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उस दिन 1969 में पहला पीएम गैर-कोंग्रेसी हुआ था !

First Non Congress PM: भारत के संसदीय इतिहास में आज 12 नवंबर 1969 आधी सदी पूर्व, एक जबरदस्त जलजला आया दिल्ली के साथ देश भी थरथराया था। सत्तासीन कांग्रेस पार्टी ने अपनी ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्राथमिक सदस्यता समाप्त कर डाली थी।

K Vikram Rao
Written By K Vikram Rao
Published on: 12 Nov 2022 6:07 PM IST
First PM Non Congress
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First PM Non Congress (News Network)

First Non Congress PM: भारत के संसदीय इतिहास में आज (12 नवंबर 1969), आधी सदी पूर्व, एक जबरदस्त जलजला आया था। दिल्ली के साथ देश भी थरथराया था। सत्तासीन कांग्रेस पार्टी ने अपनी ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्राथमिक सदस्यता समाप्त कर डाली थी। उसके पाँच दिन बाद इन्दिरा गांधी की 52वीं जयंती थी। उसके दो दिन बाद पिता जवाहरलाल नेहरू की अस्सीवीं। पार्टी आलाकमान नई दिल्ली के 7 जंतर मंतर रोड (अब जनता दल, यूनाइटेड कार्यालय) की पहली मंजिल के सभागार से बाहर आकर प्रतीक्षारत पत्रकारों को वरिष्ठ सांसद एसके (सदाशिव कान्होजी) पाटिल ने तब घोषणा की थी: "अनुशासनहीनता के अपराध में इंदिरा गांधी को कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित नहीं, निष्कासित कर दिया गया है।"

उस क्षण से काँग्रेस का जुगराफिया ही बदरंग हो गया था। हजार किलोमीटर दूर (यमुना तट से साबरमती तट) अहमदाबाद भी इस भूचाल का अधिकेंद्र रहा था। मुख्यमंत्री (कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य) चौवन-वर्षीय हितेंद्र कन्हैया लाल (हितूभाई) देसाई उसी शाम को अहमदाबाद लौटे थे। शाहीबाग हवाई अड्डे पर उनकी प्रेसवार्ता में सवाल मैंने पूछा था : "देश को पहला गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री मिला है। क्या ख्याल है आपका?" आदतन भी उनके होंठ खुले ही नहीं। जवाब टाल गए। उनके प्रणेता मोराजी देसाई इन्दिरा गांधी के घोरतम प्रतिद्वंदी रहें। इंदिरा गांधी को अपदस्थ करने में हितेंद्र देसाई के वोट का अत्यधिक वजन था।

इंदिरा गांधी के समर्थन और विरोधी सांसदों का वोट 10 बनाम नौ था। हितेंद्र देसाई का वोट मिलाकर दोनों गुट बराबर हो गए थे। अतः पार्टी अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा का निर्णायक वोट पड़ा था। उसी से इंदिरा गांधी निकाली गई थीं। इस घटना के ठीक छ सप्ताह पूर्व (सितंबर 1969) प्रधानमंत्री अहमदाबाद आई थीं। तब स्वाधीन भारत के गुजरात में भयंकरतम हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ था। इसकी जांच न्यायमूर्ति जगमोहन रेड्डी ने की थी। रपट के अनुरसार 660 लोग मरे थे, 1074 घायल हुए थे, 4,800 परिवार की संपत्ति को हानि हुई। करीब पाँच करोड़ रुपए की संपत्ति खत्म हुई थी। मृतक अधिकतर मुसलमान थे। प्रेसवार्ता में मेरा प्रश्न था : "प्रधानमंत्री जी, गुजरात जल रहा था तो कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपने काबीना बैठक में चर्चा करते घंटों तक मशगूल था।

क्या आप ऐसे नाकारा मुख्यमंत्री को बर्खास्त करेंगी?" इन्दिरा गांधी उत्तर टाल गई। कारण? उसी दौर में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के इंतकाल पर एन. संजीव रेड्डी कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी थे। वीवी गिरी बागी। इंदिरा गांधी ने संजीव रेड्डी को हरवा दिया था। इसी पार्टी-विरोधी हरकत की वजह से उनका निष्कासन हुआ था। कहने का तात्पर्य यही है कि मुस्लिम नरसंहार के अपराधी हितेंद्र देसाई के एक वोट का को पाने हेतु प्रधानमंत्री ने गुजरात के अल्पसंख्यकों की कतई मदद नहीं की। मरने दिया।

अब भले ही सोनिया ने कांग्रेस में गुजरात के मुख्यमंत्री रहें नरेंद्र मोदी को 2002 के गोधरा दंगे का दोषी मानकर "मौतों का सौदागर" कहा हो ! सास और बहू ने अपनी दलीय लाभ के लिए मुसलमानों पर दृष्टिकोण बनाया और बदला था। पार्टी विभाजन के बाद अपनी अल्पमत वाली सरकार को इंदिरा गांधी कम्युनिस्ट सांसदों की बैसाखी पर चलाती रही। तभी अपनों को सोशलिस्ट, क्रांतिकारी और वामपंथी दर्शाने के ढोंग में उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। राजाओं का प्रिवी पर्स निरस्त कर दिया था। "गरीबी हटाओ" का नारा दिया था। मगर फिर जेपी आंदोलन के बवंडर मे वे उड़ गई।

तो आज का इतिहास यही दर्शाता है।

अब कुछ अंतरंग निजी प्रसंग पेश हैं। इन्दिरा गांधी की रिपोर्टिंग (''टाइम्स आफ इंडिया'' के लिए) मैं ने इक्कीस वर्षों (1963 से 1984) तक किया है। प्रेस कान्फ्रेंस और जनसभायें मिलाकर। स्थल भी दूर—दूर तक रहे। पहली कोलकाता (अप्रैल 1963) से और आखिरी हैदराबाद (15 अक्टूबर 1984)। उनकी हत्या के ठीक दो सप्ताह पूर्व तक। बीच में आये मुम्बई, अहमदाबाद, वडोदरा, लखनऊ, रायबरेली आदि। वे तब सरकार में थीं। मै कवर करता रहा उनकी पराजय के बाद भी। फिर जब दोबारा सत्तासीन हुईं। तीन दशक की अवधि थी। यादें धुंधली नहीं हुईं, स्मृति ताजी ही है। आखिरी भेंट का पहले उल्लेख ही करें। सोमवार का अपराह्न था (15 अक्टूबर 1984)। उस दिन हैदराबाद के हुसैन सागर से सटे राज भवन के निजामी सभागृह में इन्दिरा गांधी पधारीं थीं।

पत्रकार वार्ता थी। प्रश्नोत्तर के बाद मैं मिलने मंच पर गया। आईएफडब्ल्यूजे का ज्ञापन मुझे देना था। श्रमजीवी पत्रकार वेतन बोर्ड गठित करने हेतु। न्यायमूर्ति डीजी पालेकर बोर्ड की संस्तुति के बाद दस वर्ष बीत रहे थे। ज्ञापन पढ़कर इन्दिरा गांधी का वाक्य था : '' यस यू जर्नलिस्ट्स हेव ए केस''। फिर राजीव गांधी ने न्यायमूर्ति भाचावत वेतन बोर्ड बनाया। उसी वक्त हैदराबाद में ही मैंने प्रधानमंत्री को सूचित किया था कि ''लखनऊ में दैनिकों (नेशनल हेरल्ड, नवजीवन तथा कौंमी आवाज) के कार्मिकों को कई माह से वेतन नहीं मिला है।

अत: आईएफडब्ल्यूजे की अपील पर लखनऊ के अखबार हड़ताल पर होंगे। आप जब लखनऊ में रहेगी तभी सभी दैनिक बंद रहेंगे। क्या आप चाहती है कि हेरल्ड कर्मचारियों की दीपावली अंधकारमय रहे?'' नवजीवन के चीफ रिपोर्टर हसीब सिद्दीकी ( मो. 9369774311) ने मुझे बताया था कि तब प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी से वार्ता की। वेतन का बकाया राज्य सूचना विभाग के विज्ञापन—बिलों का तुरंत भुगतान द्वारा मिली राशि से तनख्वाह दे दी गयी।

Prashant Dixit

Prashant Dixit

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