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हिन्द पर नाज किसे होगा?... तसलीमा नसरीन का विरोध मात्र मजहबी नहीं

raghvendra
Published on: 26 July 2019 8:37 AM GMT
हिन्द पर नाज किसे होगा?... तसलीमा नसरीन का विरोध मात्र मजहबी नहीं
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के. विक्रम राव

बड़े झिझकते, हिचकते, गृहमंत्री अमित अनिल शाह ने लेखिका तसलीमा नसरीन को (20 जुलाई 2019) भारत में रहने का परमिट दिया। मगर केवल एक वर्ष के लिए। तसलीमा की दरख्वास्त पांच साल के लिए थी। सोनिया गांधी इस बांग्लादेशी लेखिका को बला मानती रहीं, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार मुसलमानों के तुष्टिकरण के कारण इस अबला का वीजा टालती रही, भारत के मुसलमान इस अबला के लिए मय्यत मांगते रहे और उनके मुंड को लाने के लिए इनाम घोषित करते रहे।

आखिर तसलीमा का गुनाह क्या है? बस इतना कि बाबरी ढांचा टूटने के बाद (6 दिसंबर 1992) उसने अपने उपन्यास ‘लज्जा’ में ढाका में हिन्दुओं पर हुए जुल्मों का मार्मिक विवरण लिखा। तभी उन्हें जिन्दा जलाने का फतवा मस्जिदों से आया। वह भाग कर कोलकता आयीं। प्राण बच गए। इस्लामी राष्ट्र कतर स्वेच्छा से गए चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन और भारत में पनाह मांगती बांग्लादेशी लेखिका डा. तसलीमा नसरीन के बारे में भारत सरकार (चाहे भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन हो या कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार हो) दोहरी नीति अपनाती रहीं। हुसैन तो कतर जाकर हिन्दू कट्टरवादियों से निजात पा गए थे। मगर तसलीमा नसरीन अभी भी भारत के मुस्लिम कट्टरवादियों और कायर सरकार की शिकार बनी हैं।

अत: यदि भारत के प्रबुद्ध मुसलमान इस लेखिका के वीजा की मियाद बढ़ाने की मांग की बाबत अपनी पुरानी खामोशी बनाए रखते हैं तो कई हिन्दुओं का सन्देह पुख्ता हो जाएगा कि सेक्युलरवाद को इन मुसलमानों ने मजहबी कट्टरता का केवल कवच बना लिया है। उनकी पंथनिरपेक्षता ढकोसला है। सोनिया-नीत संप्रग सरकार की असलियत भी उजागर हो गई थी कि वह सेक्युलरवाद को वस्तुत: राष्ट्रीय आस्था नहीं मानती है, बस वोट-पकडू़ कूटयुक्ति है। यह गौरतलब इसलिए भी है क्योंकि भाजपाई प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर आज रणछोड़ बन गए हैं। मगर हिन्दू की आस्था पंथनिरपेक्षता पर खरी और दृढ़ बनी हुई है। फिर भी सवाल घेरता है भारतीय मुसलमानों को कि वे सब मजहबी कट्टरवाद से दो-दो हाथ करने में जुटेंगे या फिर बिदके ही रहेंगे? क्योंकि तसलीमा नसरीन को स्थायी परमिट देने का मसला भारतीय धार्मिक समभाव के लिए प्रमाण बनेगा।

हर सेक्युलर भारतीय मुसलमान के लिए यह चुनौती है, कसौटी है, कि वह भारतीयों की पंथनिरपेक्षता वाली मान्यता को पुख्ता बनाए। यह साबित कर दिखाए कि भारत का शासन गणतंत्रीय संविधान पर आधारित है, निज़ामे मुस्तफा पर नहीं। इन सेक्युलर भारतीय मुसलमानों को मोर्चा लेना होगा उन कठमुल्लों से जिनको वोट बैंक की सियासत में महारत है। चुनावी बेला पर वे हर सियासी पार्टी से वोट का सौदा पटाते हैं। अत: गुलाम हिन्दुस्तान की जिन्नावादी मुस्लिम लीग की राजनीति का खेल आज दुबारा नहीं खेला जाएगा। तसलीमा नसरीन से उपजे विवाद के परिवेश में यह दुबारा स्पष्ट करना अपरिहार्य है कि नागरिकता और राष्ट्र का आधार मजहब कभी भी नहीं हो सकता। यही गांधीवादी सिद्धांत है। मोहम्मद अली जिन्ना ने इसे नहीं माना और मुसलमानों को पृथक कौम करार दिया था।

इसलिए आम भारतीय को मानना होगा कि तसलीमा नसरीन का विरोध मात्र मजहबी नहीं हैं, यह जिन्नावादी पृथकतावादी मुहिम का नया संस्करण है। तसलीमा आज सेक्युलरिज्म का पर्याय बन गई हैं। भारतीय मुसलमानों को अहसास करना होगा कि गणतंत्रीय संविधान ही सेक्युलर भारत में सबसे ऊपर है। शरीयत चाहिए तो लीबिया या सूडान में रहना मुफीद होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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