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Gandhi Jayanti 2023: स्वराज के जीते-जागते प्रतीक खादी का दम, बे दम
Gandhi Jayanti 2023: 'चरखा' जो कि एक समय में देश की गरीबी और पिछड़ेपन का प्रतीक था, उसे अब आत्मनिर्भरता और अहिंसा का प्रतीक माना जाता है, स्वदेशी और स्वराज का प्रतीक माना जाता है।
Gandhi Jayanti 2023: 'खादी' यह शब्द सुनते या पढ़ते ही सिर्फ एक चित्र हमारी आंखों के आगे सबसे पहले आता है, वह है- महात्मा गांधी का चरखे पर सूत कातते हुए। खादी या खद्दर एक प्रकार का सूती कपड़ा है जो कि प्राकृतिक रूप से तैयार किया जाता है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी अपनाओ के क्रम में खादी का आगमन हुआ। खादी उस समय सूती धागों से बना मात्र एक कपड़े का टुकड़ा नहीं था बल्कि स्वतंत्रता की लड़ाई का एक अहम प्रतीक था, जो कि अर्थ और स्वराज की स्थापना के धर्म का अद्वितीय हथियार था। सन् 1925 में एक स्वायत्त संस्था अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य लोकाचार संरक्षण के लिए खादी के उत्पादन, प्रचार- प्रसार और बिक्री के लिए काम करना था। प्रारंभ में खादी का जब निर्माण हुआ तब लोग इसे खरीदने और पहनने के प्रति अनिच्छुक थे क्योंकि यह कपड़ा मोटा और भारी था। समय के साथ इसकी गुणवत्ता में काफी बदलाव आया और लोग इसे खरीदने लगे। सन् 1956 में अखिल भारतीय खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की स्थापना की गई। 'चरखा' जो कि एक समय में देश की गरीबी और पिछड़ेपन का प्रतीक था, उसे अब आत्मनिर्भरता और अहिंसा का प्रतीक माना जाता है, स्वदेशी और स्वराज का प्रतीक माना जाता है।
खादी के सामने मंडरा रहा अस्तित्व को लेकर संकट
कपास से खादी का कपड़ा बनाने की प्रक्रिया 6 चरणों में पूरी होती है। सबसे पहले कपास के पेड़ के फलों से रुई को निकाला जाता है। फिर इस रुई को देश के अलग-अलग छह केंद्रीय पूनी संयंत्रों में भेज कर पूनी बनाई जाती है। इसके बाद इस पूनी से पारंपरिक चरखों या अब नए प्रचलित मॉडल चरखों की मदद से सूत यानी धागे को बनाया जाता है। धागे के इन बंच को कारीगर कांडी कहते हैं। इस कांडी से बारीक धागे को तैयार किया जाता है। दोबारा चरखे की मदद से कांडी से गुंडी को बनाया जाता है। फिर इस गुंडी को ताना और बाना में रखकर बुनाई करके कपड़ा तैयार किया जाता है। धुलाई और रंगाई के बाद इस पर बुनकर अलग-अलग डिजाइन भी उकेरता है। अब यह कपड़ा बिकने को तैयार हो जाता है। एक समय में स्वराज का प्रतीक खादी क्या अब कुछ गिनी-चुनी तारीखों को पहनने वाला कपड़ा रह गया है? 2 अक्टूबर (गांधी जयंती), 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस), 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) अब खादी के लिए यादशुमारी और बड़े-बड़े वायदों वाले दिन बनकर रह गए हैं। खादी के सामने आज अस्तित्व को लेकर संकट मंडरा रहा है, खरीदार नहीं है। क्योंकि नई पीढ़ी पॉलिस्टर निर्मित कपड़े पसंद करती है, जिनको जैसे चाहे प्रयोग करो और कम दाम का होने के कारण संख्या में भी खरीद सको, ऐसा गुवाहाटी में खादी उद्योग चला रहे दीपक का मानना है। कई बड़े शहरों में गांधी आश्रम या खादी भंडार वैकल्पिक सामग्रियों के साथ चलाएं जा रहे हैं या उन्हें बंद कर दिया गया है।
इसलिए अधिक होती है लागत
जयपुर में खादी भंडार चलने वाले किशन सिंह की राय इसके विपरीत है। वह कहते हैं कि खाड का प्रयोग पहले से बड़ा है। उनका कहना है कि पॉलिस्टर के कपड़े गांव में अधिक चलते हैं जबकि बड़े शहरों में खादी को पहनने वाला अपना एक बड़ा वर्ग है, जो कि उसे ही पहनना पसंद करता है अगर वह उसकी बजट में आ रहा है तो। अगर कहीं खादी की बिक्री नहीं होती है तो उस स्टोर को बंद ही कर किया जाएगा, बगैर लाभ के तो उद्योग को नहीं चलाया जा सकता है। अब खादी भी विभिन्न प्रकारों में उपलब्ध है। अभी गांधी जयंती से लेकर गणतंत्र दिवस तक खादी और ग्रामोद्योग की वस्तुओं पर सेल चलती है, जिसमें खादी पहनने वाले अधिक खरीदारी करते हैं। वनस्थली विद्यापीठ जैसे संस्थान और एयर इंडिया कर्मचारियों के लिए खादी पहनना अनिवार्य है। इलेक्ट्रॉनिक चरखों के प्रयोग से खादी को पहले के मुकाबले अधिक बेहतर और फिनिशिंग वाला बना दिया गया है। खादी की बुनाई- कताई अधिक समय लेती है, इसी कारण इसके बनाने की लागत भी अधिक आती है। लागत अधिक होने के कारण इसका विक्रय मूल्य भी अधिक होता है।
मुंबई के हिमांशु रुपाणी जो कि खादी स्टोर चलाते हैं, के अनुसार सरकारें भी अब खादी को प्रोत्साहन दे रही हैं, इसलिए इसकी बिक्री भी अच्छी हो जाती है। युवा वर्ग खादी बहुत ही कम खरीदते हैं। अब हम युवा वर्ग को खादी पहनने के लिए आकर्षित करने के लिए इनमें नए-नए प्रयोग कर रहे हैं, नई डिजाइन ला रहे हैं और उनकी रुचि और आवश्यकता के अनुसार कुर्ते, शर्ट और टॉप्स बना रहे हैं। अभी नवरात्रों के लिए भी हम डिजाइनदार और रंगीन कपड़े बना रहे हैं जिससे युवा उन्हें पहनने के प्रति आकृष्ट हों। समय के अनुसार इसमें भी बदलाव की आवश्यकता है। सरकार स्वच्छ भारत अभियान और अपने अन्य आयोजनों के दौरान खादी और हथकरघा से निर्मित कपड़ों को पहनने के लिए बढ़ावा दे रही है। राजनीतिक गलियारों के साथ-साथ फिल्म उद्योग के बड़े-बड़े कलाकार भी खादी को पहनते हैं और प्रोत्साहित करते हैं। इसके साथ ग्रामोद्योग में बनी साबुन, अगरबत्ती, शैंपू, फेसवॉश, अचार आदि कई सारे उत्पादों का प्रयोग भी इन दिनों में काफी बड़ा है क्योंकि लोग अपनी त्वचा और खान-पान को लेकर पहले के मुकाबले अधिक जागरूक हो गए हैं । इसलिए वे इन आर्गेनिक उत्पादों को खरीदना पसंद करते हैं। महाराष्ट्र के छोटे शहरों और गांव के लोग बल्कि खादी को अधिक पहनते हैं, ऐसा उनका कहना था।
पीएम मोदी से बढ़ी खादी की लोकप्रियता
महंगा होने और रख-रखाव का खर्च अधिक होने के कारण इसको खरीदना और पहनना सामान्य जन के बस की बात नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वयं खादी से निर्मित कपड़ों को पहनने के कारण इसकी लोकप्रियता भी पहले से अधिक बड़ी है, अन्यथा पहले यह सिर्फ राजनीतिज्ञों की ही पोशाक का भाग थी। इसके लिए कच्चा माल आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल से आता है। पश्चिम बंगाल से आने वाली कच्चा माल अधिक अच्छा होता है। मूल खादी का कपड़ा चुभने वाला तथा मोटा होता था पर अब न्यू मॉडल चरखे या एनएमसी द्वारा बनाए गए कपड़े मुलायम होते हैं। अब खादी से बनी साड़ियों का प्रचलन पहले से कम हो गया है जबकि खादी के फैब्रिक और सिले -सिलाए वस्त्रों की मांग पूर्ववत बनी हुई है। आज बदलते वक्त में खादी के प्रति पहले की जैसे वाला समर्पण भाव नहीं रहा है। पहले जब खादी आश्रम में मैं स्वयं जाया करती थी वहां ग्राहक को सामान दिखाने वाले कार्यकर्ता स्वयं पूरी तरह से खादी वस्त्रों में और उसी तरह के आचरण में दिखाई देते थे और रसीद भी पूरी तरह से हिंदी भाषा में मिला करती थी। पर अब समयानुसार खादी की दशा और दिशा दोनों ही बदल चुकी है। अब ग्राहकों को सामान दिखने वाले सेल्स पर्सन तो है पर उनमें खादी के प्रति वो सोच नहीं है।
ऐसा लगता है की खादी और ग्रामोद्योग आयोग इन संस्थाओं को चलाने और इनको बचाने में कोई अधिक दिलचस्पी नहीं रखता है। जो खादी देश के स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत समझी जाती थी वह अब वैश्वीकरण की दौड़ में आधुनिक सज-धज में ब्रांड में तब्दील हो गई है और बजारी संस्कृति का हिस्सा बन गई है। कहने को देश में खादी के 7000 केंद्र हैं, पूरे देश भर में जिन पर प्रतिवर्ष 1000 करोड रुपए की बिक्री होती है। लेकिन युवा पीढ़ी को खादी पहनने की तरफ आकर्षित करने के लिए तमाम प्रयास ईमानदारी से नहीं किया जा रहे हैं। आवश्यकता है की खादी की गुणवत्ता को बढ़ाने के साथ-साथ इसको जीरो डिफेक्ट वाला बनाया जाए। इसके लिए फैशन डिजाइनरों द्वारा इसको पारंपरिक डिजाइनों के साथ-साथ ट्रेंडी भी बनाया जाना चाहिए। निजी कंपनियों की भी भागीदारी इसमें बढ़ाई जानी चाहिए। ई-कॉमर्स प्लेटफार्म के जरिए इसकी बिक्री बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए। बिक्री बढ़ाने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जाए कि कत्तिनों और बुनकरों को भी उनके श्रम का पूरा लाभ मिले। लोगों को बताया जाए कि इसके कताई चरखें अधिक लोगों को रोजगार भी देंगे और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचाएंगे।
एक रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2017-18 में खादी का उत्पादन जहां 1626.66 करोड़ रुपए था तथा बिक्री 2510.2 1 करोड़ की हुई, वहीं सन् 2021-22 में यह उत्पादन बढ़कर 2617.56 करोड़ का तथा बिक्री 4632 करोड़ की थी तथा 50 लाख लोगों को इससे रोजगार प्राप्त है। ये आंकड़े बताते हैं कि खादी के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। आवश्यकता है विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन की और उत्पादन तथा बिक्री बढ़ाने पर जोर देने की। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग को प्रतिस्पर्धी बनने की जगह अपनी पूर्ण एकजुटता के साथ खादी को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करने होंगे। खादी सिर्फ एक परिधान नहीं है बल्कि देश की आत्मनिर्भरता, राष्ट्रीय एकता, अर्थव्यवस्था और गौरव का भी जीता -जाता प्रतीक है। गांव की आत्मनिर्भरता और लोकल फॉर वोकल का भी एक बड़ा उदाहरण है। अतः इसे बचाना और बढ़ाना देश के की सरकारों के साथ-साथ देश के नागरिकों की भी बड़ी जिम्मेदारी है।
( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)