×

Martin Luther King: मार्टिन लूथर किंग की स्मृति में !

Martin Luther King: अमरीका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा शपथ लेने के बाद भाषण दे रहे थे। उन्होंने एक खास व्यक्ति का उल्लेख किया था जिनका सपना उनके राष्ट्रपति बनने से साकार हुआ। वे ही हैं मार्टिन लूथर किंग जूनियर, जिनके सूत्र “हम होंगे कामयाब एक दिन” (वी शैल ओवरकम वन डे) को विश्वभर के वंचित हमेशा से दुहराते रहे हैं। किंग के तीन शतकों पहले से मानवीय समता तथा स्वतंत्रता के लिए जंग चलती रही।

K Vikram Rao
Written By K Vikram Rao
Published on: 15 Jan 2024 6:20 PM IST
In memory of Martin Luther King
X

मार्टिन लूथर किंग की स्मृति में !: Photo- Social Media

Martin Luther King: ढाई सदी पूर्व 4 जुलाई, 1776 को आधुनिक विश्व का प्रथम समतामूलक गणराज्य स्थापित हुआ था। उसके संविधान का एक सूत्र है: “सभी मनुष्य समान हैं।” गत सप्ताह उसी राष्ट्र में फिर एक नयी नस्ली हिंसा फैली। गोरे सिपाही ने अश्वेत पुरुष का गला घोंट दिया। देशव्यापी दंगे हो रहे हैं। नैराश्य और पीड़ा के इस माहौल में अमरीकी गाँधी मार्टिन लूथर किंग जूनियर की याद अनायास आ जाती है। इस युवा सत्याग्रही ने कहा था, “अँधेरे से अँधेरा नहीं मिटता। रोशनी से वह हटता है।” वस्तुतः अकूत विकास की बिजली से चौंधियाता अमरीका आज मानसिक तनाव से जूझ रहा है।

कैसा था यह उजाले का मसीहा मार्टिन लूथर किंग

अमरीका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा शपथ लेने के बाद भाषण दे रहे थे। उन्होंने एक खास व्यक्ति का उल्लेख किया था जिनका सपना उनके राष्ट्रपति बनने से साकार हुआ। वे ही हैं मार्टिन लूथर किंग जूनियर, जिनके सूत्र “हम होंगे कामयाब एक दिन” (वी शैल ओवरकम वन डे) को विश्वभर के वंचित हमेशा से दुहराते रहे हैं। किंग के तीन शतकों पहले से मानवीय समता तथा स्वतंत्रता के लिए जंग चलती रही। अश्वेतों का संघर्ष शुरू हुआ, जब अफ्रीका से 1619 में खरीदा गुलाम अमरीका लाया गया था।

Photo- Social Media

मार्टिन को हमेशा अचरज होता रहा कि रंगभेद का प्रचलन संयुक्त राज्य अमरीका जैसे राष्ट्र में है, जिसकी स्थापना का आधारभूत उसूल था कि सब बराबर हैं। उन्होंने पाया कि हर रविवार के ग्यारह बजे गिरजाघरों में प्रत्येक ईसाई दोहराता है, “ईसा के घर में न पूर्व है, न पश्चिम, सभी समान है।” फिर भी गोरे और काले अलग-अलग पक्तियों में खड़े रहते हैं। आखिर दीपक भी रहता है, कालिमा ही लिए हुए।

रंगभेद की नृशंसता के शिकार रहे मार्टिन के जीवन और संघर्ष पर गौर करें तो भारतीयों को एहसास हो जाएगा कि ओबामा किस चिंतन के प्रतीक रहे। मार्टिन लूथर किंग की जिन्दगी में कई ऐसे हादसे गुजरे, जब वह ग्लानि से खुदकुशी कर लेता या क्रोध में हत्या पर उतारू हो जाता। लेकिन ध्येय की श्रेष्ठता और धर्म की उत्कृष्टता ने उसे सहिष्णु बना दिया था। बचपन में एक बार किसी दुकान पर एक गोरी महिला ने उसे तमाचा मारा और ”निग्गर“ (गोरों द्वारा कालों के लिए अपमान-वाचक सम्बोधन) कहा। बच्चा निर्दोष था, मगर शांत रहा। रेल में सफर करते मार्टिन को दो घंटे तक खड़ा रहना पड़ा था, क्योंकि उसे बलपूर्वक उठा कर एक गोरा उसकी सीट पर बैठ गया था। “जोहंसबर्ग के निकट एक भारतीय को तो रेल से धक्का दे दिया गया था; वह व्यक्ति बाद में भारत का राष्ट्रपिता कहलाया”, मार्टिन ने सोचा।

Photo- Social Media

मार्टिन को यकीन था कि यदि अश्वेत लोग आजादी का अभियान चलायेंगे, तो वे काले-गोरे के रिश्तों में दरार नहीं बनायेंगे, वरन् समन्वयवादी समाज की नींव डालेंगे। अश्वेतों में जागृति आने से यथास्थिति वाली व्यवस्था भंग नहीं होती, वरन् शाश्वत शांति का प्रयास शुरू होता है। मार्टिन ने यही चाहा था कि नैतिकता भले ही कानून द्वारा क्रियान्वित न की जा सके, पर गोरों के आचरण को अमरीकी सरकार नियमबद्ध तो कर ही सकती है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जब अमरीकी-अफ्रीकियों के कष्ट-सुख के प्रति अमरीकी समाज और सरकार क्रियाशील सरोकार नहीं पैदा कर पाई, तो छब्बीस-वर्षीय मार्टिन ने अन्याय से रार ठानी। हर क्रांति की शुरुआत छोटी सी घटना से होती आयी है। 1 दिसम्बर, 1955, को मांटगोमरी शहर के क्लीवलैंड एवेन्यू में बस पर अश्वेत युवती रोजा पार्क्स सवार हुई। बस में गोरों के लिए अगली दस सीट सुरक्षित रहती थी। इतना ही नहीं, यदि ज्यादा गोरे यात्री आ गये, तो बैठे हुए अश्वेत यात्रियों की सीटें खाली करवा ली जाती थी। बस कंडक्टर ने रोज़ा पार्क्स से गोरे मुसाफिर के लिए सीट देने को कहा। इंकार करने पर रोजा को पुलिस ने हिरासत में ले लिया। इस घटना से क्षुब्ध मार्टिन ने समस्त काले वर्ग को ‘बस बायकाट’ के लिए संगठित किया। बहिष्कार 368 दिन चला। इसका तात्कालिक असर पड़ा कि निजी बस कंपनियों को भारी क्षति हुई। उधर सर्वोच्च न्यायालय ने इसी बीच बसों में सुरक्षित सीटों की प्रणाली को गैरकानूनी करार दिया।

Photo- Social Media

“अमरीकी समाज में व्याप्त उथल-पुथल का कारण न्याय और अन्याय के बीच चल रहा द्वंद्व है”, मार्टिन की यह धारण थी। उसे दूर करने का उपयुक्त साधन वही है, जिससे उत्तेजना घटे और सौहार्द्र बढ़े। मार्टिन ने विचारक हेनरी डेविड थोरो की “एसेज आन सिविल डिसओबिडिएंस” पढ़ी। उसने पढ़ा था कि सुदूर दक्षिणपूर्वी एशिया के चंपारण और खेड़ा ग्रामों में अहिंसक सत्याग्रह द्वारा शोषित कृषकों की न्यायोचित मांग मनवायी गयी थी। गोरी बर्तानवी हुकूमत का खात्मा भी हुआ था, शांतिमय तरीके से। मार्टिन ने सत्याग्रह के अस्त्र को अमरीकी अश्वेतों की मुक्ति का साधन बनाया। “ब्लैक-पावर” के कई उग्रवादी अश्वेत नेतागण मार्टिन से असहमत थे। वे गोरे अत्याचारियों से लहू का प्रतिकार खून से चाहते है। मार्टिन की नीति थी: “व्यक्ति से वैमनस्य नहीं, बस उसके बुरे आचरण से विरोध है।” गोरों से घृणा नहीं है, उनके संकुचित दृष्टिकोण पर क्षोभ होता है। हमें नस्ल या दंगे के आधार पर नहीं वरन् अंतर्चेतनाओं का समर्थन जुटाना होगा, कहा था सामाजिक समरसता के इस मसीहा ने। यही बात साबरमती के संत ने दांडी यात्रा की बेला पर कही थी। मार्टिन की वाणी में वही प्रतिध्वनित हुई।

Photo- Social Media

एक प्रतिरोध वाले कार्यक्रम के तहत राष्ट्रीय राजधानी वाशिंगटन में शांतिमय प्रदर्शन करना तय हुआ। 28 अगस्त1963 को दो लाख लोगों ने, जिसमें कई गोरे भी शरीक हुए थे, राष्ट्रपति से मांग की कि रंगभेद की नीति वाले सारे कानून खत्म कर दिये जायें। युवा राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने उनके नागरिक अधिकार बिल का मसौदा तैयार किया। कैनेडी की हत्या वस्तुतः उनका निजी उत्सर्ग था, जिससे जनमानस में रंगभेद के प्रति नफ़रत जगी और कुछ ही महीनो में लाखों अश्वेतों को कानूनी मताधिकार मिल गया। ‘वाशिंगटन-मार्च’ के दिन मार्टिन ने लिंकन स्मारक भवन की सीढ़ियो पर से भाषण दिया था: “मैंने एक सपना देखा है। एक दिन आयेगा जब जार्जिया प्रदेश की पहाड़ियों पर बसे गोरे मालिकों और काले दासों की संताने साथ-साथ एक ही टेबुल पर प्रीतिभोज में शामिल होंगी।” केवल 35 वर्ष की आयु में ही उन्हें ‘नोबेल-शांति- पुरस्कार’ मिला, जिसमें अंकित था “किंग सदैव अहिंसावादी सिद्धांत के प्रतिपादक रहे।”

Photo- Social Media

बिना प्रतिहिंसा किये विरोधी में हृदय-परिवर्तन करने की प्रक्रिया की विशिष्ट जानकारी के लिए मार्टिन ने 1959 में सत्याग्रह की प्रयोग-भूमि भारत की यात्रा की। उन्होंने गाँधी स्मारक निधि के तत्वावधान में महात्मा के विचारधारा का विशद अध्ययन किया। संत विनोबा से मिले। गांधी शताब्दी समारोह में भाग लेने वे अहमदाबाद, पोरबंदर और सेवाग्राम (वार्धा) आने वाले थे। पर काल ने यह नहीं होने दिया। अपनी प्रथम भारत यात्रा पर उन्होंने कहा थाः “बुरे के जवाब में भला करना यीशु ने सिखाया था। भारत में गांधी ने दिखाया कि यह संभव है, कारगर भी।”

मेंफिस में सफाई करने वाले नीग्रो कर्मचारियों ने मानवोचित व्यवहार के लिए हड़ताल की तो मार्टिन उनका साथ देने गये। उन्होंने शांतिमय जुलूस निकाला, मगर यह हो न पाया। ईसा और गांधी का अनुयायी उन्हीं की राह पर विदा हुआ। अहिंसा के उपासक का हिंसक अंत हुआ। वे लारोइन मोटेल की छत से संबोधित कर रहे थे : “हम अब कामयाब होंगे। शायद मैं आपके साथ मंजिल तक न पहुंच सकूं।” दूसरे दिन ही 4 अप्रैल,1963 को उन्हें जेम्स अली राय नामक गोरे ने गोली मार दी। इसकी पुनरावृत्ति हुई 57 वर्ष बाद। वैसे ही आज फिर नस्लवादी अमरीका झुलस रहा है। उसकी यही नियति है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, गद्यकार, टीवी समीक्षक एवं स्तंभकार हैं। राजनीति व पत्रकारिता इन्हें विरासत में मिले हैं। तकरीबन तीन दशक से अधिक समय तक टाइम्स ऑफ इंडिया समेत कई अंग्रेज़ी मीडिया समूहों में गुजरात, मुंबई, दिल्ली व उत्तर प्रदेश में काम किया। तकरीबन एक दशक से देश के विभिन्न समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में कॉलम लिख रहे हैं। प्रेस सेंसरशिप के विरोध के चलते इमेरजेंसी में तेरह महीने जेल यातना झेली। श्रमजीवी पत्रकारों के मासिक ‘द वर्किंग जर्नलिस्ट’ के प्रधान संपादक हैं। अमेरिकी रेडियो 'वॉयस ऑफ अमेरिका' (हिन्दी समाचार प्रभाग, वॉशिंगटन) के दक्षिण एशियाई ब्यूरो में संवाददाता रहे।

(E-mail –k.vikramrao@gmail.com)

Shashi kant gautam

Shashi kant gautam

Next Story