवायें लिखीं। दवा उनके क्लीनिक से ही लानी थी। उसका जिम्मा मुझ पर पड़ा। उसदिन वह मुझे अपनी मोटरगाड़ी में बिठाकर ले गये। दवाएं दीं। प्रयोग विधि अलग कागज पर लिखदिया। उसे लेकर हिवेट रोड क्लीनिक से नया कटरा घर तक पांव पियादे आया। दवा शुरू हुई। धीरे-धीरे लाभ होना शुरू हुआ। डॉ. साहब प्रायः आते भाई साहब को देखते, दवाएं लिखते। क्लीनिक सेदवाएं लाने का मेरा क्रम चलता रहा। यह क्रम कई महीनो चला।

लाभ के लिए डॉ. साहब ने भाई साहब को अन्डा एवं अन्य मांसाहारी पदार्थों के खिलाने पिलाने कोकहा। मैंने कहा डॉक्टर साहब मेरे यहां मांसाहारी तो कोई छूता भी नहीं, बनेगा कैसे? उन्होंने पूरी विधिलिखी। काग़ज़ मुझे थमाते हुए बोले 'सब लिख दिया है' तुम ऐसे ही बनाकर खिलाना-पिलाना। बसहो गया। बाजार से मैं अन्डा-मांस ले आया। लिखे अनुसार 'बुरादे की अंगीठी जलाकर उस पर पकनेको चढ़ा दिया।'अन्डा फोड फोडकर खिलाया। मांस भी खाने को दिया। उसे भाई साहब ने अनिच्छा से खाया और जूस आदि पिया।

जब पूरा परिवार एक अज्ञात भय से ग्रस्त हो गया

अब दैव -संयोग देखिए जिस कमरे में चाचा जी सोते थे एवं पूजा पाठ करते थे, उसी में भाई साहब को भी अलग चारपाई पर लिटाया जाता था। उस कमरे में चाचा जी के सिरहाने हमारे पूज्य बाबा जीकी फोटो टंगी थी। दूसरे दिन प्रातः नित्य नियमानुसार पूजा आदि के बाद चाचा जी बाबा जी कीफोटो को प्रणाम करने गये तो देखा कि बाबा जी की फोटो का चेहरा वाला हिस्सा धुंधला गया था।पिघल सा गया था। चाचाजी ने सोचा शायद सीलन से ऐसा हो गया होगा। दूसरी फोटो बक्से में रखीथी। टाँगने के लिए उसे निकाला। अखबार में लपेटकर रखी उस फोटो को खोला। तो पाया किउसका निचला हिस्सा उसी प्रकार धुंधलाकर पिघल सा गया। पूरा परिवार एक अज्ञात भय से ग्रस्त हो गया। सभी लोग अन्डा मांस पकने एवं खाने आदि को ही कारण समझे। चाचा जी दोनों फोटोलेकर दद्दा जी (डॉ. वर्मा) के घर गये। रोते हुए सारा वृतान्त बताया। द्ददा जी ने चाचा जी को बहुत सेतर्क-विर्तक से समझाया तथा कहा राधेश्याम चिन्ता मत करो। मैं अरगल से इसे बनवा दूँगा। शर्त यहहै कि एक प्रति मैं लूंगा। रामबाग चौराहे पर अरगल फोटोग्राफर की दुकान थी। उसे बुलाकर डॉ. वर्मा ने दोनों फोटो देकर बनाने को कहा। बनने पर वह इतनी सुन्दर फोटो बनी कि एक फोटो अरगल ने अपनी दुकान पर लगाने की अनुमति दद्दा जी से ली। शेष प्रतियाँ दे दी। उसकी एक प्रति आज भीमेरी धरोहर है।

भाई साहब की बिमारी की अर्वाध में मुझे परिवार एंव पारिवारिक मोह-लगाव आदि का भान हुआ।एक दूसरे के प्रति आदर सम्मान एवं 'दादाजी' की सीख 'सेवाभाव' से कार्य करना, यह सब समझगया।तदनुसार मेरे अध्ययन एवं घरेलू जीवन का क्रम चलने लगा। गृह सेवा एवं खेल कूद के क्रम में पढ़नेका समय तो शयन से पूर्व घन्टा आधा घन्टा ही चलता। प्रातः स्कूल जाकर वहां से दद्दा (डॉ. वर्मा) केघर होते हुए घर आकर बस्ता फेकता और डीपार्क में खेलने में रत हो जाता। खेल के बाद श्री पी.सी. जैन की छत पर बाल मण्डली जमती , उधम मचाती। हमारी बाल मंडली के सदस्यों में जैन साहब कापुत्र अरविन्द, पुत्री मंजू मैं एवं मेरा नामाराशि 'प्रकाश' जो एक रेलवे गार्ड का पुत्र था। हमारी उधमचौकड़ी में कभी-कभी जैन साहब भी अपने छोटे पुत्र को गोद में लेकर शामिल हो जाते थे। बड़े हीसरल एवं हसमुख व्यक्तित्व के धनी लगते।

अतः इस क्रम से ही मेरी हाईस्कूल से एम.ए. तक की शिक्षा चलती रही। कक्षा में अध्यापक सेलगायत प्रोफेसर तक के मुखारविन्द से जो भी शब्द वाक्य निःसृत होते थे, मैं उसे द्रुतगति लिखताजाता था। यही हमारी अध्ययन सामग्री होती, जिसे संभाल कर रखता था और परीक्षाकाल में एकबार दोबारा या तीन बार पढ़ता था। परीक्षा दे देता था और मध्यम श्रेणी से पास होता रहा।

स्नातक स्तर के अध्ययन हिन्दी विभाग के डॉ. रघुवंश का धीर-गम्भीर मुखाकृति, डॉ. जगदीश गुप्तकी काया , अंग्रेजी विभाग के डॉ. जयकान्त मिश्र का स्थूलाकार धारा प्रवाह लेक्चर, डॉ. वी.डी.यन. साही का दर्शन मिश्रित कवि व्यक्तित्व एवं स्कंध गुप्त के शुष्क ज्ञानारोपण प्राण सुखा देते थे। इसभीषण रेगिस्तान में हिन्दी के प्रो. उमाशंकर शुक्ल एवं आंग्ल भाषा के प्रो. यस. शिवरामन नखलिस्तानसे थे। साहित्य के 'बिहारी' एवं नंददास पढ़ाते थे। उनके पढ़ाने में सत्-चित आन्नद की अनुभूति होतीथी। प्रो. शिवरामन दुबले-पतले एवं लम्बी कायाधारी थे। कायानुसार ही लहराकर चलते थे।शेक्सपीयर एवं गाल्सवर्दी का ड्रामा पूरे ड्रमाई अन्दाज में पढ़ाते थे। बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षानिकट आ रही थी। अंग्रेजी में कैसे बेड़ा पार होगा? यह यक्ष प्रश्न सामने था। इसका समाधान प्रो. शिवरामन ने ही दिया। बोले चिन्ता मत किया करो। तुम लोग जानते ही कितना हो और पढ़ याद भीकितना कर पाओगे। हर प्रश्न के उत्तर में जितना जानते सब लिखते जाओ, हर पैरा के अन्त में चिपकादेना This shows (वह गुण धर्म जो उस प्रश्न में पूछा गया हो।)

भविष्य की हर परीक्षा के प्रश्नों के उत्तर में हमारे लिए यह मूल मंत्र हो गया, और मैं अपनी मध्यमश्रेणी बरकरार रखते हुए पास होता गया। उधर एक महत्वपूर्ण एंव घटना और भी हमारे पारिवारिक जीवन की 16 जुलाई की है। हमारी लाड़लीबहन एक पुत्री की मां बनने का सौभाग्य पा चुकी थी। पर हमारे पूरे परिवार पुत्र रत्न की अभिलाषाअधूरी पड़ी थी। भाई मुरलीधर शर्मा की पत्नी , हमारी भाभी भी तीन पुत्रियों की माँ बन चुकी थी। परहमार परिवार पुत्र रत्न की लालसा पाले प्रतीक्षा कर रहा था। जुलाई 1962 में मैं बी.ए. द्वितीय वर्षका छात्र था। एक दिन हमारी बहन जी को प्रसव हेतु कमला नेहरू अस्पताल में भर्ती कराया गयाथा। मैं ही सुबह शाम नाश्ता, भोजन पहुंचाने एवं अन्य सेवा कार्य करता था। बहन जी ऊपरी तल परथीं। नीचे से ही भोजनादि आया को देना पड़ता था 17 जुलाई , 1962 को सुबह भोजन लेकर पहुंचाऔर आया को दिया तब वह बोली लड़का हुआ है 'मामा जी'। सुनते ही मारे खुशी के बावला साहोकर पीछे मुड़ते हुए दौड़ लगा दी। एक दो लोगों का टिफिन मेरे धक्के से गिर भी गया। पर बिनारूके दौड़ते हुए घर पहुंचकर मैंने यह सूचना दी ।


अर्थशास्त्र तो यूँ भी सूखा-सण्ट विषय था

वह मेरी अविस्मरणीय खुशी रही। बाद में हमारे सारे भाइयों को समयानुसार लड़के हुए, खुशी और बहुत-बहुत खुशी हुई। पर वो खुशी कुछ और ही रही। सदा हृदय पटल पर अंकित रही और है। बच्चे को बबलू व गुड्ड नाम दिया गया। स्कूल में वह योगेश चंद्र मिश्र हुआ।

अर्थशास्त्र तो यूँ भी सूखा-सण्ट विषय था। सो पास होना हो काफी रहा। हाँ एम.ए. में बचपन वाले श्री.पी.सी. जैन मिले जिन्होंने आसमान से सीधे जमीन पर पटक दिया। अर्थशास्त्र का सिद्धान्त बड़ी ही द्रुतगति से पढ़ाते, बीच में रूककर प्रश्नपूछते। फिर उसी गति से कहते-यही समझा तो इस पेपर में 'अन्डा' पाओगे 'अन्डा'। और आगे शुरूहो जाने थे। प्रो. जे.के. मेहता भी सिद्धांत ही पढ़ाते । पहले गीता का गुटका भेंट देते। फिर Theory of wantlessness पर व्याख्यान देते थे। मूलमंत्र यही देते थे कि अपनी अवश्यकता जरूरतें कम हीरखो। रटने के विरोधी थे। सब कुछ समझने पर जो देते थे।

प्रयाग में ही उचित समय आया। अवसर मिला। रिश्ते-नाते, आगन्तुकों का सेवा-सत्कार आवभगतआदि सीखा अनेकानेक प्रकार के अनुभव हुए। परिवार के हर सदस्य का स्वभाव गुणावगुण को देखापरखा।

कभी कभी छुट्टी के दिन चाचा जी के हत्थे चढ़ जाता था

बचपन तो ननिहाल एवं अपने गांव के बीच झूलते बीता। फिर पढ़ने प्रयाग आ गए। पहला अनुभव यही रहा कि चाची जी बड़ा ही स्वादिष्ट भोजन बनाती। मैं खूब जमकर खाता था और सारा दिन स्कूल, दददा जी के घर, अपने घर कटरा बाजार की दौड़ आदि में बीत जाता। बीच में मित्र मंडली केसाथ सांयकाल की धमा चौकड़ी एवं वहां से लौटने पर पीठ पूजा के बाद पेट पूजा करके सो जाता था। कभी कभी छुट्टी के दिन चाचा जी के हत्थे चढ़ जाता था। फिर किताब कॉपी सहित वे दिन में रगड़ते डांटते खूब पढ़ने के लिए कहकर छोड़ देते। पढ़ने में कमी पाकर एक दो थप्पड़ जमा देते।

तत्काल एक दो वे अपने मुंह पर भी लगा लेते थे। मैं रोने लगता था। तब वे ही चुप भी कराते थे। सबशांत होने के बाद हम उनकी आंखों से ओझल हो जाते। अब वे बड़े भाई मुरलीधर एवं जगन्नाथ भाईको पकड़ लेते और पढ़ाई का इसी प्रकार क्रम उनके साथ भी चल पड़ता। थककर सबको छोड़ देतेथे। दोपहर के भोजन के बाद थोड़ा विश्राम करके पुनः सबकी एक साथ पेशी लेते थे। डांट फटकारका क्रम चलता था। एक-एक करके हम लोग उनके कमरे से निकल लेते थे। फिर क्या ऊपर से नीचेतक पीछा करके लगातार डॉट पिलाते रहते थे और हम लोग ऊपरी तल के आंगन से चाची के कमरेसे किचन एवं आंगन का गोल-गोल चक्कर उनकी खड़ाऊँ की ध्वनि पर लगाते रहते। फिर तो रात्रि केभोजन का समय हो जाता और सब कुछ शान्त हो जाता था।

काका (पिता जी) एवं चाचा जी की अनोखी भाई जोड़ी थी। काका मस्त मौला, एवं स्वादिष्ट भोजनएवं अच्छे वस्त्रों के शौकीन थे। वर्नाकुलर क्लास पास करने पर वजीफा मिला। बाबा के हाथ मेंरूपये रख दिये। बाबा ने कहा कुछ कपड़े बनवा लो। तात्पर्य रहा होगा कि कमीज सिला लेना। परपिता जी ने गोला बाजार से कमीज पैंट बनवा लिया। बाबा को घर पर दिखाया । उसे देखने के बादबाबा ने कहा रामजी तुम्हारी पढ़ाई हो गयी। अब कल बनारस चलो। दूसरे दिन बाबा काका कोबनारस ले गये। वहाँ एक कपड़े एंव जेवरात के बड़े व्यापारी थे , जो बाबा जी का बहुत आदर सम्मानकरते थे। उनसे पिता जी को उनके लायक काम पर लगाने को कहा।

पिता जी की हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी। वे लिखते क्या थे, मानो मोती टांकते थे। अतः उन व्यापारीमहोदय ने काका को 'मुड़िया' 'बही खाता' की लिपि सिखाया और उन्हें अपने संस्थान में 'मुनीम' कीनौकरी दे दी। इस प्रकार वे बाबा जी के कमाऊ पूत बन गये।

यह वृतान्त चाचा जी ने किसी खास सन्दर्भ में अपने खास प्रताप नारायन मिश्र वाले अंदाज में हमतीनों भाईयों को बिठाकर सुनाया था। बाद में पूछने पर काका (पिता जी) ने अनुमोदित किया था।चाचा जी पढ़ने लिखने के ही शौकीन कहिये या कुशाग्र विद्यार्थी थे। अपने बचपन का एक किस्साबताया था कि एक बार उनके सिर पर प्यार से हाथ फिराते हुए बाबा ने कहा, 'बाबू बरवा बहुत बढिगइल बा, जा कटवा व।' नाई जब घर आया तब चाचा जी उसके आगे बैठ गये और कहा 'चाचाहमार बरवा भुर्रा काटि द' और एकमद खूँटीदार बाल कटा लिया। देखने पर बाबा ने कहा 'मरदवाछोट करावे के कहले रहली।' चाचा ने कहा नहइले पर सुखले-झरले में बड़ा झंझट होला''।

शायद इसी स्वभाव एवं परिश्रम के फलस्वरूप चाचा निर्वाध गति से एम.ए. तक की उपाधिधारी हो गये। एम.ए. की परीक्षा देने के तुरन्त बाद ही स्नातक डिग्री के आधार महालेखाकार कार्यालय इलाहाबाद में एकाउंटेंट पद पर केन्द्रीय राजकीय सेवा में पद स्थापित हो गये। उनकी पदस्थापना GAD ( Gazetted Audit Depptt) में हुयी। वहाँ कार्य करते हुए तमाम बड़े अधिकारियों के सम्पर्कमें वे आये। उनके सम्पर्क सूत्र बढ़ते -बढ़ते शिक्षा एवं प्रशासनिक विभाग के अधिकारियों से घनिष्ठसम्बन्ध बन गये। उनके सम्पर्क का दायरा बड़ा एवं घनिष्ट होता गया।

इन सम्पर्क सूत्रों का लाभ हमारे ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को भी बहुत हुआ। उस समय बर्नाकुलर यानीदर्जा 8 की परीक्षा देते देते लोगों का धैर्य जवाब दे जाता था। उस समय गांव-गांव प्राइमरी पाठशाला, रात्रिकालीन प्रौढ़ शिक्षा पाठशाला एवं निसवा (महिला) स्कूल खुल रहे थे।

चाचा जी ने पिता जी को बनारस की नौकरी छोड़ने को कहा और प्राइमरी स्कूल में सहायकअध्यापक की नियुक्ति हेतु आदेश जारी कराया एवं गांव के नजदीक ही खुले प्राइमरी पाठशालापदभार ग्रहण कराया । जहां वे सेवानिवृत्ति तक कार्यरत रहे।

हमारी बुआ के लड़के ' राजबली तिवारी' को राजकीय नार्मल ट्रेनिंग स्कूल, सुल्तानपुर में सहायकअध्यापक पद नियुक्त कराने में सफल हुए। वे भी सेवा प्रारम्भ से सेवा निवृत्त तक सुल्तानपुर में हीकार्यरत रहे। कुछ काल के लिए रायबरेली के 'फुरसतगंज' विद्यालय में कार्य करके पुनः सुल्तानपुरमें पदस्थापित हो गये।

इसके बाद तो नौकरी के इच्छुक तत्कालीन नौजवानों की लाइन ही लग गई। लगभग हमारे क्षेत्र केज्यादातर शिक्षित युवा कहीं न कहीं नौकरी में लग गए। चाचा जी 'नौकरी' वाले साहब के रूपमेंप्रसिद्ध हो गये।

यद्यपि मेरा तो बचपन ही था पर चाचा जी के घनिष्ठ एंव महत्वपूर्ण सम्पर्कों का ही प्रतिफल था जोहमने अपनी लाडली बहन की शादी में हाथी,घोड़ा एवं गाड़ियों की भीड़ भाड़ पचास दशक में नितान्तठेठ गांव में बिजली की चमक-दमक औरा भूतों न भविष्यत सा समारोह देखा था। इस ठाट-बाट काकारण तो प्रयाग के आवास में नित जुड़ने वाले अधिकारियों को देख-देखकर बाद में पता चला एंवअनुभव हुआ।

जगन्नाथ भाई की शादी हेतु बिहार 'दरभंगा' के सासा मूसा गाँव निवासी जगन्नाथ शर्मा ओवर सियर आये। पिता जी ने वरिच्छा कबूल किया चाचा जी को सूचित कर दिया। समायनुसार विवाह सम्पन्नहुआ।बुआ के लड़के राजबली भाई के बीमार पुत्र को देखने चाचा जी सुल्तानपुर गये। उन दिनों यानी सन्1963 की सूचना प्रेषण की व्यवस्थानुसार जब तक चाचा जी सुल्तानपुर पहुंचे तब तक बालक ठीकहो चुका था। अब मामा-भांजे दोनों पिकनिक के मूड में आ गये। जाड़े के दिन थे। गन्ने का रस पीने, ताजा मटर की घुघुरी खाने पण्डित सरजू प्रसाद शर्मा निवासी ग्राम लम्भुआ के यहां चले गये। येसज्जन राजबली भाई के पुराने रिश्तेदार थे। वहाँ चाचा जी ने मेरी भावी जीवन संगिनी को देखा जो इन लोगों की आवभगत में लगी।

राधेश्याम मेरी इस पोती की शादी अपने लड़के से करोंगे

चाचा जी ने राजबली भाई से कहा 'राजबली दहेज देने वाले बहुतआ जायेंगे पर ऐसी लड़की शायद ही मिले। प्रकाश की शादी इस लड़की से हो जाये तो बहुत अच्छा होगा। राजबली भाई ने कहा ये तो अभी तय हो जायेगा। इन लोगों के साथ ही पं. पारस नाथ भट्ट जीभी थे। जो शिक्षा विभाग में अधिकारी थे। राजबली भाई उनसे कुछ खुसर-पुसर करने लगे। थोड़ी ही देर बाद भट्ट जी उठे और पं. सरजू'प्रसाद के साथ घूम घूम कर टहलने लगे। अब सब अपनी-अपनीचारपाई पर बैठ गये। पण्डित जी ने चाचा जी से कहा 'राधेश्याम मेरी इस पोती की शादी अपने लड़के से करोंगे? वे सीधे सपाट बोलने वाले व्यक्ति थे।' चाचा जी ने एक शब्द 'हाँ कहा! बस विवाहनिश्चित हो गया। विधि निर्धारित समयानुसार 6 जुलाई , 1964 को हमारा विवाह सम्पन्न हुआ।दोनों भाई पगड़ी बांध रामसजीवन शर्मा पुत्री उषा-संग प्रकाश के वैवाहिक समारोह में प्रमुदित हुए।

काका (पिता जी) एवं चाचा जी, दोनों भाइयों की जोड़ी भी अनोखी थी। 'एक ने कही, दूजे ने मानी, कहे कबीर दोनों ज्ञानी।' यह एक उक्ति इन पर पूर्णत चरितार्थ होती थी।चाचा जी से विरोध करते हुएपिता जी 'हाथी वाले घर' में तय करके सूचित भर कर दिया बिना किसी प्रश्न के चाचा जी ने मानलिया और भगवत कृपा से सब ठाट-बाट से हो गया।

बड़े भाई, मुरलीधर के विवाह की हामी चाचा जी ने भर दी। दोनों भाई ने पूर्ण हर्षोउल्लास से वैवाहिकसमारोह सम्पन्न कर लिया। पूरे जीवन कहा -सुनी सा तो हम लोगों ने कभी न देखा न सुना। हाँ एक बार की एक घटना है। दोपहर का समय था। ओसारे में एक चारपाई पर चाचा जी बैठे थेऔर भी तमाम लोग बैठे हुए थे। पिता जी सकूल से आये। स्नान के बाद राम नाम जपते हुए कहाचलो खाना खा लो। चाचा जी ने कहा ''आप खा लिजिए। मैं स्नान करके खाना खा लूँगा। मौनहोकर पिता जी अन्दर गये, खाना खाया। बाहर आकर बिना कुछ बोले सायकिल पर कूदी मारते बैठेऔर ये जा वो जा हो गये। शाम को काका स्कूल से लौटे। दोनों भाई मौन ही रहते हुए शर्बत सलोनीबगैरह का सेवन करते रहे। इसी बीच पं. पंचानन जी आ गये। चाचा जी उनका बड़ा आदर करते थे।

प्रणामादि के बाद चाचा जी ने उन्हें कुर्सी /आसन दिया। वे बैठे गये। काका पूर्ववत मौन रहे। पंडितजी ने सम्बोधित किया- रामजी, तत्काल चाचा जी बोल पड़े '' भाई साहब नाराज है।' पण्डित जी नेकहा 'रामजी देखो राधेश्याम तुम्हारी द्वार की शोभा है। गर्मी के दिन थे। पिता जी कपड़े बदलने अन्दरघर में गये थे। वहीं पता चला कि उनके स्कूल जाने के बाद लोग आते रहे और चाचा जी खाना नहींखा सके।' बस क्या था? गर्मी एकदम मस्तिष्क में जा घुसी। सप्रयास मौन धारण किये रहे परन्तुपण्डित जी के वचन सुनकर फूट पड़े' मैं कल सुबह ही इस शोभा को देखता हूँ। कैसे यह बिना खायेपिये दिन भर दरबार लगता है। दरवाजा गन्दा ही छोड़कर स्कूल चला जाऊँगा। तब ये क्या करेगा। मैंभी देखूँगा। चाचा जी धीरे से बोले ' साफ कर दूँगा।


पण्डित जी फूल की रक्षा कांटा ही करता है

इसी बीच पण्डित जी पुनः बोल पड़े 'रामजी' राधेश्याम इस घर के फूल हैं, तुम कांटा हो।' इस उक्तिस्वर एवं भाव को कुछ समझते हुए चाचा जी ने कहा 'पण्डित जी फूल की रक्षा कांटा ही करता है, और कोई नहीं, और हाथ जोड़ कर' 'प्रणाम' कहते हुए उठ खड़े हुए। अब पण्डित जी के पास विदाहोने के अतिरिक्त कोई और चारा नहीं था।

फिर दोनों भाई गले लग रोने लगे। मैं प्रत्यक्षदर्शी होते हुए भी, पूरे घटनाक्रम का कुछ भी समझ नहींपाया। इसका मर्म कुछ और बड़ा होने पर हम चारों भाइयों के एक दूसरे के प्रति किए एवं हुए व्यवहारों सेही धीरे-धीरे समझ आया। दोनों भाइयो के बीच एक विरोध सतत् जीवन भर चलता रहा। पिता जीचाचा को पत्र पोस्ट कार्ड पर ही लिखते थे। चाचा जी अपने हर पत्रोत्तर में नाराजगी जाहिर करते थे।पिता जी जीवन में किसी बात को गोपनीय समझते ही नहीं थे। चाचा जी शहरी रहवास वश इसेअनुचित मानते थे।

धीरे धीरे सब लोग जा रहे हैं। भाई साहब मुरलीधर शर्मा, जगन्नाथ प्रसाद शर्मा , भाई दिनेश चंद्र शर्माव बहन उमा मिश्रा सब अनंत यात्रा पर निकल गये। इससे पहले की समूची पीढ़ी पहले ही जा चुकीहै। बाद की पीढ़ी में भी कुछ बच्चे चले गये। जाती हुई पीढ़ियों के लोगों के अतीत को वर्तमान बनायेरखने के लिए अतीत को कुरेदकर रखना पड़ा है।



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Shashi kant gautam

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