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Hindi Diwas: राष्ट्रभाषा विहीन देश में कहां खो गई हिन्दी
Hindi Diwas:14 सितंबर, 1949 को यह निर्णय हुआ था कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अन्तरराष्ट्रीय रूप होगा।
Hindi Diwas: हिन्दी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। जिसे सब बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। लेकिन हिन्दी दिवस क्यों मनाया जाता है। हिन्दी है क्या। संविधान में इसकी क्या जगह है। क्या हिन्दी राष्ट्रभाषा है। इस सवाल की सटीक जानकारी ये है कि 14 सितंबर, 1949 को यह निर्णय हुआ था कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अन्तरराष्ट्रीय रूप होगा। अगली जानकारी में इस पूरे फैसले को पलट दिया गया । यह कहकर कि भारत की राजभाषा हिंदी (देवनागिरी लिपि) होगी । लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल बाद यानि 1965 तक सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में किए जाएंगे।
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फिर भी हम हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिये जाने की खुशी में हिन्दी दिवस मनाते आ रहे हैं। तत्कालीन हिन्दी सेवियों ने जिस स्तर तक यह लड़ाई लड़ी जा सकती थी लड़ी। लेकिन उसके बाद की पीढ़ियों ने हिन्दी राष्ट्रभाषा घोषित करवाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। सबकी हिन्दी सेवा हिन्दी दिवस मनाने तक सीमित है।
इसलिए हिन्दी के लिए लड़ने वाली उस पीढ़ी ने इस फैसले की खुशी में फैसला किये जाने के दिन 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाने का फैसला किया। उन्हें ये उम्मीद होगी कि 15 साल बाद हिन्दी राष्ट्रभाषा हो जाएगी। तब असली जश्न होगा।
इसके अलावा 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाने के लिए चुने जाने के पीछे एक बड़ी वजह ये थी कि इस दिन हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार व्यौहार राजेन्द्र सिंह का जन्मदिन था, जिनका हिन्दी को राजभाषा बनाने की दिशा में अतिमहत्वपूर्ण योगदान था। इस कारण हिन्दी दिवस के लिए इस दिन को श्रेष्ठ माना गया।
हिन्दी राजभाषा बनाने में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, श्यामसुंदर दास, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, काका कालेलकर, मैथिली शरण गुप्ता और सेठ गोविंद दास, व्यवहार राजेंद्र सिंह के अनथक प्रयास थे। हालांकि हिंदी को भारत गणराज्य की दो आधिकारिक भाषाओं में से एक के रूप में अपनाया गया।
महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू हिंदुस्तानी के समर्थक
यहां एक बात बताना महत्वपूर्ण है कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू हिन्दी के वर्तमान स्वरूप की जगह हिंदुस्तानी (हिंदी और ऊर्दू का मिश्रण) के समर्थक थे। जबकि दूसरा पक्ष हिंदुस्तानी भाषा की जगह शुद्ध हिंदी का पक्षधर था। अंत में दूसरे पक्ष की जीत हुई। फिर पेंच फंसा राष्ट्रभाषा या राजभाषा का। नेहरू को राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी स्वीकार्य नहीं थी। लंबी बहस के बाद संविधान सभा इस फैसले पर पहुंची कि भारत की राजभाषा हिंदी (देवनागिरी लिपि) होगी । लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल बाद यानि 1965 तक सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में किए जाएंगे। जिसका बाल कृष्णन और राजर्षि टंडन ने विरोध किया लेकिन उनकी आवाज दब गई। 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने हिन्दी राष्ट्रभाषा करनी चाही। लेकिन दक्षिण के राज्यों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए और फैसला टल गया।
खास बात यह है कि वर्तमान में भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिंदी सिर्फ एक राजभाषा है जिसकी लिपि देवनागरी है। हालांकि शासन तंत्र आज तक अंग्रेजी का गुलाम है। इसलिए सारे कामकाज अंग्रेजी में ही होते आ रहे हैं। भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला हुआ है। भारत में 22 भाषाओं को आधिकारिक दर्जा मिला हुआ है, जिसमें अंग्रेजी और हिंदी भी शामिल है। अगर कानूनी पहलुओं की बात करें तो भारत में सभी भाषाओं को समान दर्जा मिला हुआ है।
हिन्दी सेवी और साहित्यकार व्यौहार राजेन्द्र सिंह का जन्म जबलपुर में 14 सितम्बर, 1900, को हुआ था। वे जबलपुर के राष्ट्रवादी मॉडल हाई स्कूल के सबसे पहले बैच के छात्र थे। उनका विवाह 1916 में लखनऊ में हुआ। उनकी पत्नी राजरानी देवी का जन्म अवध रियासत के कुलीन अभिजात्य "दयाल" वंश में हुआ था। व्यौहार राजेन्द्र सिंह का संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, मलयालम, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर बहुत अच्छा अधिकार था फिर भी उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए लंबा संघर्ष किया। उन्होंने अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व सर्वधर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया जहां उन्होंने सर्वधर्म सभा में हिन्दी में ही भाषण दिया जिसकी जमकर तारीफ हुई।
व्यौहार राजेन्द्र सिंह अपनी युवावस्था में "राजन" के नाम से जाने जाते थे । हालांकि कुछ आत्मीय जन उन्हें "काकाजी" भी संबोधित करते थे। वे इतने महान गांधीवादी थे कि वृद्धावस्था व रुग्णावस्था में भी उन्होंने किसी महानगर के अतिविशिष्ट या बहुविशेषज्ञता वाले अस्पताल में जाने से साफ़ इनकार कर दिया था। उनका निधन स्थानीय शासकीय विक्टोरिया जिला अस्पताल अब सेठ गोविन्ददास जिला चिकित्सालय में हुआ था।