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आत्मचिंतन करें तो आईने में दिखता है टूटा सा अक्स अपना

हमें कुदरत स्वंय के पुर्नमूल्यांकन का समय दे रही है और चेता रही है कि देष-काल-सीमाओं से उठकर कर हम स्वस्थ मानसिकता के साथ स्वस्थ खुशहाल मानव जीवन के लिए काम करें। एक दूसरे की उन्नति में अपनी उन्नति का पाठ पढ़ना और पढ़ाना सीखें।

राम केवी
Published on: 8 May 2020 7:10 PM IST
आत्मचिंतन करें तो आईने में दिखता है टूटा सा अक्स अपना
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रेखा पंकज

आज भारत में कोरोना वायरस के कुल मामलों का आंकड़ा 56342 पार हो गया है। 17 हजार से ज्यादा मामलों के साथ महाराष्ट्र कोरोना प्रभावित राज्यों की सूची में पहले नंबर पर है। गुजरात, तमिलनाडु और दिल्ली भी सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में से हैं। पूरी दुनिया की बात करें तो कोरोना वायरस से अब तक दो लाख 67 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। कुल मामलों की संख्या 38 लाख से ज्यादा हो चुकी है। सबसे ज्यादा प्रभावित अमेरिका है जहां कोरोना वायरस से मरने वालों का आंकड़ा 75 हजार के पार पहुंच चुका है। ब्रिटेन में इस महामारी से अब तक 30,615 लोगों ने दम तोड़ा है।

जीत के रास्ते की कमजोर कडियां

यकीनन आंकड़े डराने वाले है। लाॅकडाउन का पालन करते लोग अपने-अपने घरों में डरे बैठे है और अपनों को भी संशकित नजरों से देखने को मजबूर है। यकीनन यह युद्ध नहीं है पर युद्ध से भयावह स्थिति है। युद्ध में आप प्रत्यक्ष विरोधियों से लड़ते हो पर यहां आप किससे लड़ रहे हो, कैसे लड़ना है जैसी परिस्थितियों से आये दिन लड़ रहे हो। ऐसे गिरगिटी रूप वाले वायरस की मुश्किलात के बीच देशों के बीच आरोप-प्रत्यारोप वाले वक्तव्यों की बौछार हो या फिर देश के भीतर तू क्या मैं क्या की बहस... ऐसी किसी भी लड़ाई में जीत हासिल करने के लिए कमजोर कड़ियां साबित होती है।

सामाजिक समीकरणों का बिगड़ना

दरअसल बढ़ती राष्ट्रवाद की भावना ने जब से जोर पकड़ा, लगभग हर देश किसी न किसी समुदाय से खतरा महसूस करने लगा है। स्वंय को श्रेष्ठ समझ कर व्यक्ति दूसरों के धर्म-जीवन शैली को कोसता है। और ऐसे विचारों की आग को हवा देने में, भारी वोट बैंक की चाह रखने वाले देश-दुनिया के सत्तालोलुप, सबसे आगे है। कहीं और जाने की जरूरत नहीं, अपने भारत में ही सांप्रदायिक समीकरणों की वजह से सामाजिक समीकरण बिगड़ते देखे गये।

अपनी-अपनी रोटी सेंकते नेता संगठन देश-काल-क्षेत्र से परे इंसानियत मानवता का नैतिक पाठ भूल बैठे। इंसान से बड़ा धर्म को मानने वाले जाहिलों की वजह से दुनिया की आबोहवा बद से बदतर होती जा रही। निजामुद्दीन मरकज में तब्लीगी जमात की सभा ने संक्रमण को हवा देने मदद की। उनके द्वारा की गई इस अहमकाना लापरवाही में मजहब के प्रति उनका ब्लाइंड फेथ जितना जिम्मेदार था उससे कहीं ज्यादा प्रशासन का लापरवाह रवैया दोषी रहा।

मौत आने से पहले मजहब नहीं पूछती

अफसोस तो इस बात का होता है कि ’इंसान’ को ’कौम’ के नाम पर देखने वाले अक्सर ये भूल जाते है कि मौत आने से पहले आपका धर्म या मजहब नहीं पूछती है। इस काल कवलित वायरस का रूप गुण देखकर भी न जाने क्यूं धर्म के ठेकेदारों को यह समझने में मुश्किल पेश आ रही कि यह वायरस देश-काल-मजहब-अमीर-गरीब-ऊंच-नीच से परे अपना जाल फैला रहा है या यूं कहें लोगों को आना ग्रास बना रहा।

कट्टरपंथी सत्तालोलुप नेताओं की एक-दूसरे के विचारों का नीचा दिखाने या ना मानने या यूं कहें प्रयोगों से पूरी दुनिया आहत हुई बैठी है। युद्ध के जरिए एक दूसरे को मानसिक और शारीरिक रूप से जर्जर करने वाले देशों को काश! ऐसी स्थिति में हमें अगर शांति और सद्भाव का मतलब समझ आ जाये तो ये वायरस कम से कम दुुनिया भर के जीवन और समुदायों के लिए मानवता परम धर्म की लकीर खीेंचने कामयाब हो जाएगा। लेकिन अफसोस! ऐसी बातें हो पाना महज काल्पनिक स्वप्न से अधिक कुछ नहीं है।

मानवता से दानवता की ओर

हैरानी इस बात की भी होती है कि हम दूसरों का आंकलन करते समय खुद का गिरेबान झांक कर क्यूं नहीं देखते। हम क्यूं महसूस नहीं करते कि किसी भी देश या इंसान की तकलीफ मेरे देश या मेरे कष्ट से कम या अलग कैसे हो सकती है? हम अपनी थाली तो तमाम तरह के व्यंजनों से सजी देखना चाहते है पर उसकी अनाज की जरूरत को नजरअंदाज करते है जो एक जून खाकर किसी तरह अपना जीवनयापन कर रहा है।

अपने आलीशान बंगलों में बैठे इसकी कल्पना करना क्यों छोड़ देते है कि बिना छत के रहना क्या होता है? गरीब की बेसिक जरूरत किसी भी धनवान की बेसिक आवश्यकता से परे कैसे हो सकती है। साधारण से जीवन मूल्यों को हम विकास की अंधी दौड़ में शामिल होने के पीछे गंवाते जा रहे है। सच तो ये है कि मानवता का पाठ भूलकर अनजाने में ही हम दानवता का पाठ ग्रहण करते जा रहे है।

व्यवसाय का सम्मान क्लास देखकर

सवा अरब की जनसंख्या वाले भारत में आज भी छोटे काम करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है. चाहे वह घर में काम करने वाली बाई हो या कचरा उठाने वाला कर्मचारी या घर तक सामान पहुंचाने वाला डिलीवरी बॉय। लेकिन क्या कभी आपने इस बारे में सोचा कि जो सुबह-शाम हमारे घरों की छोटी कभी-कभी बड़ी लगने वाली परेषानियों को चुटकियों में दूर कर देते है वे ये करने से मना कर दें तो क्या होगा।

हमारे यहां व्यवसाय का सम्मान उसके क्लास को देखकर किया जाता रहा है। 21वीं सदी में है फिर भी, आज भी ये परंपरा बदस्तूर जारी है। हम पैर से रिक्शा खींचने वाले से हद तक नीचे जाकर मोल-भाव करेगे वहीं उबर-ओला टैक्सी वाले को उतनी ही दूरी का तय पैसा बिना बहस के दे देगें।

आज के अहसास को क्या कल याद रखेंगे

अगर आप ध्यान दें तो संकट के इस वक्त में बड़े फैसले और ‘महत्वपूर्ण’ काम करने वाले ज्यादातर लोग घरों में बंद हैं और मूलभूत काम करने वाले सड़कों पर या अन्य जरूरी काम मे लगे हैं। आप जानते हैं क्यों? क्योंकि आपकी जरूरतों को वे पूरा कर सकें।

हालांकि आपको इस वक्त कई ऐसे छोटे काम करने वालों के ना होने का भी अहसास पीड़ा दे रहा हो जो आपके दिनचर्या के बेहद जरूरी हिस्से रहे है। लेकिन क्या इस अहसास को आप तब भी याद रख सकेगे जब जीवन सामान्य गति में उतर आएगा? संभवतः नहीं।

लॉकडाउन का सकारात्मक पक्ष

गत दिनों मेरी एक मित्र ने कहा कि इस समय का सदुपयोग करो और साफ-स्वस्थ हो चली हवा से फेफड़ों को मजबूत करो। बात सही थी। आंकड़ें को देखा जाये तो 26 मार्च, 2020 को नोएडा का एयर क्वालिटी इंडेक्स 77 का था. जबकि 2019 में इसी तारीख को यह आंकड़ा 156 यानी इसके दुगने से भी ज्यादा था।

लॉकडाउन के चलते स्वस्थ जीवन का सबसे अहम पार्ट स्वच्छ ताजी हवा की गुणवत्ता अचानक बढ़ गई है. यह देखना थोड़ा खुशी देता है कि दिल्ली-एनसीआर जैसे इलाकों में भी आजकल चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई देने लगी है।

हम भूल जाएंगे

लेकिन सवाल वही आखिर कब तक? लाॅकडाउन हटा नहीं कि लोग फिर विकास की दौड़ के नाम पर अपनी-अपनी गाड़ियां लेकर निकल पडे़गे, फैक्ट्रियां नियमों को ताक में रखकर फिर से काम करने लगेगी। अभी हम जो दूर होकर भी एक है, पल में फिर अपनी-अपनी वजहों से तलवारें खींचकर एक-दूसरे के सामने खड़े होगें, उसके चरित्र इसकीे असफलता की बयानबाजी पर उतर आयंगें। एक बार हम फिर सुबह के निकले रात घर आने भर की औपचारिता निभाने में मषगूल होगें।

हम भूल जाएंगे कि इस लॉकडाउन ने हमें नियमों में रहकर जीवन जीने का, परिवार के साथ वक्त बिताने का, पुराने दोस्तों और छूट चुके रिश्तेदारों को याद करने और उनसे फोन या मैसेजिंग के जरिये संपर्क में बने रहना बताया।

क्या आपको महसूस नहीं होता कि संभवतः यूनीवर्स ने हमें ये समय आत्मचिंतन के लिए ही दे दिया हो? जरा सोच के देखें।

कुदरत के साथ हमारे द्वारा किये जाते नित नये खिलवाड़ ने हमें चेताने के लिए ये खेल खेला हो कि जब इंसान ही नहीं बचेगा, तुम्हारे अपने ही नहीं बचेगें तो किसकी सुरक्षा के नाम पर तेल, पानी, हथियारों का जमावड़ा करोगे। बेतरतीब से काटते जंगलों को किसके नाम पर कालोनियां बसाने के लिए आबाद करोगें।

बदलनी होगी सोच और संकल्प

सोचो और संकल्प करो कि तुम दुनिया इंसानों के लिए बनाना चाहते हो ना कि अपनी बढ़ते लालच की इमारत को बुलंद करने के लिए। साफ हवा, हरियाली, साफ नदियां, समृद्ध ज्ञान, स्किल्ड प्रतियोगिता, मुस्कुराते चेहरे, खिलखिलाता बचपन, स्वस्थ शरीर, और लहलहाते खेत खलिहान-क्या इस तरह की देश की परिकल्पना करना मुश्किल है।

कोरोना वायरस लाखों की बलि लेकर अगर शक्तिशाली देशों-नेताओं को मानव जीवन के असल आवश्यक मूल्यों को समझाने में कारगर साबित होता है तो मैं भी इनमें से एक होने को तैयार हूं। हमें सदैव ये याद रखने की जरूरत है कि पंचतत्वों से हम है हमसे पंचतत्व नहीं।

इसलिए इनकी रक्षा जान देकर भी करनी पड़े तो पीछे नहीं हटे क्योंकि ये सुरक्षित और समृद्ध है तो ये दुनिया, देश-सीमाएं, घर-परिवार और हमारी आने वाले पीढ़ियां सुरक्षित है।

अंत में बस इतना कहना चाहूंगी कि यह ऐसी भयावह चुनौती है जिससे हम कब उबरेगें, पता नहीं।

पुनर्मूल्यांकन का समय

लेकिन यकीन मानिए यही वह समय है जबकि अपनी परंपराओं के दार्शनिक और आध्यात्मिक संसाधनों को खंगालना आरंभ करना होगा और एकजुटता, भरोसा, उम्मीद, दया का प्रदर्षन करते हुए एक सुर में कहना होगा कि ये विभीषिका हम पर भारी हो सकती है पर हमें तोड़ नहीं सकती।

हमें कुदरत स्वंय के पुर्नमूल्यांकन का समय दे रही है और चेता रही है कि देष-काल-सीमाओं से उठकर कर हम स्वस्थ मानसिकता के साथ स्वस्थ खुशहाल मानव जीवन के लिए काम करें। एक दूसरे की उन्नति में अपनी उन्नति का पाठ पढ़ना और पढ़ाना सीखें। अन्यथा आने वाली नस्लें जिंदा रह भी गई तो यही कहती पायी जायेगीं-

आईने में दिखता है टूटा सा अक्स अपना,

जख्मों की चोट खाकर यूं चटक सा गया हूं



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राम केवी

राम केवी

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