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मुक्त तिब्बत ही भारत का ध्येय हो!

चीन की सरकार का मकसद साफ है कि बुद्ध के इस पवित्रतम केन्द्र में अनीश्वरवाद अब पनपायें। यूं चीन ऐलान भी कर चुका है कि 15वें दलाई लामा को कम्युनिस्ट चीन ही नामित करेगा, चयन की पारम्परिक विधि खत्म होगी।

K Vikram Rao
Written By K Vikram RaoPublished By Shashi kant gautam
Published on: 17 Jun 2021 9:06 PM IST
Free Tibet should be Indias goal
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मुक्त तिब्बत ही भारत का ध्येय हो: फोटो- सोशल मीडिया  

Independence of Tibet: तिब्बत के पुनीत बौद्धआस्था केन्द्र जोरबांग मठ के मुख्य उपासक लामा ल्हाकपा ने विदेशी संवाददाताओं की एक टीम से ल्हासा में वार्ता (15 जून 2021) के दौरान बताया कि ''धर्म गुरु दलाई लामा अब मान्य धर्मगुरु नहीं रहे।'' इस पर अमेरिकी संवाद समिति एसोसियेटेड प्रेस (एपी) के संवाददाता ने पूछा : '' तो फिर कौन गुरु तिब्बत में मान्य है?'' वह मठाधीश बोला, ''शी जिनपिंग।'' अर्थात कम्युनिस्ट चीन के जीवन—पर्यन्त नामित राष्ट्रपति जो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सवा नौ करोड़ सदस्यों (भाजपा से कम) के अधिनायक हैं। गत दिनों में पश्चिम संवाद समितियों के प्रतिनिधियों के एक दल को तिब्बत का ''विकास'' दर्शाने ल्हासा ले जाया गया था।

चीन की सरकार का मकसद साफ है कि बुद्ध के इस पवित्रतम केन्द्र में अनीश्वरवाद अब पनपायें। यूं चीन ऐलान भी कर चुका है कि 15वें दलाई लामा को कम्युनिस्ट चीन ही नामित करेगा, चयन की पारम्परिक विधि खत्म होगी। इन संवाददाताओं के रपट से स्पष्ट हो गया है कि भिन्न नस्ल की जनता को मुख्य सवा अरब आबादी वाले हान जाति में ही समाविष्ट कर लिये जाने के प्रयास तेज हो गये है। अन्य जन जैसे मंगोलिया, मंचू, हुयी, झुआंग को शामिल करने का अभियान भी चल ही रहा है।

मगर घोर कठिनाई हो रही इन कम्युनिस्ट तानाशाहों के लिए इस्लामी उइगर मुसलमानों का खत्म कर देने में। झिनशियांग प्रांत के इन पूर्वी तुर्की मुसलमानों का दमन वीभत्स है। ताजा खबरों के अनुसार इन सुन्नी उइगर मुस्लिमों के मस्जिद बंद कर दिये गये थे। नमाज निषिद्ध है। घेंटे का गोश्त अकीदतमंदों को जबरन खिलाया जा रहा है। प्रशिक्षिण शिविर में कैद कर उन्हें नास्तिक बनाया जा रहा है। अर्थात अल्लाह, खुदा आदि के अस्तित्व को ही नकारा जा रहा है। यह सब इस्लामी पाकिस्तान की जानकारी में हो रहा है। कराची से उइगर की राजधानी तक सीधी बस सेवा भी चालू हो गयी है। संयुक्त राष्ट्र संघ कई बार उइगर मुसलमानों के अत्याचार पर चर्चा कर चुका है आश्चर्य तो इस बात का है कि म्यांमार के रोहिंग्या के लिये लहू के आंसू बहाने वाले भारत की इस्लामी तंजीमें, जमातें, अंजुमनें साजिशभरी खामोशी बनाये हुये हैं। आजतक एक भी विरोध प्रदर्शन उनके द्वारा दिल्ली की चाणक्यपुरी—स्थित शांतिपथ पर निर्मित चीनी दूतावास पर हुआ ही नहीं।

उइगर मुसलमानों के प्रति भारत सरकार का रवैया काफी ढुलमुल

उइगर मुसलमानों के प्रति भारत सरकार का रवैया काफी ढुलमुल और अवसरवादी रहा। विपक्ष में रहे थे तो अटल बिहारी वाजपेयी तब चीन के प्रखर आलोचक थे। मगर प्रधानमंत्री बनते ही उनकी नजर बदल गई। इन उइगर लोगों को कांग्रेसी प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव याद रहेंगे। उन्होंने अफगानी तालिबानियों के विरुद्ध उत्तरी सैनिक गठबंधन का साथ दिया था जिसमें उज्बेकी, ताजिक तथा हाजरा मुसलमान थे। इन सबका रिश्ता और समर्थन उइगर स्वाधीनता संघर्ष के साथ रहा है। उइगर मुसलमान उदार सूफी चिंतन से प्रभावित हैं।

उनकी स्वाधीनता, विकास तथा समरसता वाली आकांक्षा को आतंकवाद कहना तथ्यों को विकृत करना होगा। उइगर मुसलमान उजबेकियों के निकट हैं जबकि तालिबानी लोग पश्तून हैं। दोनों शत्रु हैं। एक भी उदाहरण नहीं मिलता जब कोई उइगर मुसलमान किसी फिदायीन हमले का दोषी पाया या हो। चीन ने इन उइगर मुसलमानों पर आतंकवादी का ठप्पा लगा दिया है। पर उसकी दुहरी नजर में जमात-उद-दावा। शांतिप्रिय जमात है। जबकि यह लश्कर का सियासी अंग है और भारत में कई वारदातों को अंजाम दे चुका है। इस वर्ष झिनशियांग की अस्सी लाख जनता चीन के आधिपत्य के छह दशक पूरा करेगी ठीक तिब्बत की भांति। सवा अरब की हान नस्ल के चीनी जन के सामने उइगर मुसलमान तो जीरे के बराबर भी नहीं हैं। लेकिन उनके विरोधी तेवर और स्वर के कारण चीन के हान बहुसंख्यक उन्हें मिटा देना चाहते हैं। बौद्ध तिब्बतियों की भांति।

जनता की आंखें खुली अक्टूबर 1962 में

यहां एक ऐतिहासिक कूटनीतिक तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है। चीनी कम्युनिस्ट गणराज्य में प्रथम भारतीय राजदूत (1952—1954) सरदार कावलम माधवन पाण्णिकर (केरल के) थे। जवाहरलाल नेहरु द्वारा नियुक्त थे। उनके रक्षामंत्री और चीन के मित्र वीके कृष्ण मेनन की राय से नियुक्त प्रथम विदेश सचिव (1948—52) भी केरल के ही केपीएस मेनन थे। उनके पुत्र वहीं नामाराशी केपीएस मेनन (जूनियर) भी चीन में राजदूत थे। शिवशंकर मेनन के वे ताऊ थे। शिवशंकर विदेश सचिव रहे तथा कांग्रेस ​प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी थे।

तात्पर्य यह है कि कम्युनिस्ट चीन से रिश्ते स्थापित करने में एक ही परिवार (मेनन) की महती भूमिका रही। यह परिवार जो ब्रिटिश शासकों का सेवक था। आजादी के बाद नेहरु का भी विश्वासपात्र रहा। नतीजन जब चीन की जनमुक्ति सेना (जो आज लद्दाख पर काबिज हो रही है।) ने बौद्ध तिब्बत पर 1950 में हमला किया था तो ये ही लोग तिब्बत के भारतीय भाग्य विधाता थे। मगर जनता की आंखें खुली अक्टूबर 1962 में जब चीन ने भारत को हराया और पूर्वोत्तर भूभाग कब्जियाया।

गत सप्ताह इतनी गनीमत तो हुयी है कि जी—7 राष्ट्रों के नायकों ने घोषणा की है कि अब वे सब मिलकर इस चीनी विस्तारवाद और आतंक का डटकर मुकाबला करेंगे। कोरोना की भयावहता से ये पश्चिमी देश के नेता समझ गये कि भारत गत पांच वर्षों से उन लोगों की लड़ाई भारत—तिब्बत सीमा पर लड़ रहा है। अत: प्रतीक्षा रहेगी प्रत्येक राष्ट्रवादी को कि तिब्बत की आजादी का संघर्ष ताइवान, हांगकांग, झिनशियांग आदि कम्युनिस्ट उपनिवेशों की स्वाधीनता से जुड़ा हुआ है। सभी लोकतंत्र प्रेमियों को एक जुट होना पड़ेगा।



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Shashi kant gautam

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