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जानिए ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के शिल्पी नानाजी देशमुख के बारे में
नानाजी देशमुख प. दीनदयाल उपाध्याय के समकालीन थे या समकक्ष थे। दोनो में अति घनिष्ठता थी। नानाजी ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के शिल्पी और युगदृष्टा थे। उन्होंने सिखाया कि उपेक्षितों और शोषितों के साथ जुड़कर ही राजमार्ग के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए या प्रशासन और राजकाज की पहली पाठशाला ये लोग होने चाहिए।
रामकृष्ण वाजपेयी
नानाजी देशमुख प. दीनदयाल उपाध्याय के समकालीन थे या समकक्ष थे। दोनो में अति घनिष्ठता थी। नानाजी ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के शिल्पी और युगदृष्टा थे। उन्होंने सिखाया कि उपेक्षितों और शोषितों के साथ जुड़कर ही राजमार्ग के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए या प्रशासन और राजकाज की पहली पाठशाला ये लोग होने चाहिए। नानाजी देशमुख ने युवा पीढ़ी में भी राष्ट्रचेतना जगाने पर जोर दिया और इस दिशा में प्रयास किया। शिक्षा को सबसे महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने गोरखपुर में पहले सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना की। ऐसे महापुरुष को भारत रत्न का सम्मान मिलने पर आज इस बात की जरूरत हो गई है कि लोग जानें कौन थे नानाजी।
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नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्टूबर 1916 को महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। पिता का नाम अमृतराव देशमुख तथा माता का नाम राजाबाई था। नानाजी के दो भाई एवं तीन बहने थीं।
नानाजी की बाल्यावस्था में ही माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन गरीबी एवं अभावों से भरा रहा। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दैनिक शाखा में वह बचपन में जाने लगे थे। उनके भीतर सेवा संस्कार का अंकुर भी संघ की शाखाओं से ही फूटा। 9वीं कक्षा में अध्ययन के दौरान ही उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। डा. साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डा. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का सुझाव दिया। वह नानाजी की कुछ आर्थिक मदद भी करना चाहते थे। पर स्वाभिमानी नाना किसी से भी किसी तरह की सहायता नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने डेढ़ साल तक मेहनत कर पैसे जमा किये और उसके बाद 1937 में पिलानी गये। यहां वह पढ़ाई के साथ-साथ संघ कार्य में लगे रहे। सन् 1940 में उन्होंने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग का प्रथम वर्ष पूरा किया। उसी साल डाक्टर साहब का निधन हो गया। फिर बाबा साहब आप्टे के निर्देशन पर नानाजी आगरा में संघ का कार्य देखने लगे।
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समाज शिल्पी दम्पति
ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के अभिनव प्रयोग में नानाजी ने 1996 में स्नातक युवा दम्पतियों से पांच वर्ष का समय देने का आह्वान किया। पति-पत्नी दोनों कम से कम स्नातक हों, आयु 35 वर्ष से कम हो तथा दो से अधिक बच्चे न हों। चयनित दम्पतियों को 15-20 दिन का प्रशिक्षण दिया जाता। नानाजी का मार्गदर्शन मिलता। नानाजी कहते थे कि राजा की बेटी सीता उस समय इस क्षेत्र में 11 वर्ष तक रह सकती है, तो आज इतने प्रकार के संसाधनों के सहारे तुम लोग पांच वर्ष नहीं रह सकते। इसके बाद सीता की तरह अपने पति के साथ जब वह दंपति जंगलों- पहाड़ों के बीच बसे गांवों की ओर बढ़ता तब इनको नाम दिया जाता है- समाजशिल्पी दम्पति।
शुरुआत में किसी को समझ में नहीं आया कि ये पढ़े-लिखे युवक-युवतियां गांवों की खाक क्यों छान रहे हैं लेकिन कुछ महीनों बाद उनके व्यवहार और कार्यों को देखकर गांव वालों का अनजानापन पारिवारिक निकटता में बदल गया। और शुरू हो गई गांव के विकास की यात्रा।
इसी तरह जब राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला हुआ तो नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तर प्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। 1957 तक जनसंघ ने उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयाँ खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ उत्तरप्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी।
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कहा जाता है कि चन्द्रभानु गुप्त को नानाजी की वजह से तीन बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। एक बार, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता और चंद्रभानु के पसंदीदा उम्मीदवार को हराने के लिए उन्होंने रणनीति बनायी। 1957 में जब गुप्त स्वयं लखनऊ से चुनाव लड़ रहे थे, तो नानाजी ने समाजवादियों के साथ गठबन्धन करके बाबू त्रिलोकी सिंह को बड़ी जीत दिलायी। 1957 में चन्द्रभानु गुप्त को दूसरी बार हार को मुँह देखना पड़ा। लेकिन चन्द्रभानु गुप्त भी नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे। डॉ॰ राम मनोहर लोहिया से उनके सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल दीं।
कर्मयोगी नानाजी ने 27 फ़रवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम सांस ली। उन्होंने देह दान का संकल्प पत्र बहुत पहले ही भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर आयुर्विज्ञान संस्थान को दान दे दिया। यही इस भारत रत्न की वसीयत थी।