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हज़रत इमाम हुसैन के बलिदान की याद है मोहर्रम

tiwarishalini
Published on: 24 Sept 2017 5:35 PM IST
हज़रत इमाम हुसैन के बलिदान की याद है मोहर्रम
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Syed Anwar Hasan

व्यापक अर्थ में मुहर्रम हज़रत इमाम हुसैन के बलिदान की याद में मनाने के लिए जाना जाता है। विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न प्रकार से मुहर्रम मनाया जाता है। मुहर्रम में जहां एक ओर इमाम हुसैन और उनके अद्वितीय साथियों का सम्पूर्ण परिचय मजलिसों (शोक प्रवचनों) में कराया जाता है।

उनके अतुलनीय साहस की प्रशंसा का उत्साहवर्धक रूप से इस प्रकार वर्णन किया जाता है कि उनके युद्ध कौशल का सजीव चित्रण श्रोताओं के सम्मुख उपस्थित हो जाता है। वहीं, दुश्मन की लाखों की सेना के मुकाबले में मात्र 72 जैसी छोटी संख्या का प्रात:काल से अपरान्ह तक अद्वितीय साहस से युद्ध करने के दृश्य का वर्णन श्रोताओं को आश्चर्यचकित भी कर देता है।

मुहर्रम में सामान्य रूप से काले कपड़े पहने जाते हैं। क्योंकि काला रंग शोक का द्योतक माना जाता है। ईदज़्जुहा महीने के अंतिम दिन का सूरज डूबते ही निकलने वाला मुहर्रम का नया चाँद, इंसानियत की मर्यादा समझने व रखने वालों के कोमल हृदय को शोक से उद्वेलित कर देता है। इमाम हुसैन का शोक मानाने वालों के अज़ाखाने (ताजि़या इमाम हुसैन की कब्र का प्रतिरूप रखने का स्थान) में ताजि़या, अलम आदि सजा दिए जाते हैं।

लखनऊ के तो हर घर से, जहाँ अज़ाखाने नहीं भी होते हैं - ‘या हुसैन’ की सदायें गूंजने लगती हैं। भावुकतावश इस माहौल में आँखों में आंसू आ जाते हैं। कर्बला में इमाम हुसैन व उन के परिवार व साथियों पर जो अत्याचार हुये, जिस निरंकुशता से अकारण बिना जुर्म के उन्हें मार डाला गया और फिर बचे हुये लोगों को, महिलाओं बच्चों को इस अत्याचार के फलस्वरूप पड़ी मुसीबत (असहनीय कष्ट) पर रोने भी नहीं दिया गया।

बच्चों को भी रोने पर कोड़ों से मारा जाता था। फिर उन निर्दोष, महान हस्तियों के परिवार को कैदी भी बना लिया गया। तो उन्होंने उस दुष्टतम अत्याचारी शासक से संसार को मुक्त करा कर हम सभी पर एहसान किया है। तो क्या हमारा भी कर्तव्य यह नहीं बनता कि हम वर्ष में कम से कम एक माह में 10 दिन ही सही या उस दिन, जिस दिन इमाम हुसैन ने यह बलिदान दिया था, मुहर्रम की 10 तारीख (सन 16 हिजरी) को ही उन्हें याद कर लें? इसलिए हम मुहर्रम में जितना भी हम से संभव हो सकता है, इमाम हुसैन का शोक मना कर उन्हें याद कर लेते हैं।

अज़ादार, इमाम हुसैन के शोक में अपने हाथों से अपने सीने पर मातम (सीने पर हाथ से मारना) और मजलिस करते हैं। यह शोक का महीना है। मजलिस में जहाँ दुष्ट यज़ीद की भतर्सना की जाती है। वहीं, आतंकवादियों की भी भतर्सना की जाती है जो आतंकवादी निर्दोषों को अपने हाथ में तलवार व बंदूक से निर्दयता से मारने का निंदनीय कार्य करते हैं। इमाम हुसैन पर हुये क्रूरतम अत्याचार व उनके जीवित रह गए परिजनों की मजबूरियों व उन्हें अपने दु:ख पर रोने से रोकने का वर्णन सुन हमारी आँखों से आंसू प्रवाहित होने लगते हैं।

जो जितना ही अधिक कोमल व दयालु व संवेदनशील होता है उसकी आँखों से उतना ही अधिक आंसू निकलते हैं। परन्तु कुछ मुसलमान ऐसे भी होते हैं, कि उनकी आँखें सूखी हुई नज़र आती हैं। जैसे कि उनके हृदय पर न तो कुछ प्रभाव पड़ता हो, न ही उसका परिणाम निकलता हो।

मुहर्रम में एक ओर जहाँ इमाम हुसैन का ताजि़या, उनके 6 माह के सब से छोटे पुत्र हज़रत अली असगर का झूला व इमाम हुसैन की फौज के अलमबरदार व भाई हज़रत अब्बास का अलम भी सजा कर रखा जाता है। जिसे साथ में लेकर जुलूस भी विभिन्न स्थानों से भिन्न भिन्न लोगों द्वारा निकाला जाता है। मुहर्रम की मजलिसों में पूर्व में जहाँ इस्लाम का विस्तृत वास्तविक परिचय कराया जाता है, विशेष रूप से कर्बला के शहीदों के युद्ध कौशल साहस का प्रशंसात्मक वर्णन किया जाता है वहीं अंतिम भाग में कर्बला में हुये अत्याचारों, उनके दुखों का मार्मिक व हृदय विदारक चित्रण वर्णन किया जाता है।

सर्वार्धिक क्रूरतम अत्याचार यह किया गया कि इमाम हुसैन के छह माह के सब से छोटे बेटे तीन दिन के भूखे प्यासे हज़रत अली असगर (उन पर सलाम हो) के लिए एक चुल्लू पानी मांगने पर, ‘हुरमुला’ नामक दुष्ट तत्कालीन अरब के बहुत बड़े निशानेबाज द्वारा शहीद कर दिया गया। उसकी गर्दन से निकले खून को इमाम हुसैन ने अपने चुल्लू में लेकर आसमान की ओर फेंकना चाहा तो आसमान से आवाज आई की यदि खून की एक बूँद भी इस आसमान तक पहुंची तो फिर कभी एक बूँद भी पानी न बरसेगा।

इसके बाद इमाम हुसैन ने खून को धरती पर डालना चाहा तो जमीन से आवाज आई कि अगर एक बूँद भी खून जमीन पर गिरा तो कयामत तक एक दाना भी भूमि से नहीं उगेगा। अब इमाम हुसैन क्या करते, उन्होंने अपने लाल का खून अपने चेहरे पर मल लिया और कहा कि कयामत के दिन मैं अपने नाना पैगम्म्बर मुहम्मद साहब के सामने इसी हालत में जाऊँगा और उनकी उम्मत (तथा-कथित मुसलमानों) की क्रूरतम अत्याचार की शिकायत करूंगा। आप स्वयं ही विचार करें कि भला उस छोटे से बच्चे से किसी की क्या अदावत होगी और किसी का क्या बिगाड़ा होगा। सवाल यह भी है कि आखिर इस मासूम से यजीदी फौज को क्या भय था कि उसे भी यजीदियों ने इस निर्दयता से मार डाला।

ऐसी आश्चर्यजनक व हतप्रभ कर देने वाले अतुलनीय निर्दयतापूर्ण अत्याचार का वर्णन सुन आँखों से आंसू बहने लगते हैं। विशेष रूप से मुहर्रम के जुलूस निकलने पर, जिसमें अली असगर का झूला भी सम्मिलित होता है, उस बच्चे की प्यास को याद कर अन्य पेय पदार्थों की सबील (पेय लंगर) के साथ ही स्थान स्थान पर दूध की भी सबील लगाईं जाती है।

मुहर्रम में मजलिस समाप्त होने के बाद तबर्रुक (प्रसाद) भी श्रोताओं को वितरत किये जाते हैं। लखनऊ में 2 माह 8 दिन तक मुहर्रम मनाया जाता है।

मुहर्रम में चूंकि इमाम हुसैन हमारे मेहमान होते हैं। इसलिए जहां मुहर्रम बाद मेहमान के चले जाने पर हमें और दु:ख होता है। वहीं हमें अगला मुहर्रम आने का साल भर तक बेसब्री से इन्तजार रहता है। और फिर अगला मुहर्रम आने पर हम दिल से उसका इस्तेकबाल (स्वागत) करते हैं।

(लेखक इस्लामिक विद्वान हैं)



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Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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