×

TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

संस्कारों से कटता इंसान: मानवता शर्मसार, इंसानियत लहूलुहान

raghvendra
Published on: 14 Jun 2019 3:19 PM IST
संस्कारों से कटता इंसान: मानवता शर्मसार, इंसानियत लहूलुहान
X

डा. नीलम महेन्द्र

एक वह दौर था जब नर में नारायण का वास था, लेकिन आज उस नर पर पिशाच हावी है। एक वह दौर था जब आदर्शों, नैतिक मूल्यों व संवेदनाओं से युक्त चरित्र किसी सभ्यता की नींव होते थे, लेकिन आज का समाज तो इनके खंडहरों पर खड़ा है। वह कल की बात थी जब मनुष्य को अपने इंसान होने का गुरूर था, लेकिन आज का मानव तो खुद से ही शर्मिंदा है क्योंकि आज उस पिशाच के लिए न उम्र की सीमा है न शर्म का कोई बंधन। ढाई साल की बच्ची हो या आठ माह की क्या फर्क पड़ता है।

मासूमियत पर हैवानियत हावी हो जाती है लेकिन सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि ऐसी घटनाएं आज हमारे समाज का हिस्सा बन चुकी हैं। खेद का विषय है कि ऐसी घटनाएं केवल एक खबर के रूप में अखबारों की सुर्खियां बनकर रह जाती हैं लेकिन समाज में आत्ममंथन का कारण नहीं बन पातीं। नहीं तो आखिर क्यों एक बच्ची पलक झपकते ही अपने घर के सामने से लापता हो जाती है और दो दिन बाद उसकी क्षत-विक्षत लाश मिलती है। क्यों एक पांच साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या करके चेहरे को ईटों से इस कदर कुचलकर नदी में फेंक दिया जाता है कि उसके शव की अनेक हड्डियां टूटी मिलती हैं? क्यों एक दसवीं की छात्रा छेडख़ानी से इतनी परेशान हो जाती है कि आत्महत्या कर लेती है? क्यों एक दस माह की बच्ची से एक नाबालिग दुष्कर्म कर लेता है? क्यों ग्यारह बारह साल की हमारी बच्चियां एक बच्चे को जन्म देने की पीड़ा सहने के लिए विवश होती हैं?

क्या ऐसी घटनाओं के लिए केवल वारदात को अंजाम देने वाला आरोपी ही जिम्मेदार होता है? जी नहीं, पूरा समाज जिम्मेदार होता है, वह मां जिम्मेदार होती है जो अपने बेटे में संस्कारों के बीज नहीं डाल पाई। वह पिता जिम्मेदार होता है जो अपने बेटे को एक औरत की इज्जत करना नहीं सीखा पाया। वह बहन जिम्मेदार होती है जो उस कलाई पर राखी बांधने को तैयार हो जाती है जिस हाथ ने किसी की आबरू से खिलवाड़ किया हो। वह पत्नी जिम्मेदार होती है जो अपने पति को ऐसी करतूतों के बाद भी उसे स्वीकार करती है। वह परिवार जिम्मेदार होता है जो अपने घर, गहने व बर्तन तक बेचकर अपने दुराचारी बेटे को कानून की गिरफ्त से छुड़ा लाता है।

वह वकील जिम्मेदार होते हैं जो चंद पैसों की खातिर अपनी कानून की पढ़ाई का पूरा उपयोग उस आरोपी को फांसी के फंदे से छुड़ाने में लगा देते हैं। वह जज जिम्मेदार होते हैं जो सब जानते समझते हुए भी ‘साक्ष्यों के अभाव में’ आरोपी को बाइज्जत बरी कर देते हैं। वह पुलिस जिम्मेदार होती है जो भ्रष्ट आचरण के वशीभूत केस को कमजोर करने का काम करती है। वह डॉक्टर जिम्मेदार होते हैं जो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में अधूरा सच लिखते हैं। वह समाज जिम्मेदार होता है जो ऐसे परिवार से नाता जोड़ लेता है उसका सामाजिक बहिष्कार नहीं करता। वह कानून जिम्मेदार होता है जो पीडि़त को न्याय दिलाने में नाकाम रह जाता है। वह व्यवस्था दोषी है जिसमें बलात्कार के आरोपियों को फांसी की सजा तो सुना दी जाती है, लेकिन दी नहीं जाती। जी हां 2018 में ही दुष्कर्म के 58 मामलों में आरोपी को फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन एक को भी फांसी दी नहीं गई।

हालात यह है कि 2012 के निर्भया कांड के दोषियों को हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति तक के द्वारा उनकी फांसी की सजा बरकरार रखने के बावजूद आज तक फांसी नहीं दी गई है। शायद इसलिए कानून का भी डर आज खत्म होता जा रहा है। नहीं तो क्या कारण है कि अलीगढ़ की इस दिल को दहला देने वाली ऐसी घटना को अंजाम देने वाला शख्स इससे पहले 2014 में अपनी ही बेटी से दुष्कर्म करने के बावजूद दोबारा एक अन्य बच्ची के साथ उसी अपराध को और अधिक दरिंदगी के साथ दोहरा पाया। वो भी तब जब अपने ही क्षेत्र के थाने में उसके खिलाफ यूपी गुंडा एक्ट में तीन-तीन मुकदमे दर्ज हों।

कानून और न्याय की इसी लचर व्यवस्था के कारण बलात्कार जैसी घटनाएं अब इस समाज का कैंसर बनती जा रही हैं। आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां चाहे आरोपी हो या पीडि़त दोनों ही के लिए ना उम्र की कोई सीमा है न सामाजिक वर्ग की और ना ही मानसिक स्थिति। कुछ समय पहले तक केवल आदतन अपराधी या मानसिक रूप से विक्षिप्त प्रवृत्ति वाले लोग ही ऐसी घटनाओं को अंजाम देते थे,लेकिन आज नाबालिग बच्चों से लेकर बूढ़े तक इस अपराधी मानसिकता में लिप्त हैं।

पहले अनजान लोग ऐसे अपराध को अंजाम देते थे। आज रिश्ते तार- तार हो रहे हैं। जिस समाज में दुधमुंही और अबोध बच्चियां तक बुरी नजर का शिकार हो रही हों उस समाज का इससे अधिक क्या पतन होगा। ऐसी स्थिति में जब कानून अपना काम नहीं कर पा रहा तो समाज को आगे आना होगा। हम एक ऐसे लाचार समाज के रूप में विकसित होने के बजाय, जो कि न्याय के लिए कानून और सरकार का मोहताज है, खुद को ऐसे समाज के रूप में विकसित करें जो अपने नैतिक मूल्यों के बल पर इंसानियत का रखवाला हो। इतिहास गवाह है कि अगर समाज खुद ना चाहे तो कोई सरकार कोई कानून उसे नहीं बदल सकता, लेकिन अगर समाज चाहे तो सरकारें बदल जाती हैं, कानून बदल जाते हैं। बदलाव वो ही स्थायी होता है जो भीतर से निकले। इसलिए आज आवश्यक है कि यह बदलाव समाज के भीतर से निकले। आज हमने अपनी बच्चियों को एक ऐसी दुनिया दे दी है जहां वो अपने ही घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। लेकिन अब हमें खुद पहल करनी होगी। इस समाज का नवनिर्माण करना होगा। देश की सीमाओं की रक्षा तो हमारे वीर सैनिक कर ही रहे हैं, नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए आज समाज के हर व्यक्ति को सैनिक और हर मां को मदर इंडिया बनना होगा।

(लेखिका साहित्यकार हैं)



\
raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

Next Story