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Ganga River: 'नदीषु गंगा श्रेष्ठा' कैसे होगा संभव

Ganga River: जिन शहरों की पहचान नदियों में श्रेष्ठ गंगा के होने से थी, वहां पर वह शहर को छोड़ती जा रही है, उसकी विशालता सिमटती जा रही है, क्या देश की पवित्रतम नदी गंगा समाप्त होने की ओर है?

Anshu Sarda Anvi
Published on: 26 Jun 2024 5:54 PM IST (Updated on: 26 Jun 2024 6:26 PM IST)
Ganga River
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Ganga River

Ganga River: 'भागीरथि सुखदायिनी मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः । नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयी मामज्ञानम् ॥

यह श्लोक पढ़ते ही याद आ जाती है मां गंगा, वह नदी जो सुरसरि कही जाती है यानी देवों की नदी। वह अगर खुद ही त्राहि त्राहि कर उठे खुद को बचाने के लिए तो यह एक अलार्म है जाग जाने का। जिस पतितपावनी गंगा को हम मोक्षदायनी, पवित्रतम मानकर पूजते हैं वह गंगा खुद ही मुश्किलों में है। बीते दिनों गंगा दशहरा पर लाखों श्रद्धालुओं ने गंगा में स्नान कर मोक्ष की कामना की, ऐसे में भी गंगा की याद आ जाना स्वाभाविक ही है। 4-5 साल की उम्र में पहली बार गढ़ गंगा के दर्शन किए थे। विशाल कल -कल बहती स्वच्छ गंगा..... गढ़मुक्तेश्वर, गजरौला के बीच।

उसके बाद कई बार प्रयागराज, हरिद्वार, ऋषिकेश, गढ़मुक्तेश्वर, पटना आदि कई स्थानों पर 'नदीषु गंगा श्रेष्ठा' यानी नदियों में श्रेष्ठ गंगा के दर्शनों का मौका मिला, पर हर बार उसे देखकर मिलने वाली पवित्रता का अनुभव क्षीण होता चला गया।वाराणसी में तो गंगा इस कदर सूख चुकी है कि नावों का चलना भी दुश्वार हो चुका है। वाराणसी जैसे शहर में गंगा का पानी घाटों से दूर जा चुका है और पटना में भी यही स्थिति है। जिन शहरों की पहचान नदियों में श्रेष्ठ गंगा के होने से थी, वहां पर वह शहर को छोड़ती जा रही है, वह सिकुड़ती जा रही है, उसकी विशालता सिमटती जा रही है।


क्या देश की पवित्रतम नदी गंगा समाप्त होने की ओर है? संपूर्ण मानव जीवन के इतिहास में शुरू से ही नदियों का अत्यधिक महत्त्व रहा है। नदियों का जल मूल प्राकृतिक संसाधन है और मानव जीवन के लिये बेहद आवश्यक है।चारों ओर सूखी रेत, गंदगी का जमाव, जल प्रवाह में कमी, विकास के नाम पर होता हस्तक्षेप, औद्योगिक कचरे का निष्कासन, गंदे पानी का निकास आदि मां गंगा के लिए बुरे संकेतों की एक बड़ी लंबी लिस्ट है। किसी-किसी स्थान पर पानी इतना कम हो चुका है कि यह नदी पैदल ही पार कर ली जा रही है।


कहीं-कहीं पर गंगा की गहराई अब 10 फीट भी नहीं रही है, जबकि मछलियों और डॉल्फिनों को गंगा में रहने के लिए कम से कम 12 से 18 फीट पानी की आवश्यकता होती है। किसी भी नदी में डॉल्फिन उस नदी की स्वच्छता का प्रतीक होती है और यह अब गंगा नदी में कम होती जा रही है। पर क्या वास्तव में हम चिंतित है उस गंगा को बचाने के लिए, जिसके आचमन मात्र से हम स्वयं को शुद्ध मान लेते हैं। शुद्धता का यह विचार तभी वाकई शुद्ध हो पाएगा जब हम गंगा की स्वच्छता और उसको बचाने के लिए वाकई जागरूक होंगे। चिंता करना, उसके बारे में बातें करना, उस पर तमाम सरकारी परियोजनाएं बनाना अलग बात है और ईमानदार प्रयास अलग बात होते हैं।


भारत में गंगा समेत अन्य नदियों को प्रदूषण से मुक्त बनाने के लिये राष्ट्रीय नदी संरक्षण और रिवर फ्रंट डेवलपमेंट जैसी योजनाएँ चलाई जा रही हैं। गंगा नदी बेसिन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से देश की 53 करोड़ से भी अधिक आबादी को प्रभावित करता है। इसलिए विभिन्न सरकारों द्वारा गंगा को स्वच्छ बनाने के लिये गंगा एक्शन प्लान, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन, नमामि गंगे जैसी कई परियोजनाएँ शुरू की हैं। सन् 1985 में 'राष्ट्रीय गंगा बेसिन परियोजना' के तहत 'मिशन क्लीन गंगा' शुरू की गयी थी। उसके बाद अब जबकि 'नमामि गंगे' जैसी परियोजनाओं को चालू हुए 10 वर्ष पूरे हो चुके हैं तो तमाम देशवासियों को यह जानने का अधिकार है कि ऐसी परियोजनाओं का परिणाम क्या है? इस तरह की परियोजनाएं जितने दिखावे और शोर के साथ शुरू होती हैं, उनका क्रियान्वयन न तो उतना आसान होता है और न ही उतनी गति पकड़ पाता है।


देश के प्रतिष्ठित पर्यावरणविद् जीडी अग्रवाल जिन्हें देश स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद के नाम से जानता था, ने अपना सारा जीवन गंगा को बचाने के लिए ही समर्पित कर दिया। इनके नाम की बात किए बगैर गंगा की बात करना अधूरी रहेगी। सन् 2008 से 2012 तक चारों राज्यों में गंगा को बचाने के लिए उन्होंने अनेक अनशन किए और अंत में अपने 112 दिन लंबे चले अविरत अनशन के बाद उनकी मृत्यु हो गई। गंगा के गंगत्व को बनाये रखने के लिए वह भागीरथी, अलकनंदा, मन्दाकिनी, नंदाकिनी, धौलीगंगा और पिंडर पर निर्माणाधीन और प्रस्तावित समस्त बांध परियोजनाओं को निरस्त करने तथा गंगा के उच्चतम बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में खनन तथा वन कटान को प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे थे।


गंगा या अन्य नदियों के किनारे सुंदर घाट बनाकर, सुंदर तरीके से उनकी आरती करने और देखने की व्यवस्था करना एक धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम हो सकता है, जिसका अब अपना व्यवसायिक महत्व भी है पर यह नदियों की स्वच्छता और अविरलता को लेकर कितनी अलख जगा सकेंगी, यह सोचने वाली बात है। गंगा समेत सभी बड़ी नदियों की सहायक नदियों को भी पुनर्जीवित करना होगा और उन्हें भी साफ रखने के महत्व को समझना होगा। रिपोर्ट की मानें तो पिछले दस सालों में नदी की सफाई के लिए लगभग 40,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाने के बावजूद गंगा के स्वच्छ होने और अविरल बहने वाली बातें अभी दूर की कौड़ी हैं। जिस वाराणसी की गंगा के घाट और वहां मृत्यु होने पर मोक्ष प्राप्ति की बात कही जाती है, उसी वाराणसी में गंगा थकी हुई सी चलती हैं। ऐसे में यमुना नदी की बात करना तो बेइमानी है, जहां हमने छठ पूजा के दौरान व्रतियों को नदी के सफेद फेन वाले दुषित पानी में खड़े देखा था। इन नदियों का अधिकांश हिस्सा स्नान करने लायक भी नहीं है।


नदियां अपने-अपने क्षेत्रों की लोक कथाओं, लोक संस्कृतियों, रचनाओं का प्रेरणा सूत्र होतीं हैं। इन नदियों ने अनेकों दार्शनिकों को भी अपनी ओर आकर्षित किया है। एक नदी में जीवन और मृत्यु का, सृजन और विनाश का चक्र निरंतर चलता रहता है। जब किसी भी नदी को बचाने और संवारने के लिए किसी भी परियोजना को लागू किया जाता है तो नदी के साथ-साथ उसका मानव समाज के साथ संबंधों को समझने की भी कोशिश करना आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित दक्षिण एशिया की प्रमुख नदी घाटियों पर जलवायु परिवर्तन का खतरनाक प्रभाव दिखाई दे रहा है। मानवजनित गतिविधियों और जलवायु पैटर्न में बदलाव होने के कारण उसके आस-पास के इलाकों के लगभग एक अरब लोगों के लिए गंभीर नतीजों की चेतावनी दी गई है। रिपोर्ट बताती है कि तीन नदियों गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र पर, नदी बेसिन प्रबंधन के लिए लचीले नजरिए को अपनाने की तत्काल आवश्यकता है।


नदियों का खत्म होते जाना न केवल खेती योग्य उर्वरा भूमि को खत्म करेगा बल्कि नदी किनारे बसी सभ्यताओं के सांस्कृतिक नुकसानों का भी कारण बनेगा। देश की तमाम नदियों में ऑक्सीजन का स्तर भी खतरनाक रूप से कम हो चला है, जिसके कारण जैव विविधता को बनाए रखना लगभग असंभव हो गया है। अगर इनको बचाना है तो सबसे पहले अपने लक्ष्य को परिभाषित करना होगा, पर्यावरणीय सेवाओं, जैव विविधता, आर्थिक सेवाओं को बनाए रखना होगा। नदियों से हमें मिलने वाली सामाजिक, धार्मिक सेवाओं को भी ध्यान रखना होगा। यह समझना भी आवश्यक है कि हम हमारी आस्थाओं और मान्यताओं के अनुसार शवों को, मूर्तियों व फूलों को नदियों में विशेष रूप से गंगा जैसी धार्मिक महत्व वाली नदियों में विसर्जित करते हैं, जिनसे नदियों का जल प्रदूषित होता है।


हमारे देश में नदियों की ही नहीं वरन झीलों और तालाबों जैसे अन्य जलस्रोतों की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। बढ़ते शहरीकरण, नदी किनारे स्थित उद्योगों के प्रदूषण और अपरिष्कृत कचरे को नदियों में डालने से प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। तेजी से हो रही जनसंख्या वृद्धि ने घरेलू, औद्योगिक और कृषि के क्षेत्र में नदियों के जल की मांग बढ़ा दी है जिसके कारण नदियों से अधिकाधिक जल निकाला जाने लगा है। अब यह तो जानी हुई बात है कि इससे इनका आयतन घटता जाता है और गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में नदियों को बचाना कितना आवश्यक है, यह सभी को जानना होगा। नदियों को स्वच्छ बनाने के लिये सरकार द्वारा भले ही कितने ही कदम उठाए जाएँ, लेकिन अगर हम स्वयं जागरुक नहीं होंगे और अपने स्तर पर उन्हें स्वच्छ रखने में कोई पहल नहीं करेंगे तब तक ये नदियाँ कभी भी पूरी तरह से स्वच्छ नहीं हो पाएँगी। और अगर नदियां मर गईं तो पृथ्वी पर जीवन का निर्वाह करना मुश्किल हो जाएगा।

( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)



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Shalini singh

Shalini singh

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