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Hindi Language: इशारों इशारों में गर हो जाये बात

Hindi Language: भाषाएं अस्तित्व से जुड़ी ही नहीं हैं। बल्कि अस्तित्व का हिस्सा हैं। भाषाएं पहचान हैं। तभी तो जरा सा इधर उधर होने से अस्तित्व पर संकट आ जाता है...

Yogesh Mishra
Published on: 18 March 2025 2:41 PM IST
Hindi Language Motivation Story
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Hindi Language Motivation Story

Hindi Language: जरा सोचिए, गर भाषा न होती तो क्या होता? क्या बोलते हम? कुछ भी नहीं। सिर्फ कुछ आवाजें निकालते। बोलते तो भी क्या, शब्द ही नहीं होते। इशारों इशारों में बात होती। लेकिन किसी तरह भाषाएं अस्तित्व में आईं। कैसे आईं, इसका कोई निश्चित जवाब आज तक निकल नहीं पाया है, सिर्फ विभिन्न थ्योरियाँ हैं। लेकिन आईं, फैलीं और विलुप्त भी हुईं। विकसित हुईं, समृद्ध हुईं। लेकिन भाषाओं के संग एक अद्भुत बात यह भी रही कि ज़र, ज़मीन और जोरू की भांति भाषाएं भी विवादों, झगड़ों और संघर्षों का सबब रहीं हैं और आज भी हैं। भाषाएं अस्तित्व से जुड़ी ही नहीं हैं। बल्कि अस्तित्व का हिस्सा हैं। भाषाएं पहचान हैं। तभी तो जरा सा इधर उधर होने से अस्तित्व पर संकट आ जाता है।

भाषा के आधार पर देश ही अलग अलग नहीं हैं बल्कि देशों के भीतर प्रान्त भी बंटे हुए हैं। हमारे ही देश के राज्य भी भाषाई आधार पर बने हैं। भाषा को पहचान का संकट सदा बना रहता है तभी तो कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्य भाषा के लिए बेहद संवेदनशील हैं। इस भाषाई बंटवारे की खाई को हिंदी ने पाटने की कितनी ही कोशिशें कीं हैं। लेकिन खाई भर नहीं पा रही है।


आज फिर हिंदी के मसले पर बखेड़ा है। नई शिक्षा नीति के तहत हिंदी फोकस में है। क्योंकि गैर हिंदी भाषी राज्यों में तीसरी भाषा के विकल्प के रूप में हिंदी को रखा गया है और राज्यों को यही मंजूर नहीं, खासकर तमिलनाडु को। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन को ये तमिल अस्मिता पर सीधा हमला लग रहा है। लामबन्दी जारी है।

मसला आसान नहीं है। क्योंकि दक्षिण को हिंदी मंजूर नहीं। भाषा के मसलों पर कितने ही बवाल और खून खराबा हो चुका है। भावनाएं फिर उबाल पर हैं। हिंदी बोलने पर झगड़े के कितने ही वाकये कर्नाटक और महाराष्ट्र से सामने आते रहते हैं। तमिलनाडु में तो दशकों से यही विवाद है।

विवाद चाहे जितने हों लेकिन क्या बातचीत - संचार के एक कॉमन माध्यम के बगैर काम चल सकता है? वो भी तब जबकि लोगों का लगातार प्रवास एक जगह से दूसरी जगह चलता रहता है, काम धंधे, पर्यटन,पढ़ाई वगैरह किसी भी मतलब से? महाकुंभ अभी बीता ही है। 65 करोड़ लोग आए और गए। भारत के कोने कोने से। कितने ही लोग तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक से आये होंगे। क्या बगैर हिंदी जुबां पर लाये काम चल गया? भले ही महाकुंभ में अलग अलग भाषा के साइनबोर्ड लगाए गए थे। लेकिन कहीं न कहीं हिंदी बोलना तो पड़ा ही होगा।


उत्तर भारत से ही लाखों लोग दक्षिण के पवित्र तीर्थों में हर साल जाते हैं। क्या वे वहां जाकर स्थानीय भाषा में बोलने लगते हैं? केरल में मजदूरी करने वाला बिहारी श्रमिक हो या लखनऊ के अस्पताल में मरीजों की देखभाल करती मलयाली नर्स, संगम तक नाव से ले जाने वाला नाविक हो या तिरुपति, मदुरै, रामेश्वरम के मंदिरों के पंडे पुजारी - एक कॉमन भाषा जरूर इस्तेमाल करते हैं और आपको मानना ही पड़ेगा कि वह भाषा हिंदी ही होती है। अंग्रेजी भले ही ग्लोबल भाषा कही जाए। लेकिन फिर भी कोई 18 फीसदी लोग ही इस भाषा को बोलते समझते हैं। हम कैसे उम्मीद करें कि अंग्रेजी भारत की कॉमन भाषा हो सकती है? चलिए, हिंदी को राजभाषा, राष्ट्रभाषा न बनाइये लेकिन कम से कम इसे ‘संचार भाषा’ या ‘संपर्क भाषा’ तो बना ही सकते हैं। हिंदी भी ख़ासिल हिंदी क्यों रहे? इसे हिंदुस्तानी नाम क्यों न दें जबकि यही आज हमारी भाषा है जिसमें संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेजी सभी का मिक्सचर है। हमारी बोलचाल से इन्हें निकाल दें तो बचेगा क्या?

दुनिया में अनेक जगह ऐसी ही मिक्स भाषा बोली जाती है। ऐसी भाषा को ‘क्रियोल’ नाम भी दिया गया है। अलग अलग भाषा या बोली को मिला कर,सरल बना कर एक नई चीज। ठीक वैसे ही जैसे मगही या मगधी जो मैथिली, भोजपुरी, हिंदी वगैरह का मिला जुला स्वरूप है। अफ्रीकी देशों में अलग अलग आदिवासियों-कबीलों की अलग भाषाएं व बोलियां हैं। सो, उन्होंने सबको मथ कर क्रियोल बना ली। तो फिर हम भी क्यों न ऐसा करें, एक आम सम्पर्क भाषा बना लें? यह केवल हिंदी हो सकती है। क्योंकि गुजराती मोहनदास करमचंद गांधी हो, मराठीभाषी विनोवाभावे व भीमराव अम्बेडकर हों, बंगालीभायी रविंद्र नाथ टैगोर व सुभाष बोस हों , पंजाबी गुरु नानक देव हों, तमिलभाषी एम.एस. सुब्बालक्ष्मी व सी. राजागोपालाचारी, तेलगुभाषी नरसिंम्हा राव सरीखे अनन्त लोग मिलेंगे जो यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि संपर्क भाषा का सम्मान पाने की अधिकारिणी हिंदी ही है। इसे थोड़ा उलट ढंग से समझाने की कोशिश करें तो देश के राष्ट्रपति रहे प्रणव मुखर्जी को याद करना जरूरी हो जाता है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्हें हिंदी नहीं आती थी, इसलिए प्रधानमंत्री बनने से उन्हें वंचित रहना पड़ा।


बहरहाल, भाषा के झगड़े किसी मुकाम पर पहुंचते नज़र नहीं आ रहे क्योंकि मसला सिर्फ क्लास रूम में किताबी पढ़ाई तक सीमित नहीं है। डर, उससे से भी कहीं आगे का है। पीपुल्स लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की 2013 की एक बड़ी रिपोर्ट कहती है कि भारत में लोग वर्तमान में 780 विभिन्न भाषाएं बोलते हैं। लेकिन पिछले 50 वर्षों में देश ने लगभग 250 भाषाएं खो दी हैं। आयरिश भाषाविद् जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा 1898 से 1928 तक भारतीय भाषाविज्ञान सर्वेक्षण आयोजित करने के बाद यह देश में किया गया पहला भाषाविज्ञान सर्वेक्षण था। भाषाओं पर खतरे तो हैं ही, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। जितना जरूरी हिंदी को बढ़ाने व पोसने की है उतनी ही जरूरी अन्य भाषाओं की भी है।

लेकिन एक सवाल और है। क्या वाकई चिढ़ हिंदी से है या किसी और चीज से? ये उत्तर बनाम अन्य के बीच उत्कृष्टता का मसला तो नहीं है? बहुत मुमकिन है। इस असलियत को बहुत संजीदगी से मान लेना चाहिए कि नॉर्थ, उसमें भी यूपी और बिहार, के बाशिंदों से दक्षिण, उत्तर पूर्व और पश्चिम के राज्यों में कितनी मोहब्बत है। यह हिंदी भाषा से कहीं आगे की बात है। क्योंकि यदि केवल हिंदी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं की बात होती तो कावेरी जल विवाद के दौरान कन्नड़ और तमिल को आमने सामने खड़ा नहीं किया गया होता।असम में बंगाली बनाम असमिया विवाद खून खच्चर का सबब नहीं बनता।

मसला जटिल है। किसी पचड़े में न पड़ते हुए क्यों न सभी भाषाओं को आगे बढ़ाएं और एक संपर्क भाषा के विकास पर फोकस करें। एक ऐसी भाषा जो बोलचाल की हो। हमारी सबकी हो। बात इशारों में भी हो और जुबान से भी। जो भी हो मोहब्बत से हो। भाषा की सियासत से अलग और दूर हो। क्योंकि भारत की भाषाई विविधता इसकी ताकत भी है। चुनौती भी है। इसलिए भाषा को विवाद का मुद्दा बनाने के बजाये इसे सांस्कृतिक समृद्धि के रुप में देखना चाहिए ।

(लेखक पत्रकार हैं)

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