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Our Democracy: सत्ता व विपक्ष का बदलता चरित्र, अपराधीकरण व चुनाव में शराब बांटना लोकतंत्र के लिए ख़तरा
Our Democracy: आज जो परिवर्तन की लहर आयी है ।युवा पीढ़ी हमारी दिग्भ्रमित हो रही है। समाज के कुछ लोग जो अलग-अलग अपनी गोटियां बिछाकर राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं।
Lucknow: बदलाव की बात करें तो इसमें विद्यार्थी जीवन (Student life) भी आता है। इसके बाद सामाजिक जीवन (social life) आता है। सामाजिक जीवन में प्रवेश करने के बाद भी बहुत सी स्थितियां आती रहती हैं। जब मैं इस तरह से सोचता हूँ गांव की,शहरों की और समाज की स्थिति में सामाजिक विषमाता थी, आर्थिक विषमता थी, उसके साथ-साथ एक बात जरूरी थी कि लोगों में चरित्र रहता था। प्रेम रहता था। जो संयुक्त परिवार में एक दूसरे से मिलजुलकर रहने की भावना थी। उस समय भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं था। बहुत ही चरित्रवान लोग होते थे। जो बात कहते थे उस पर बिल्कुल अडिग रहते थे। मैंने देखा है वह समय भी जब हम लोग थोड़ा बड़े हुए अब शिक्षा को ही लें ले गांव में स्कूल नहीं थे। लोगों को पढऩे की कल्पना नहीं की थी। फिर धीरे-धीरे वह चीज बढऩे लीं। उस समय मिडिल स्कूल बोला जाता था ।
बचपन में 5 किमी दूर नंगे पैर पढऩे जाते थे। फिर स्थिति ऐसी बनी कि शहर में ही जो स्कूल होते थे, बड़े-बड़े वह भी बहुत नहीं होते थे। फिर लोग भाग-भागकर कहीं बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी जाते थे, कहीं दूसरे शहरों में जाते थे। उस स्थिति को भी हमने देखा है। उस स्थिति को भी देखा है जब जंगल हुआ करते थे । लोग जंगलों को पार करके जाते थे। लोग खेतों में भी काम करते थे इस तरह से तो आते-आते वह समय भी शुरू हुआ जब शिक्षा प्राप्त करने के बाद राजनीतिक चेतना कुछ आने लगी धीरे-धीरे। समय तो हमको याद है डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव । विद्यार्थी जीवन में आए बनारस विश्वविद्यालय में अशोक की कहानी देखने लगे। विचार देखने लगे। तो उसका परिणाम यह हुआ कि जो गांवों में विषमता की खाई थी।
धीरे-धीरे जागृति तेज होती गई
जो लोग अशिक्षित थे, और जो सामाजिक अस्पृश्यता थी, कष्ट था। उससे मुक्ति पाने के लिए नर-नारी में जो भेद था, उसमें भी समानता लाने के लिए मुक्ति संघर्ष की जरूरत है। सामंतवादी युग था । जमींदारी एक तरफ थी, किसान एक तरफ थे। आते-आते लेकिन ऐसी स्थिति भी आयी। लोगों में चेतना आयी आजादी की सांस लेने की। लागों का ध्यान गया। देश के अंदर जो किसानों में, मजदूरों में, चाहे गांव के रहने वाले हों, चाहे कस्बों के रहने वाले बुनकर हों या दूसरे समाज के लोग उनमें जागृति लाने का काम किया गया। कांग्रेस के साथ जुड़ गये देश के अंदर रहने वाले लोग भी एक से एक नेता थे कांग्रेस में भी । उसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे जागृति तेज होती गयी । वह जो कांग्रेस आगे चलकर 1920 के बाद लोकमान्य तिलक के देहांत के पश्चात थोड़े से सीमित बड़े लोगों के महलों में या घरों रहती थी , वह गाँधी जी के नेतृत्व व बाद में चलकर समाजवादी आंदोलन के नेता बने लोगों चलते जनता तक पहुँची।किसानों का शोषण था, साथ-ही साथ जो मिलें थीं , मिलों में भी मजदूरों का शोषण होता था। उसे समाप्त करने के नारे को लेकर सामाजिक संगठन भी बने।
राजनीतिक संगठन विशेष रूप से तो कांग्रेस पार्टी रही । इसी बीच में होते-होते देश आजाद हो गया। इसका असर यह हुआ कि उन्होंने लोगों से जो कहा उसे करने का मन बनाया। उस समय लोगों में अपनी बात कहने का साहस था। थोड़ा स्मरण में आ रहा है कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (Banaras Hindu University) के उद्घाटन के अवसर पर गांधी जी आए थे। राजे-महाराजे भी आए थे। भरी सभा में उन्होंने कहा कि आप लोगों के यह जो पहनावे हैं। गरीबों की बात करते हैं तो इसे उतारकर फेंक दीजिए। उनकी बात सुन कर के सब राजे-महाराजे उठ कर चले गये । लेकिन उनका एक लक्ष्य था। मैं इसलिए कह रहा हूं कि एक समय साम्राज्यवाद के आधार पर ब्रिटिश शासन द्वारा शोषण था। अकूत संपत्ति वह विदेश ले जाते थे। हमारे जो छोटे-छोटे उद्योग धंधे थे। वह नष्ट हो रहे थे। मेरे कहने कहने का मतलब यह है कि वह जो दबा हुआ समाज था। उपेक्षित समाज था। वह भी निकल करके बाहर आया। इसलिए भी आया कि अंग्रेज यहां से गये। चिंता का नामोनिशान न हो।मैं यह कह रहा था कि उस समय की जो दृष्टि थी समता लाने की समाज में उसके आधार पर बहुत कुछ परिवतर्तन हुए। कानून भी बने। आज इतना जरूर हो गया है कि वह कानून बनाकर उसे दंडनीय अपराध मान लिया गया है।
जब महिलाओं को भी अधिकार मिलने शुरू हुए
पंचायतों में भी अधिकार प्रदान किये गये हैं। महिलाओं को भी अधिकार मिला। अब इनका नेतृत्व भी धीरे-धीरे बहुत तेजी से होने लगा है। गांव से लेकर के जो दूसरी इकाई ब्लाक है ,उसके बाद शहर है फिर जनपद इकाई तक उसके आधार पर इनकी भागीदारी सुनिश्चित की गयी है। केन्द्र सरकार ने जो नरेगा की योजना बनायी है। (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार) उसका भी असर इतना हुआ कि विकास के काम तेज हुए हैं। जो लोग गांव से भागे जाते थे, शहरों को उन्हें रोकने की व्यवस्था हुई है। लेकिन उसका पालन जो हो रहा है, मैं उप्र के परिप्रेक्ष्य में कहना चाहता हूं कि प्रदेश सरकार का ध्यान उधर नहीं है। स्थिति हमारी वैसी की वैसी बनी हुई हैं। उसके पीछे एक कल्पना थी। कल्पना मूर्त रूप धारण नहीं कर पा रही है। इसी तरह ग्रामीण विद्युतीकरण की योजना है। वह भी नहीं हो पा रही है। टेक्रोलॉजी और संचार के क्षेत्र में तो भारत जरूर आगे बढ़ा है। 42 बिलियन डॉलर भी इसको प्राप्त हो रहा है। बहुत कुछ हो रहा है ।लेकिन राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए कि हमारी कथनी और करनी में अंतर कैसे मिटे , इस पर चर्चा होनी चाहिए ?क्येांकि जब हम सत्ता के बाहर रहते हैं तो कुछ कहते हैं , सत्ता में आने के बाद फिर भटक जाते हैं। इसी लिए यह जो बिंदु है इस बिंदु पर बहुत गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए ।
हमारे जो नेता रहे हैं उनका इतिहास उज्ज्वल रहा है। उन्होंने बहुत कुछ काम किए है। उन्होंने अंतर को नहीं देखा है। राजनतिक दलों जो घोषणापत्र देखें, साफ़ पता चलता है कि सत्ता में रहकर कुछ करते हैं। विपक्ष में रहकर कुछ करते हैं । ये जो कड़ी है इस कड़ी की विसंगति को दूर करना होगा। दूसरी बात यह है कि भ्रष्टाचार लोगों में घर कर गया है । कभी-कभी इतनी हार्दिक पीड़ा होती है। जब सुनते हैं कि प्रश्र पूछने के लिए भी पैसे लिए जाते हैं। दल-बदल के लिए भी सारा ममला होता है । हमारा चरित्र इतना गिर जाता है कि हमें संसार की परवाह नहीं रहती। विश्व हमारे बारे में क्या दृष्टिकोण अपनायेगा। इसकी चिंता भी हमें नहीं रहती। हम लोग सभा में गलत तरीके से नोटों के बंडल लहराने का भी काम करते हों तो बताइये फिर देश की स्थिति देश का गौरव, देश की राष्ट्रीयता का क्या होगा। यह भी एक सवाल है। इस पर सब लोगों को बैठकर सोचना चाहिए । तीसरी बात यह है कि ये जो अपराध बढ़ रहें हैं और उन अपराधों की वजह से जो हमारी पूंजी है। जो हर्ष लोभ का प्रश्र है , उसके कारण जो आतंकवाद बढ़ रहा है। हत्याएं बढ़ रहीं हैं , चाहें अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद हो चाहे देशों का आतंकवाद हो। देख रहे हैं जगह-जगह विस्फोटों की श्रृंखला पिछले दिनों खड़ी हो गयी है। चाहे अयोध्या में हो, फैजाबाद में हो बनारस में हो या दूसरे और सूबों में , अहमदबाद हो, बंगलौर हो, चाहे अक्षरधाम मंदिर हो , चाहे संसद पर हो। यह सारे राजनीतिक दलों को सोचने पर मजबूर करती है कि उन्हें आतंकवाद का एकजुट होकर मुकाबला करना चाहिए। सारे अपने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्र को सामने रखकर एक निर्णय लेकर के ऐसे तत्वों का पर्दाफाश करना चाहिए।किसी भी कीमत पर प्रश्रय नहीं मिलना चाहिए।
इसके बाद हमें आत्म चिंतन करना चाहिए और आत्म चिंतन करके हमारी जो कमियां हैं। उन कमियों को भी दूर करने का काम करना चाहिए। समय-समय पर जो भी हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायवाद का जो जोर पकड़ जाता है। इसको कैसे दूर करें? इसके बारे में भी सब लोगों को बैठकर चिंतन करना चहिए। क्योंकि जातिवाद, क्षेत्रवाद और सम्प्रदायवाद तीनों राष्ट्रीयता के दुश्मन हैं । राष्ट्र के दुश्मन हैं । समाज के दुश्मन हैं। हमारे विकास में जबर्दस्त रोड़े हैं। इसीलिए हम देख रहे हैं जम्मू-कश्मीर में क्या हो रहा हैं? राजनीतिक दल चुनाव में संशोधन करने की बात करते हैं , लाते भी हैं , विचार भी करते हैं । लेकिन जब समय आता है तो ऐसे तत्वों को टिकट भी देते हैं। जितवाते भी हैं । इतना ही नहीं, यह जानने के बाद कि वह अगर जेल में किसी केस में बंद हो गये हैं ।सजा भी हो गयी है । तो जेल में जाकर मिलने का काम करते हैं। ऐसे तत्वों का जनता को भी बहिष्कार करना चाहिए। कुछ ऐसा कानून बनना चाहिए कि इसे राष्ट्रीय अपराध माना जाए।
आज जो परिवर्तन की लहर आयी है । जिस तरह से समाज हमारा विच्श्रंखल हो रहा है। युवा पीढ़ी हमारी दिग्भ्रमित हो रही है। समाज के कुछ लोग जो अलग-अलग अपनी गोटियां बिछाकर राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं। उनको समाप्त करने का काम करना पड़ेगा। गांधी जी जब अफ्रीका में थे, उनका लडक़ा पढ़ रहा था। वहां से चिट्ठी लिखते थे- बेटा किताबी ज्ञान से ही सब कुछ नहीं होता तुम्हें अपने चरित्र पर भी ध्यान देना होगा। हम लोग गांधी जी की पूजा करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2 अक्टूबर को मनाया जायेगा। पूरे देश हीं नहीं संसार में भी । लेकिन हम लोग जब तक गांधी जी के जीवन से प्रेरणा लेकर काम नहीं करेंगे। तब तक न तो नैतिकता आएगी न ज्ञान बढ़ेगा। इसके लिए स्वयं चितन मनन करके इस दिशा में काम करने की आवश्यकता है। सामाजिक क्षेत्र, राजनीतिक क्षेत्र और धार्मिक क्षेत्र में काम करने वाले जो कट्टरपंथी नहीं हैं। जो पंथ निरपेक्षता में विश्वास करते हैं । ऐसे लोगों के उद्देश्यों पर अमल करके हम अपनी पुरानी विरासत को वापस ला सकते हैं। तभी हमारे देश और समाज का कल्याण होगा।
गांधी जी इस बात में विश्वास करते थे कि अगर व्यक्ति ठीक है तो समाज भी ठीक होगा ।समझ से देश बनता है, संसार बनता है। इसलिए समन्वय को ध्यान में रख करके हमें काम करना होगा । हमें त्याग भी करना पड़ेगा नैतिक जीवन में। त्याग करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।मैं मुख्यमंत्री भी रहा हूं मुख्यमंत्री पद पर रह कर करके जो काम मैंने किये हैं । वह पूरे प्रदेश की जनता जानती है। उसे दोहराने की जरूरत नहीं है। लेकिन इतना जरूर है कि जब तक मनुष्य में और विशेष रूप से जिसे नेतृत्व मिल गया है उसमें मानवीय संवेदना नहीं हो तब तक उस पद की गरिमा की रक्षा भी नहीं की जा सकती। पद की गरिमा की रक्षा करने के लिए संवेदना जरूरी है और संवेदना तभी आएगी जब सोच वैसी होगी। देखिए बाढ़ भी आयी, सूखा भी था, भीषण सूखा था लेकिन उसके बावजूद लोग आज भी याद करते हैं सूखे में जिस तरह से लोगों की मदद की गयी। मैं इसलिए कह रहा हूं हम लोगों में काम करने की भावना थी। हम लोग उस संघर्ष से निकल कर आए थे। जिस संघर्ष में सच्चे समाजवाद की कल्पना की जाती थी। सामाजिक विषमता को दूर करने की । जो लोहिया द्वारा समाचारित सात क्रांतियां थीं उनको लाने के लिए तो उस समय इतने काम हुए और जनता को विश्वास में लिया गया। जब हम लोग सक्रिय हो गये तब अधिकारी भी सक्रिय रहे। उनकों भी श्रेय देता हूं । अगर उन लोगों ने सहयोग नहीं किया होता तो उस समय शायद वह भीषण बाढ़ और सूखे के संकट का सामना हम नहीं कर सकते थे।
जब विधानसभा के स्वरूप का सवाल है तो उस समय सवाल आते थे बहस होती थी बैठकर विचार-विमर्श होता था। ऐसे समय सभी दलों के नेताओ को बुलाकर बातचीत होती थी क्या करना चाहिए। इस पर भी बात होती थी। मैं आपको बता रहा हूं कि प्लान बनने के पहले भी विरोधी दल के नेताओं के साथ बैठकर उनसे भी चर्चा होती थी कि बताइये प्रदेश का विकास कैसे होगा? फिर उसके साथ-साथ जब योजनाएं बन भी जाती थीं। बजट भी पास हो जाता था। कभी संकट का कुछ आते थे। तो लोगों से बैठकर विचार-विमर्श होता था। बहस का वातावरण बनता था। हालांकि मुझे याद है कि मैं सरकार में था। मुख्यमंत्री था। लेकिन हमारे भी लोगों को भी समय-समय पर इतनी छूट थी। विधानसभा में भी बोलने की इतनी आजादी थी कि वह लोग सरकार के खिलाफ भी बोल जाते थे। अपने लोग भी। हालांकि वह अच्छा नहीं था लेकिन फिर भी चलता था। तब से आज में अंतर यह हो गया है कि अब तो सरकार की तरफ से जो सहिष्णुता होनी चाहिए। संवेदनशीलता होनी चाहिए। सुनने की शक्ति होनी चाहिए। वह नहीं रह गयी है। जरा सी बात आती है तो सरकार का भी दायित्व होता है कि लोकतंत्र में विपक्ष का भी दायित्व होता है। लोकतंत्र के दो पाये हैं। एक के हाथ में सत्ता है। दूसरे के हाथ में विपक्ष में बैठने की। इन दोनों से मिलकर ही संसद बनता है। जब संसद बनता है तो ऐसी सूरत में आज की स्थिति ऐसी है, बहस नहीं। हो पाती। समस्याएँ उठ नहीं पातीं। दलीय आधार पर लोग आपस में वहीं पर टकराते हैं। विवाद छिड़ते हैं। कभी कभी तो इतना अशोभनीय व्यवहार हो जाता है कि लोग मारपीट करने पर उतारू हो जाते हैं। स्पीकर तक पहुँच करके काग़ज़ भी फाड़ने की कोशिश करते हैं। फेंकते भी हैं।
मैंने पहले ही एक बात कही है कि ये जो राजनीति में अपराधीकरण हो रहा है। अपराधियों को जो प्रश्रय दे रहे हैं, ये हमारे लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। चिंता का विषय इसलिए और भी है कि जब ऐसे आपराधिक तत्वों को बढ़ावा मिलेगा तो समाज के जो दूसरे वर्ग के लोग, गरीब तबके के लोग और वैसे लोग हैं, जिनकी ज़मीन हड़पी जायेगी, उनके साथ अन्याय होगा, जब अन्याय होगा तो कोई जल्दी अन्याय के खिलाफ खड़ा नहीं होगा। जो खड़ा होगा उसका भी सर कलम कर दिया जायेगा। माने अपराधी हो जायेंगे-एमएलए , एमपी। वह अगर मुलज़िम है तो उसके गवाह भी गवाही नहीं दे पाता, दिया तो वह भी मार दिया जाता है। ऐसी स्थिति बन गयी है । मैं जानता हूँ बहुत से ऐसे अपराधियों को कि गवाह दर गवाह मार दिये गये, तो इसलिए मैं कह रहा हूँ अब तो एक तरह से विधानसभा को ऐसे समझता हूँ कि यह झगड़े का अड्डा बन गया है।
राजनीति के अपराधीकरण के ज़िम्मेदार दो वर्ग
राजनीति के अपराधीकरण के ज़िम्मेदार दो वर्ग हैं। एक तो राजनीति करने वाले और दूसरे राजनीति में काम करने । बढ़ाने वाले कौन हैं। बढ़ाने वाली जनता। क्यों कि हम टिकट देते है। तो जनता उनको जिता देती है। इसीलिए दोनों ज़िम्मेदार हैं। नेता वर्ग विशेष रूप से ज़िम्मेदार है। उनको चाहिए यह कि ऐसे लोगों को किसी क़ीमत पर टिकट न दें। न राजनीति में किसी स्टेज पर उनको प्रोत्साहन देना चाहिए । न उनसे संपर्क रखना चाहिए । जितना ही आप उनसे संपर्क रखेंगे। उतना ही वह हमारे प्रदेश के, देश के , समाज के गरीब और दूसरे लोग हैं, जो प्रताड़ित हैं, उनका मन दुखी होगा। फिर विकास की कड़ी तेज होनी चाहिए । विकास की कड़ी रूक जायेगी। जब रूक जायेगी तो हमारा चरित्र भी बहुत ख़राब होता जायेगा।
मैं ऐसा समझता हूँ कि राजनीति के लिए , लोकतंत्र के लिए धन बल के साथ साथ पशुबल यानी पाक शक्ति, बाहुबली ये दोनों बहुत ही बाधक हैं। इनके साथ एक और मामला जुड़ गया है- चुनाव के समय में और उसके बाद मदिरा के आधार पर गाँव में जो वोट लिये जा रहे हैं। इसका बहिष्कार होना चाहिए । और जैसे तैसे पैसे वाले आख़िर कैसे पैसे वाले होते जा रहे हैं। कल का कोई विधायक हैं। एक बार विधायक बन गया। आज की देखिये समाज की क्या स्थिति बन गयी है। कोई एमपी एक बार हो गया तो क्या स्थिति बन जाती है, क्यों ऐसा है? सोचना पड़ेगा। सांसद को भी सोचना पड़ेगा कि हमने जो इतना कर लिया है , विधायक को भी सोचना पड़ेगा कि यह समाज के लिए अच्छा नहीं है। जनता भी जिस तरह से ऐसे लोगों का सम्मान करती है, मुझे बहुत तकलीफ़ होती है। नेता आपराधिक तत्वों से जिनके ख़िलाफ़ बहुत से मुक़दमे दर्ज हैं, चार्जशीट लगी हुई है, सजा भी हुई है, जब जेलों में जा करके, मिल करके उनके पीठ थपथपातें है, उनका सहयोग देने की भावना व्यक्त करते हैं। तो बहुत तकलीफ होती है। समाज के लिए अच्छा नहीं है यह।
युवा शक्ति सचमुच ही देश के लिए बहुत विचित्र शक्ति है। अच्छी शक्ति है। इसका उपयोग जितने ही अच्छे ढंग से अच्छे मार्ग पर चलने के लिए होगा। उतना ही देश का भी भला होगा। लेकिन तथ्य यह भी है कि आज हमारे युवा समुदाय में कुछ प्रतिशत ऐसे लोग भी हैं जो दिग्भ्रमित हो जाते हैं । कैसे भ्रमित हो जाते हैं। जो राजनीतिक दल हैं उनसे अपने को संबद्ध कर लेते हैं। जब संबद्ध कर लेते हैं तो राजनीतिक दलों की जो विचारधारा है। उसी विचारधारा पर वह भी काम करते हैं। लेकिन राजनीति करने वाले लोग राजनीतिक दल उनके दल से प्रेरणा मिल जाती है , जो साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाडऩे की कोशिश करते हैं। आपराधिक तत्वों को प्रश्रय देने का काम करते हैं। इधर-उधर जो नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए उसे भी ताक पर रखकर अपने काम को आगे बढ़ाना चाहते हैँ ।
राष्ट्रहित सर्वोपरि
राष्ट्रप्रेमी लोग कह रहे हैं जिनका त्याग और बलिदान रहा देश के लिए उनको तो इतिहास के पन्ने पढक़र छोड़ देते हैं। उनका आचरण नहीं करे हैं। ऐसा भी देश के लिए अच्छा नहीं हो रहा है। इसलिए उन्हें भी गंभीरता के साथ सोचना चाहिए और राष्ट्रहित को सामने रखना चाहिए। हमारे यहां इतनी बेकारी भी है, शिक्षा में असमानता भी है, यह भी एक कारण है। गरीबों के लिए किसी तरह की शिक्षा है और अमीरों के लिए दूसरी तरह की। यह जो स्थिति बनती है। वह भी एक फैक्टर है। शिक्षा में एक और परिवर्तन की आवश्यकता है। वैसे बहुत कुछ हुआ भी है। लेकिन अभी और कुछ करना बाकी है। इसलिए लोगों को जितना ही आप राष्ट्रभावना से प्रेरित होकर सामाजिक धारा में जोड़ करके ले चलने का काम करेंगे उतनी ही हमारी युवा शक्ति भी राष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ेगी। जनमानस को भी जोड़ते हुए राष्ट्रीय पथ पर ले जाने का काम करेगी।
हां यह बात सही है कि हम लोग नारा देते थे गैर कांग्रेसवाद का और गैर कांग्रेसवाद का नारा इसलिए देते थे कि कांग्रेस बहुत दिनों तक सत्ता में रही और हम लोग तो लोहिया जी, आचार्य नरेन्द्र देव के, जयप्रकाश नारायण जी के नेतृत्व में रह करके जेल जाते थे। संघर्ष करते थे। करीब बीस बार तो मेरी गिरफ्तारी हुई है। तब जाकर यह हुआ कि कैसे हम लोग आगे बढ़ेगे। यह हुआ कि सबको मिलाकर चलना पड़ेगा। लेकिन जानते हैं उसका परिणाम क्या हुआ महत्व दिया गया। सत्ता में भी लोग आये । सरकारें बनीं 1967, 1969 में । लेकिन क्या हासिल हुआ जनता पार्टी भी बनी, जनता पार्टी भी टूट गयी।
सरकार भी चली गयी। आप तो गैर कांग्रेसवाद समर्थक रहे । अब कांग्रेस में आ गये। अब नारों से काम नहीं चलने वाला । धरातल पर आ करके हमें सोचना पड़ेगा, सोच करके और समाजवादी चिंतन से जुड़ करके फिर जो एक धारा रही है उस धारा के साथ जुडऩा चाहिए। तब हमने भी कथनी और करनी के अंतर , राजनीतिक स्वार्थपरता को देख करके मन बनाया कि इससे देश का कल्याण होने वाला नहीं है। समाज का भी कल्याण नहीं होने वाला है। इसलिए हमने राजीव गांधी जी के नेतृत्व में सन् 1989 में राज्यसभा की सदस्यत से त्यागपत्र देकर कांग्रेस से जुड़ा। मैं उस समय पार्लियामेंट्री बोर्ड का आल इण्डिया का जनरल सेक्रेटरी था, राज्यसभा में डिप्टी लीडर था उससे भी त्याग पत्र देकर आया। चाहता हूं कि और भी देश आगे बढ़े । विकास की दर हम 8 से9 फीसदी ले आये हैं । जो बिजली की कमी है उसे कमी को पूरा करने के लिए अभी जो एग्रीमेंट अमेरिका से हो रहा है । जिसे इंटरनेशनल न्यूक्लियर अथारिटी के 18 सदस्यों को पास कर दिया। इससे बिजली संकट दूर होगा। उप्र में कांग्रेस को खड़ा करने का दायित्व हम सब लोगों पर है कुछ ऐसी परिस्थितियां आयी हैं उनके कारण भी कांग्रेस को यह स्थिति देखनी पड़ी।
हम भी कभी-कभी चिंतित होते हैं कि जो स्थिति उप्र की है। जहां से राजनीति का जीवन चलता रहा। जिसने इतने प्रधानमंत्रियों को दिया। इतने बड़े-बड़े राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को दिया। आज उप्र में कांग्रेस की जो स्थिति है उसका मूल करण यह है उस समय क्षेत्रवाद नहीं था। जाति के आधार पर दलों का गठन नहीं था। राष्ट्रीय सोच थी उस समय। सम्प्रदायवाद की गंध भी नहीं था। सब लोग एक होकर लड़ते थे। एक होकर रहते थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है। सेंटीमेंट के आधार पर लोग उड़ते हैं , इसलिए जो यह दिन देखने को मिला है। हमें विश्वास है कि इस समय जो किसानों का 71 हजार करोड़ से ऊपर का कर्जा माफ हुआ है। जो बिजली देने की योजना है ।
सेज एग्रीमेंट है, पावर के लिए जिसमें कहा गया है कि 2020 तक हम 20 हजार मेगावाट बिजली पैदा करेंगे और फिर 2030 तक 40 हजार मेगावाट करेंगे। और तो बिजली घर-घर बिजली पहुंचेगी। ये जो सारी बातें हैं समीक्षा अभियान है । बच्चों के लिए मिड डे भोजन है। ड्रेस है। ये जो साारी योजनाएं हैं उसका लाभ जनता तक जाएगा । हमारी कमजोरी कुछ यह भी रही है कि जो निर्णय हुए हैं उसका पालन करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की रही है। वहां हमारी सरकारे नहीं थीं। उन लोगों ने खुल करके केन्द्र सरकार द्वारा दिये गये पैसे के आधार पर जो योजनाओं को अमल में लानी थीं उसे अपना कह करके करना शुरू कर दिया। जिससे धक्का लगा है। अब कांग्रेसजन सजग हो गये हैं। सोनिया गांधी जी के नेतृत्व में और राहुल जी का नया नेतृत्व भी लोगों को मिल गया है उसके आधार पर अब सब लोग मिल करके काम करेंगे। आने वाला भविष्य कांग्रेस का ही होगा।
प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी जी से मिलकर फैसला किया कि विश्वास मत प्राप्त करेंगे जबकि वामपंथियों ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। बसपा ने वापस लिया था। तो उस समय सपा ने भी राष्ट्र हित में समर्थन देने का फैसला किया और प्रस्ताव पास भी हो गया। आज भी उनका समर्थन है। लगता है कि आने वाले दिनों में नेतृत्व जो है इस पर गंभीरता से विचार करके कुछ और कदम आगे बढ़ायेगा । ताकि वोटों का बंटवारा कम हो सके। प्रदेश की जो सरकार है इतनी निकम्मी बैठी है। जो केवल लखनऊ में अरबों रूपये बहा करके गरीब जनता की रोजी के साथ खिलवाड़ कर रही है। गन्ना किसानों का बकाया है। संवदेन शून्य हो गयी है।
'हमारी उम्मीद अपनी पार्टी पर टिकी है लेकिन इतना जरूरी है कि कुछ राजनीतिक विवशता होती है । कभी-कभी अपने लिए भी, दूसरे के लिए भी। तो उस समय पुरानी बातों को भूल करके नया इतिहास बनाने के लिए कुछ कदम दोनों लोगों को आगे बढ़ाना पड़ता है। हम भी आगे बढ़े हैं और वह भी आगे बढ़े हैं और देखा जाय भविष्य में कितना कदम आगे बढ़ करके किस तरह से हम लोग कुछ सार्थकता को प्राप्त कर सकेंगे जिसकी कल्पना अब है। न तो साम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा मिले । वामपंथियों का तो सवाल ही नहीं है । और जो बीएसपी की महानेत्री मायावती जी को वामपंथी लोग प्रधानमंत्री का दर्जा देने के लिए लालायित थे। खड़ा कर रहे थे।वह भी हमारे सामने समस्या है। हालांकि कभी वह राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रधानमंत्री के रूप में आने का जो सपना देख रही हैं वह पूरा होने वाला नहीं है। वह चकनाचूर हो जाएगा।
( मूल रूप से 23 August,2008 को प्रकाशित । उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव से बातचीत पर आधारित ।)