×

घरेलू महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन

raghvendra
Published on: 1 Feb 2020 3:32 PM IST
घरेलू महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन
X

ललित गर्ग

दावोस में हुए वल्र्ड इकनॉमिक फोरम में ‘ऑक्सफैम’ संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट ‘टाइम टू केयर’ प्रस्तुत की है, जिसमें उसने घरेलू औरतों की आर्थिक स्थितियों का खुलासा करते हुए दुनिया को चौंका दिया है। वे महिलाएं जो अपने घर को संभालती हैं, परिवार का ख्याल रखती हैं, वह सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक अनगिनत सबसे मुश्किल कामों को करती है। अगर हम यह कहें कि घर संभालना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है तो शायद गलत नहीं होगा। दुनिया में सिर्फ यही एक ऐसा पेशा है, जिसमें 24 घंटे, सातों दिन आप काम पर रहते हैं, हर रोज क्राइसिस झेलते हैं, हर डेडलाइन को पूरा करते हैं और वह भी बिना छुट्टी के। सोचिए, इतने सारे कार्य-संपादन के बदलने में वह कोई वेतन नहीं लेती। उसके परिश्रम को सामान्यत: घर का नियमित काम-काज कहकर विशेष महत्व नहीं दिया जाता। साथ ही उसके इस काम को राष्ट्र की उन्नति में योगभूत होने की संज्ञा भी नहीं मिलती। जबकि उतना काम नौकर चाकर के द्वारा कराया जाता तो अवश्य ही एक बड़ी राशि वेतन के रूप में चुकानी पड़ती। दूसरी ओर एक महिला जो किसी कंपनी में काम करती है, निश्चित अवधि एवं निर्धारित दिनों तक काम करने के बाद उसे एक निर्धारित राशि वेतन के रूप में मिलती है। उसके इस कार्य को और उसके इस क्रम को राष्ट्रीय उन्नति (जीडीपी) में योगदान के रूप में देखा जाता है। यह माना जाता है कि देश के आर्थिक विकास में अमुक महिला का योगदान है। प्रश्न है कि घरेलू कामकाजी महिलाओं के श्रम का आर्थिक मूल्यांकन क्यों नहीं किया जाता? घरेलू महिलाओं के साथ यह दोगला व्यवहार क्यों?

ऑक्सफैम के अनुसार भारत की महिलाएं और लड़कियां हर दिन 3.26 अरब घंटे घरेलू काम करती हैं। अर्थव्यवस्था में उनके योगदान को कीमत में आंका जाए तो यह सालाना 19 लाख करोड़ रुपए के करीब होगा, जो भारत के वार्षिक शिक्षा बजट 93 हजार करोड़ का चार गुना है। ये रिपोर्ट इस बात पर भी जोर देती है कि महिलाओं पर घरेलू काम का दबाव बेहद ज्यादा है। इस वजह से वे या तो कम घंटे का रोजगार करने को मजबूर हैं या फिर उन्हें नौकरी ही छोडऩी पड़ जाती है। रिपोर्ट के मुताबिक, पूरी दुनिया में ‘केयर टेकिंग’ के बोझ के चलते बेरोजगारी का प्रतिशत महिलाओं में 42 है, जबकि पुरुषों में यह मात्र छह प्रतिशत है। ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर कहते हैं कि घरेलू महिलाओं और लड़कियों को आज की आर्थिक व्यवस्था का लाभ बहुत कम मिलता है। वो खाना बनाने, बच्चों को पालने, सफाई करने और बुजुर्गों की देखरेख में अरबों घंटे लगाती हैं। उनकी वजह से ही हमारी अर्थव्यवस्था, बिजनेस और समाज के पहिये चलते रहते हैं। इन औरतों को पढऩे या रोजगार हासिल करने का पर्याप्त समय नहीं मिलता। इसके चलते वे अर्थव्यवस्था के निचले हिस्से में सिमट कर रह गई हैं।

यह कहने की जरूरत नहीं कि परिवार में एक हाउसवाइफ की क्या अहमियत होती है और उसके बिना समाज नहीं चल सकती, लेकिन उसके काम को अनुत्पादक समझ लिया जाना उसकी हैसियत को गिराता ही नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व और अस्मिता को भी खत्म कर देता है। घरेलू कामकाजी महिलाओं का घर की देखरेख एवं परिवार के भरण-पोषण का काम भले सहज दिखता हो,लेकिन बहुत जटिल, श्रमसाध्य एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण काम है, लेकिन विडम्बना देखिये कि परिवार के स्तर पर या जीडीपी के स्तर पर इसका कोई मूल्यांकन नहीं है।

इन दिनों हाउसवाइफ के अस्तित्व को लेकर ऐसी व्यापक चर्चाएं हैं। सोशल मीडिया पर हाउसवाइफ की सक्रियता से उन्हीं के बीच ऐसे प्रश्न उछलने लगे हैं कि क्या हाउसवाईफ का परिवार, समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य है? क्या हाउसवाइफ का कोई आर्थिक अस्तित्व नहीं? क्या उसे आर्थिक निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं? क्या हाउसवाइफ सिर्फ बच्चे पैदा करने और घर संभालने के लिए होती हैं? क्यों हाउसवाइफ का योगदान देश के विकास में एक पुरुष से कमतर आंका जाता है? हाउसवाइफ को उनके काम के बदले सैलरी का प्रावधान होना ही चाहिए? ये और ऐसे अनेक प्रश्न है जिन पर न केवल देश में बल्कि दुनिया में जागरूकता का वातावरण बन रहा है। इस विषय ने नारी जागृति एवं महिला सशक्तिकरण के अभियानों को भी आंदोलित किया है। ऐसी चर्चाएं होना, एक सकारात्मक वातावरण घरेलू महिलाओं को लेकर बनना और सरकार की सोच में भी बदलाव आना निश्चित ही नारी के अस्तित्व को धुंधलकों से बाहर लाने का प्रयास कहा जायेगा। साथ ही भविष्य एक बड़ी चुनौतीपूर्ण समस्या पर समय रहते मानसिकता को विकसित करने का वातावरण बनेगा।

हाउसवाइफ की घरेलू भूमिका और उसके आर्थिक मूल्यांकन का काम कई मोर्चों पर चल रहा है। हमारे देश में भी और बाहर भी। 2004 में एक हाईकोर्ट कह चुका है कि हाउसवाइफ की कम से कम वैल्यू रुपयों में माहवार निश्चित होना चाहिए। केरल में हाउसवाइफ के लिये मासिक भत्ते की मांग भी सामने आ चुकी है। बांगलादेश के वित्तमंत्री का मानना है कि हाउसकीपिंग की वैल्यू तय की जानी चाहिए। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। हाउसवाइफ की वैल्यू तो निश्चित हो ही जायेगी लेकिन उससे बड़ा चिन्ताजनक प्रश्न हाउसवाइफ के अस्तित्व को ही समाप्त करने की मानसिकता से जुड़ा है। स्वीडन के जर्नलिस्ट पीटर लेटमार्क ने लेख में ‘हाउसवाइफ होने का दाग’ में अनेक चिन्ताजनक स्थितियों को प्रस्तुत किया है। इस लेख में घरेलू काम की जटिल होती स्थितियों और उनमें निष्क्रिय होती महिलाओं की भूमिका को उठाया गया है। स्वीडन और नॉर्वे में हाउसवाइफ कहलाना बेइज्जती माना जा रहा है, महिलाएं हाउसकीपिंग से तौबा कर रही हैं। भारत में हालांकि हाउसवाइफ अभी गायब नहीं हुई हैं और ऐसा होने में बरसों लग जायेंगे, लेकिन हाउसकीपिंग को अब पुराने जमाने की दकियानूसी मानकर नीची नजर से देखा जाता है। न्यू जेनरेशन की लड़कियां इसके लिए कतई तैयार नहीं है।

लिहाजा हम उन जटिल स्थितियों की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जहां हमारे लिये भी घरेलू काम-काज चुनौती बन कर प्रस्तुत होगा भले ही हम घरेलू महिलाओं के श्रम को आर्थिक मूल्य देने को तो तैयार हो जाये, लेकिन तब तक परिवार का यह महत्वपूर्ण सेक्टर खतरे में पड़ चुका होगा। हमें हाउसकीपिंग की जरूरत लगभग पहले जितनी है, बल्कि वह और बढ़ी है, उस बढ़ी जरूरत को पूरा करना हमारे लिये चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। हमें हाउसकीपिंग की वैल्यू तय करके उसकी इज्जत तो लौटानी ही होगी, साथ ही पुरुषों को इसके लिए आगे आना होगा। उन्हें घरेलू काम-काज में बराबर का हाथ बंटाना होगा। महिलाओं के इस एकाधिकार क्षेत्र को संतुलित करने के लिये पुरुषों को भी सहभागिता निभानी होगी। हमारे सामने स्वीडन का मॉडल है। वहां मर्दों को कई महीनों की पैटरनिटी लीव तो मिलती ही है, इसके लिए इंसेटिव भी दिए जाते हैं।

(लेखका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

Next Story