गुजरात में कौन जीता है भाई? ...मीडिया का ऐसा करना कतई ठीक नहीं

raghvendra
Published on: 22 Dec 2017 7:06 AM GMT
गुजरात में कौन जीता है भाई? ...मीडिया का ऐसा करना कतई ठीक नहीं
X

हर्ष सिन्हा

हालांकि चुनाव आयोग के आधिकारिक नतीजों के मुताबिक गुजरात विधानसभा के हाल में संपन्न चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जीत हासिल हुई है और अब वह सरकार बनाने की प्रक्रिया में है। आंकड़ों के मुताबिक बहुमत के लिये उसे जितनी सीटों की दरकार थी उससे 7 ज्यादा सीटें उसके पास हैं लिहाजा उसे ‘इधर उधर’ से मदद लेने की जरूरत भी नहीं। इसे ही ‘कंम्फर्टेबल मेजॉरिटी’ कहते हैं।

मगर टीवी के पर्दे पर स्थितियां दूसरी हैं। कुछ ऐसी कि दर्शक श्रोता समुदाय ‘अनकम्फर्टेबल पोजीशन’ में फंसा दिखता है। कुछ पर्दे बता रहे हैं कि भाजपा (सचमुच) जीत गयी है। कुछ पर इसे ‘भाजपा की हार और मोदी की जीत’ बताया जा रहा है। कुछ अन्य इसे ‘दरअसल कांग्रेस की जीत’ बता रहे हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो भाजपा की ‘राजनीतिक विजय मगर नैतिक पराजय’ का नारा बुलंद कर रहे हैं।

ऋग्वेद (1.164.46) कहता है कि - ‘एकं सद्विप्रा : बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिशवानमाहु:’ यानी सत्य एक ही है जिसे ज्ञानी जन भिन्न भिन्न नाम से व्यक्त करते हैं। मगर यहां तो ज्ञानीजन एक ही तथ्य को भिन्न - भिन्न सत्यों के रूप में प्रतिष्ठिïत कर रहे हैं। शायद इसलिये इसे जनसंचार माध्यमों का वह पतनकाल कहा जा रहा है जिसमें लेखक से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिकायें टीकाकारों और भाष्यकारों ने हथिया ली हैं। तथ्य से ज्यादा कथ्य अहम हो गया है। पत्रकारिता के ‘अहो काल’ में फिलहाल से जितनी देर तक चल जाये मगर इतना तय है कि मीडिया की विश्वसनीयता के ताबूत में यह आखिरी कुछ कीलों से कम नहीं है।

वर्ष 2014 के बाद राजनीतिक टीका टिप्पणियों और विमर्श में ‘भक्त’ शब्द का बहुतायात से इस्तेमाल हुआ। इसका इस्तेमाल आमतौर पर उन पत्रकारों, टीकाकारों, समर्थकों और कई बार स्वतंत्र चिंतन करने वालों के लिए भी किया गया जो किसी विमर्श में नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार के किसी फैसले की तारीफ करते थे। हालांकि कुछ ही समय बाद यह साफ होने लगा कि भक्त हर तरफ हैं। मोदी के पक्ष में भी भक्त हैं और मोदी के विरोध में भी हैं। भक्तिभाव दोनों तरफ प्रचण्ड है। आम समर्थक यदि ऐसा व्यवहार करें तो यह नहीं अखरता मीडिया का ऐसा करना कतई ठीक नहीं।

गुजरात चुनावों के साथ हिमालय में भी चुनाव हो रहे थे लेकिन टीवी विमर्शों में दोनों की कवरेज का अनुपात बुरी तरह बिगड़ा नजर आया। लगा जैसे चुनाव केवल गुजरात में हो रहा हो। टीवी के भरोसे भारत की राजनीति समझने की कोशिश कर रहे दर्शकों में अस्सी फीसदी से ज्यादा शायद ये नहीं बता पायेंगे कि हिमाचल प्रदेश के चुनाव में मौजूं मुद्दे क्या-क्या थे। अलबत्ता गुजरात में वह पाटीदार, ओबीसी, दलित, आदिवासी, खाग, जिग्नेश, अल्पेश और हार्दिक सबसे बारे में बखूबी बता देगा। ऐसा इसलिए कि मीडिया ने इस दफा ऐसी ही कारपेट बॉम्बिंग की भी थी।

चुनावों से पहले और चुनावों के दौरान इस चुनाव को देश की राजनीति के लिए सर्वाधिक निर्णायक बताया जाता रहा। यह भी कि यह मोदी के लिए वाटरलू सरीखा भी साबित हो सकता है। चुनाव परिणाम हालांकि भिन्न रहे मगर मीडिया के एक हिस्से की पक्षधरता अभी थकने को तैयार नहीं थी लिहाजा हार के बाद भी ‘भाष्य’ जारी रहे। यह शाब्दिक प्रदूषण भी था और मीडिया की साख को आघात भी। इसमें दो राय नहीं कि भाजपा के लिए यह चुनाव बेहद कठिन साबित हुए। यह भी सही है कि उसके पारंपरिक वोट बैंक और समर्थन भाव में दरारें पड़ी हैं। यह भी सही है कि उसके ‘गुजरात मॉडल’ की इतनी तथ्यपरक खिल्ली पहले कभी नहीं उड़ी। मगर सच यह भी है कि उसने इन सब पर समय रहते प्रभावी ढंग से काबू कर लिया। जिस दौर में ‘एंटी इन्कमबेंसी’ के इतने स्रोत हों वहां २२ साल बाद भी सत्ता में वापसी को भी आप जीत मानने को तैयार नहीं तो यह गलत है।

मीडिया का एक बड़ा हिस्सा राहुल गांधी में अचानक बेहद सम्भावनाशील बदलाव देख रहा है। इसमें शक नहीं कि राहुल ने गुजरात में बहुत मेहनत की। एक के बाद एक सूबे से उखड़ती जा रही पार्टी के पैर जमाने के लिए नेता को यह करना भी होगा। अरसे बाद उन्होंने जनसंवाद की अहमियत समझी है पर इसे स्थायित्व चाहिए। इसके अलावा अभी भी उन्हें अपने लिए ‘करिश्मा’ गढऩे की सख्त जरूरत है। गुजरात में 80 सीटें मेहनत के साथ-साथ हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश की तिगड़ी के योगदान से भी आयी है। 2002 में पार्टी को 51, 2007 में 59 और 2012 में 61 सीटें मिली थीं। तबसे अब तक बढ़ी 20 सीटों में श्रेय के हकदार ढेरों हैं। पाटीदार, आन्दोलन, ऊना की घटना से दु:खी दलित समुदाय की नाराजगी, सौराष्ट्र और सूरत के व्यापारियों में जी.एस.टी. को लेकर व्याप्त गुस्सा और सबसे बढक़र पिछले ३ साल से गुजरात में मोदी और शाह की गैरमौजूदगी। इन सबके बावजूद 20 सीटों की बढ़त क्या सचमुच ‘बदलाव की बयार’ है? और यदि ऐसा है तो यह बयार हिमाचल में क्यों नहीं दिखी?

आने वाले दिनों में मेघालय, नगालैण्ड, त्रिपुरा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव हैं। राहुल और उनकी पार्टी का दुर्भाग्य है कि उनके सलाहकार अभी तक सतही पैंतरों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें जमीनी स्तर पर जूझना होगा। बूथ पर अपनी ताकत भी भाजपा की तरह बढ़ानी होगी। पक्षकार मीडिया आपको सुर्खियों दिला सकती हैं मगर वोट नहीं दिला सकती।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

Next Story