TRENDING TAGS :
Indian Exam System: नॉर्मल परीक्षा, एबनॉर्मल सिस्टम
Indian Exam System: इन दिनों प्रदेश स्तरीय सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा पर बवाल मचा हुआ है। खासकर कर यूपी और बिहार में, जहां सरकारी नौकरियों को चाहने वालों की संख्या बहुत बड़ी है।
Indian Exam System: पढ़ाई करने की परीक्षा फिर पढ़ाई पास करने की परीक्षा फिर नौकरी पाने की परीक्षा। परीक्षा ही परीक्षा। जंग के मैदान बनी परिक्षाओं ने अब तो वाकई जंग का रूप अख्तियार कर लिया है। परीक्षा के हर पहलू पर धरना प्रदर्शन, कोर्ट कचहरी तक की दास्तानें अब आम होती जा रही हैं। शायद ही कोई परीक्षा हो जिसे सवालों का सामना न करना पड़ता हो। लेकिन सबसे बड़े सवाल सरकारी एजेंसियों द्वारा कराई जानी वाली परीक्षाओं और सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षाओं को लेकर हैं।
इन दिनों प्रदेश स्तरीय सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा पर बवाल मचा हुआ है। खासकर कर यूपी और बिहार में, जहां सरकारी नौकरियों को चाहने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। लोक सेवा आयोग की ईमानदारी, जातिवाद, बेहद विलंबित टाइमटेबल वगैरह के बारे में तो आरोप - सवाल - विरोध चलता ही रहा है लेकिन इस बार बवाल परीक्षा के तरीके पर है। तरीका, जिसे नॉर्मलाइज़ेशन का नाम दिया गया है। कहने को तो ये सिस्टम बड़ा आसान है - जब ज्यादा कैंडिडेट्स होते हैं तो परीक्षा दो शिफ्ट में या फिर एक से ज्यादा दिन में कराई जाती है। हर परीक्षा में अलग-अलग प्रश्न पत्र के सेट होते हैं। अलग अलग पाली में बैठे कैंडिडेट्स जितने नम्बर पाते हैं, बाद में उन नम्बरों का एवरेजीकरण कर दिया जाता है। यही नॉर्मलाइज़ेशन है। मसला ये है कि इसमें किसी एक पारी वालों के नम्बर घट सकते हैं और किसी पारी वाले के बढ़ सकते हैं। इसी का विरोध है।
वैसे, सिर्फ राज्य लोक सेवा आयोग ही नहीं, नीट, क्लैट, पुलिस भर्ती, रेलवे भर्ती वगैरह तमाम परीक्षाओं में यही हुआ है और हो रहा है।
नॉर्मलाइज़ेशन की नौबत क्यों?
सवाल ये भी दीगर है कि इस नॉर्मलाइज़ेशन की नौबत ही क्यों है? हुक्मरानों का सीधा जवाब होता है कि कैंडिडेट्स ज्यादा हैं सो सबका एक साथ एग्जाम करना मुमकिन ही नहीं होता।
लेकिन ये जवाब काफी कमजोर सा दिखता है। यूपी के लोकसेवा आयोग की ही बात करें। एक अप्रैल 1937 को इसकी स्थापना हुई थी। 87 साल बीत चुके हैं। बिहार का लोक सेवा आयोग कुछ बाद में, एक अप्रैल 1949 को बना। 75 साल उसको हो गए। इतना लंबा समय बीतने के बाद आज दोनों ही आयोग इस काबिल न बन सके कि पांच छह लाख कैंडिडेट्स की परीक्षा एक साथ करा सकें।
उत्तर प्रदेश जैसा राज्य जहाँ 55 से ज्यादा यूनिवर्सिटी हैं 7500 के करीब डिग्री कॉलेज हैं फिर भी कैंडिडेट्स को एक साथ बिठाने में समस्या है। अगर सब कालेजों और यूनिवर्सिटी को मिला दें तो प्रति संस्थान 50 कैंडिडेट ही परीक्षा देने बैठेंगे। हर कालेज और यूनिवर्सिटी में 50 कंप्यूटर तो होंगे ही। लेकिन नहीं, आयोग तो चुनिंदा सेंटरों में ही परीक्षा कराएगा। सेंटर भी ऐसे जिन्हें प्राइवेट ऑपरेटर सिर्फ सेंटर का बिजनेस चलाने के लिए खोले हुए हैं। हुक्मरानों का बहाना है कि सब काम आउटसोर्स है ताकि धांधली की गुंजाइश न रहे।
बिहार में भी वही हाल। 39 यूनिवर्सिटी, 200 डिग्री कालेज हैं। यूपी से आधी जनसंख्या वाला बिहार भी एक पाली में परीक्षा नहीं करवा पा रहा। वजह वही - जगह की कमी। यही वजह गिनाई जाती है नीट, क्लैट और अन्य परीक्षाओं में।
परीक्षा का सिस्टम एबनॉर्मल
हैरानी की बात है कि कम होती सरकारी वैकेंसी, स्टार्टअप या सेल्फ बिजनेस की तरफ बढ़ता झुकाव, लाखों स्टूडेंट्स का विदेश पलायन, प्राइवेट सेक्टर की तरफ झुकाव, तरह तरह के करियर ऑप्शन होने के चलते सरकारी नौकरियों की परीक्षा में बैठने वालों की तादाद में कोई भूचाल लाने वाली बढ़ोतरी की बजाए स्थिरता है या कमी ही आई है। लेकिन फिर भी परीक्षा का सिस्टम नॉर्मल की बजाए एबनॉर्मल ही बना हुआ है।
हम चीन से बहुत चिढ़े भी रहते हैं और प्रभावित भी होते हैं सो वहां उच्च शिक्षा के लिए होने वाले क्वालीफाइंग परीक्षा को देखिए। उनकी आबादी तो अब हमसे कम ही है। चीन में इस साल इस क्वालीफाइंग परीक्षा में कोई डेढ़ करोड़ छात्र बैठे। स्टेडियम से लेकर बड़े बड़े ऑडिटोरियम, फुटबाल मैदानों तक में परीक्षा सेंटर स्थापित किये गए, हर तरह की सुरक्षा, इमरजेंसी सहायता, जांच पड़ताल यानी हर तरह का अस्थाई इंतजाम किया गया। और ये एक साल की बात नहीं है, हर साल ये परीक्षा इसी पैमाने पर कराई जाती है। लेकिन सब कुछ इतना स्मूथ कि पता ही नहीं चलता।
एक हमारी एजेंसियां हैं। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी से लेकर लोक सेवा आयोग, रेलवे भर्ती बोर्ड, और न जाने क्या क्या। हर परीक्षा में गजब की अफरातफरी। 24 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले यूपी को मात्र 4 से 5 लाख कैंडिडेट्स वाली अपनी लोक सेवा परीक्षा कराने में तकलीफों का अम्बार नजर आने लगता है। कोई जरा कैंडिडेट्स और उनके पेरेंट्स की भी तो सोचे। सरकारी नौकरी हो या क्लैट - नीट, जहां एक एक नम्बर से रिजल्ट दांव पर लगा हो वहां नॉर्मलाइज़ेशन जैसा सिस्टम?
नीट को ही देखिए। पर्चा आउट से लेकर क्या क्या मसले नहीं उठे। सुप्रीम कोर्ट तक बात गई। और तो और, जो कोचिंगें चलाते हैं अब उन्होंने बैचेन-परेशान छात्रों की अगुवाई की कमान संभाली है। ये एक नया ट्रेंड है जो लोक सेवा आयोग के मामले में भी सामने है।
पर्चा आउट कराने का धंधा
हो सब कुछ रहा है, सिवाय एक व्यवस्था निर्माण के। इसके पीछे भी कारण एक है - पैसा। सेंटर आवंटन, परीक्षा आयोजन वगैरह कामों में बेशुमार पैसा खर्च होता है, आउटसोर्सिंग व्यवस्था के नाम पर। परीक्षा पास कराने का एक अलग धंधा चलता है जिसकी कमान अफसरानों से जुड़ी होती है। फिर पर्चा आउट कराने का धंधा है। कॉपी लिखने - बदलने का धंधा है। कोचिंग का अलग धंधा है। इतने सारे धंधों में सैकड़ों करोड़ रुपये जरूर इन्वॉल्व होते हैं और जहां इतना मोटा पैसा दांव पर हो, जहां सरकारी नौकरियां मिलनी हों, वहां भला किसको सिस्टम बनाने सुधारने की गरज होगी?
अब तो हर परीक्षा और हर परीक्षा कराने वाला शक से ही देखा जाता है। हमने मध्य प्रदेश के व्यापम से लेकर यूपी विधानसभा सचिवालय की भर्ती और पुलिस भर्ती से लेकर नीट तक बहुत कुछ देखा भर है, सीखा कुछ नहीं है।जिन्हें सीखना चाहिए वो चाहते नहीं और जो परीक्षार्थी हैं वो यही सीख रहे हैं कि कुछ भरोसे लायक नहीं। जो सब समझ चुके हैं वो सब टेंशन छोड़ कर बाहर ही भाग जाने में भलाई मान चुके हैं।एक समय शिक्षा महकमे का नाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय था। यानी हमारा हर मानव संसाधन है, देश का, समाज का। मानव में छात्र भी आते है। लिहाज़ा हम अपने तंत्र से गण और गुण दोनों बाहर करते जा रहे हैं। फिर भी तंत्र की चिंता से मुक्त है।
( लेखक पत्रकार हैं । दैनिक पूर्वोदय से साभार ।)