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क्यों बार बार आ जाते हैं कोर्ट के दायरे में राज्यपाल?

अक्सर यह देखने में आता रहता है कि जिन राज्यों विपक्ष की सरकारें होती हैं वहां पर केंद्र की प्रतिपक्षी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठते रहते हैं। यह सही है कि राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है।

Dharmendra kumar
Published on: 2 May 2019 12:31 PM GMT
क्यों बार बार आ जाते हैं कोर्ट के दायरे में राज्यपाल?
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रामकृष्ण वाजपेयी

लखनऊ: अक्सर यह देखने में आता रहता है कि जिन राज्यों विपक्ष की सरकारें होती हैं वहां पर केंद्र की प्रतिपक्षी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठते रहते हैं। यह सही है कि राज्यपाल केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है, लेकिन क्या उसे एक चुनी हुई सरकार के रोजमर्रा के कार्यों में हस्तक्षेप करना चाहिए या समानांतर व्यवस्था देनी चाहिए। यह सवाल अक्सर न्याय पालिका तक भी पहुंचते रहते हैं। आइए जानते हैं कि प्रशासक को क्या करना चाहिए और क्या नहीं।

ताजा मामला पुडुचेरी का है। इस मामले में मद्रास हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी है कि पुडुचेरी की उपराज्यपाल किरण बेदी दिन प्रतिदिन के कार्यों में हस्तक्षेप करके समानांतर सरकार नहीं चला सकती हैं। जबकि एक निर्वाचित सरकार है तो वह अपने सर्वोच्च सत्ता या जनहित के नाम पर ऐसा नहीं कर सकती हैं।

यह पहला मामला नहीं है इस तरह के तमाम मामले हैं जब राज्यपालों द्वारा शक्तियों का अतिरेक या विस्तार करते हुए चुनी हुई राज्य सरकारों के कामों में अड़ंगा लगाया गया है। दिल्ली भी इससे अछूती नहीं रही है।

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पुडुचेरी मामले में याची ने उपराज्यपाल द्वारा किये जा रहे हस्तक्षेप की नजीर देते हुए कहा था कि सरकारी अधिकारियों को व्हाट्सएप समूहों में रहने के लिए मजबूर करना, वित्तीय मामलों में हस्तक्षेप करना या अधिकारियों के साथ समीक्षा बैठक करना आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। अदालत ने गृह मंत्रालय द्वारा 2017 में प्रशासकों को दी गई शक्तियों को अलग-थलग करते हुए यह व्यवस्था दी।

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सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के संदर्भ में जुलाई 2018 में अपने एक फैसले में कहा था कि केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में उप राज्यपाल को अड़ंगेबाज नहीं होना चाहिए और मंत्रिपरिषद की सलाह के साथ जाना चाहिए। आदेश में यह भी कहा गया था कि चुनी हुई सरकार के सारे निर्णय लागू होंगे सिवाय जमीन, पुलिस और कानून व्यवस्था के। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश दिल्ली सरकार और केंद्र के बीच शीत युद्ध के दौरान आया था। दोनों के बीच इस बात पर जंग थी कि दिल्ली को शासित करने के लिए किसके पास ज्यादा ताकत है।

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इससे पहले का भी एक उदाहरण है जब अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल द्वारा विधान सभा सत्र की तारीखों को आगे बढ़ाने का मामला आया था। उस समय 2016 में एक आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल के विवेकाधिकार का क्षेत्र बहुत सीमित है। सीमित क्षेत्र होने के बाद भी राज्यपाल की कार्रवाई तानाशाहपूर्ण या दिखावटी नहीं होनी चाहिए। इसके पीछे कारण, सद्भावना और उचित सावधानी होनी चाहिए।

इसी तरह 1994 में एसआर बोम्मई वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि एक राज्य सरकार के बहुमत का फैसला सिर्फ विधानसभा के भीतर हो सकता है और यह किसी राज्यपाल की राय पर आधारित नहीं।

Dharmendra kumar

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