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Indian Education System: जब मजाक बन जाये पढ़ाई
Indian Education System Issues: प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों को पता ही नहीं था कि वो किस बात का विरोध करने जमा हुए हैं, वे जो तख्तियां, पोस्टर पकड़े थे उसमें क्या लिखा है ? वो यह तक नहीं पढ़ पा रहे थे।
Indian Education System Issues: चुनावी मौसम है सो तरह तरह की विस्मयकारी बातें, जानकारियां, सूचनाएं निकल कर आ रही हैं। ऐसी ऐसी बातें जो हैं तो बहुत गम्भीर और हिला देने वाली। लेकिन नेताओं के प्रभामण्डल में सब कुछ दबा जा रहा है, गौण हो जा रहा है।
भाषण, बयान, वादे, आंकड़े से लेकर दौलत के खुलासे और कैश फ्लो तक अनेक चीजें ऐसी हैं, जिन पर बहुत विस्तृत और गम्भीर चर्चा होनी चाहिए । लेकिन नहीं हो रही। उसकी एक ही आसान वजह नजर आती है, हमारी समझ, हमारा आईक्यू, हमारा बौद्धिक स्तर। बात कठोर और चुभने वाली है, बहुत खराब भी लगेगी। लेकिन सच्चाई यही लगती है। हम या तो गैंडे जैसी सख्त और बेहद मोटी चमड़ी के हो गए हैं जिस पर कुछ भी फेंको तो असर नहीं होता या फिर मिट्टी के लोंदे हैं जिसके न आंख है, न कान और न मुंह और न दिमाग।
अपनी स्थिति को गिनाने चलेंगे तो लिखते ही चले जायेंगे सो एक वाकये का जिक्र करते हैं जो टीवी, अखबार और खासकर सोशल मीडिया पर खूब हाईलाइट हुआ, खूब चला। हालांकि डांस ऑफ डेमोक्रेसी में मगन सबके बीच बहुत जल्द दरकिनार भी हो गया। वाकया हाल ही में दिल्ली का है जहां बैनर, पोस्टर, तख्तियां ले कर ढेरों विद्यार्थी जमा हुये। मुद्दा था कांग्रेस और उसकी चुनावी घोषणाओं का विरोध करना।
प्रदर्शन करने के लिए नम्बर दिए जाएंगे
बात तो अच्छी है, नौजवानों को जागरूक होना चाहिए, अपने विचार रखने चाहिए, मुखर होना चाहिए। चुनावों के बीच इतनी समझदारी का प्रदर्शन, कितनी बढ़िया बात है। लेकिन एक पेंच हो गया। एक उत्साही टीवी पत्रकार युवाओं से प्रभावित हो कर उनके बीच पहुंच गया। बातचीत करने लगा। बस यहीं पूरे उत्साह पर घड़ों पानी फिर गया। प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों को पता ही नहीं था कि वो किस बात का विरोध करने जमा हुए हैं, वे जो तख्तियां, पोस्टर पकड़े थे उसमें क्या लिखा है ? वो यह तक नहीं पढ़ पा रहे थे। राजनीतिक समझ तो कोसों दूर, सामान्य ज्ञान तक की ए बी सी पता नहीं थी। पता चला कि देश की ये युवा शक्ति, ये कर्णधार, यूपी, एनसीआर की जानीमानी गलगोटिया यूनिवर्सिटी के थे। यूजीसी से मान्यता प्राप्त यह यूपी एनसीआर की एक बड़ी प्राइवेट यूनिवर्सिटी है, जिसे 'नैक ए प्लस' रैंकिंग भी मिली है। प्रदर्शन करने जुटे विद्यार्थियों ने बताया कि उन्हें यूनिवर्सिटी ने कहा है कि प्रदर्शन करने के लिए नम्बर दिए जाएंगे जो उनके परीक्षाफल में जुड़ेंगे।
यह पूरा वाकया सोशल मीडिया पर बहुत उपहास का पात्र बना। अनेकों मीम बन गए। लेकिन यह घटना, यह एपिसोड मात्र हास्य या उपहास के काबिल नहीं बल्कि बेहद गंभीर चिंतन का विषय है। सच्ची बात तो यह है कि यह घटना हमारे युवाओं के संग शिक्षा के नाम पर हो रहे मज़ाक को दर्शाती है। पढ़ाई यानी टारगेट सिर्फ डिग्री क्योंकि डिग्री शायद दिलाये नौकरी। ये भी भ्रम है।
भारत में कोई 1100 से ज्यादा यूनिवर्सिटी हैं, करीब 45 हजार कॉलेज हैं। करीब सात करोड़ ग्रेजुएट हैं। टेक्निकल योग्यता वाले 73 लाख से अधिक हैं। 30 लाख से अधिक लोगों के पास शिक्षण डिग्री और 15 लाख से अधिक लोगों के पास मेडिकल डिग्री है। आबादी के लिहाज से ये आंकड़े बेहद कम हैं। 140 करोड़ से ज्यादा की आबादी सिर्फ 8.15 फीसदी ग्रेजुएट, हैरतअंगेज बात है। उससे भी ज्यादा हैरानी की बात इनके ज्ञान, जागरूकता के स्तर की है।
भारतीय ग्रेजुएट और रोजगार का हाल
यह जान लीजिए कि 2021 में जारी इंडिया स्किल रिपोर्ट से पता चलता है कि आधे से भी कम भारतीय ग्रेजुएट रोजगार के काबिल हैं। यह काबलियत बढ़ने की बजाए घटी ही है, क्योंकि रिपोर्ट से पता चलता है कि 2021 में लगभग 45.9 प्रतिशत ग्रेजुएट रोजगार योग्य थे, जबकि 2020 में 46.21 प्रतिशत और 2019 में 47.38 प्रतिशत थे। यानी साल दर साल गिरावट ही आई है। पॉलिटेक्निक करने वाले छात्रों में तो सिर्फ 25.02 प्रतिशत ही रोजगार के काबिल पाए गए। पॉलीटेक्निक में तो हुनर सिखाये जाते हैं, तो वहां भी क्या लक्ष्य सिर्फ डिप्लोमा हासिल करना है?
एक और रिपोर्ट को जानिये। रोजगार दिलाने वाली कंपनी एस्पायरिंग माइंड्स की एक रिपोर्ट के अनुसार तो भारत में लगभग 47 प्रतिशत ग्रेजुएट किसी भी नौकरी के काबिल नहीं हैं। इसी कंपनी का कहना है कि 80 फीसदी इंजीनियरिंग ग्रेजुएट नौकरी के योग्य नहीं पाए गए।
ये है सच्चाई। डिग्री बहुत हैं लेकिन टैलेंट नहीं है। किसी भी सेक्टर की छोटी बड़ी किसी कम्पनी में दरियाफ्त करके देख लीजिए, किसी को असल योग्य लोग नहीं मिल रहे। मीडिया सेक्टर, जहां माना जाता है कि इसमें लिखने पढ़ने वाले जागरूक दिमाग वाले लोग काम करते हैं, में बड़ी डिग्रियों वाले ऐसे युवाओं की कमी नहीं जिनको न अपने इर्दगिर्द की खबर है न चार लाइन ढंग से लिखने का सलीका।
दोष दें भी तो किसको दें? जहां से डिग्रियां हासिल कीं हैं, ग्रेजुएशन किया है, वहां पढ़ाने वाले भी इसी समाज की ही उपज हैं। यही सिलसिला है।
यह कठिन समस्या है। लेकिन इसे समस्या कोई माने तब न। इस चुनावी मौसम में क्या कहीं से इस पर कोई चर्चा, कोई चिंता दिखाई दी? घोषणापत्रों में भी सिर्फ इतना कह कर इतिश्री कर ली गई कि शिक्षा पर ध्यान देंगे। क्या गलगोटिया यूनिवर्सिटी के एपिसोड पर कोई गंभीर बहसाबहसी छिड़ी?
व्हाट्सएप और फेसबुक वाला ज्ञान बन रहा चिंता का सबब
हम युवा राष्ट्र होने का गौरव करते हैं। लेकिन शिक्षा पर कुल जीडीपी का मात्र साढ़े तीन फीसदी खर्च करते हैं। इस खर्चे का भी आउटकम क्या है, वह सबके सामने है। जागरूकता की भी क्या कहें। जब ज्ञान व्हाट्सएप, फेसबुक और रील बनाना हो जाए तो क्या कहेंगे। सर्वे बताते हैं कि युवा अखबार तक तो पढ़ते नहीं। जो पढ़ते भी हैं उनका उद्देश्य कोई प्रतियोगी परीक्षा पास करना भर होता है।
समस्या बहुत बड़ी और चुनौतीपूर्ण है। दुर्भाग्य से ज्यादातर लोग इसे समस्या मानने तक को तैयार नहीं। युवा बेचारे करें भी क्या, रोजी रोटी का जुगाड़ करें कि जागरूक बनें और बनाएगा भी कौन? जागरूक होंगे तो सवाल पूछेंगे और सवाल किसी को अच्छे नहीं लगते।
क्या आप ऐसा कुछ करेंगे? अगर हां तो अपने घर से, खुद से ही शुरुआत करिये। जरूरत आपको भी है। और हां, सिर्फ बादाम अखरोट से काम नहीं चलने वाला। जतन कई करने होंगे। देश को बिज़नेस मूड व मोड़ में डाल दिया गया है। तभी तो दुनिया हमें बाज़ार समझती है। हम सब को मिलकर इसे ज्ञान मूड व मोड़ में लाना होगा। करिये जरूर, यह भी राष्ट्र की सेवा ही होगी।
(लेखक पत्रकार हैं ।)