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बदल रहा है इतिहास, बुरा न मानो..., पढ़ें सीनियर जर्नलिस्ट योगेश मिश्र का ये लेख

साल 2014 के पहले तक एक रटा रटाया इतिहास हमें पढ़ाया जा रहा था। हमें मध्यकालीन इतिहास, आधुनिक काल ही नहीं प्राचीन भारत के इतिहास के बारे में भी सही जानकारी नहीं दी गयी।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Shreya
Published on: 29 April 2022 3:14 PM IST (Updated on: 9 May 2022 2:04 PM IST)
बदल रहा है इतिहास, बुरा न मानो..., पढ़ें सीनियर जर्नालिस्ट योगेश मिश्र का ये लेख
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बदल रहा है इतिहास (कॉन्सेप्ट फोटो साभार- सोशल मीडिया)

# अपनी किताब '1984' में जॉर्ज ऑरवेल लिखते हैं – 'जो अतीत को नियंत्रित करता है वह भविष्य को नियंत्रित करता है। जो वर्तमान को नियंत्रित करता है, वह भूत को नियंत्रित करता है।'

# अमेरिकी इतिहासकार हावर्ड ज़िन ने एक बार कहा था – 'उनके पास बंदूकें हैं, हमारे पास कवि हैं, इसलिए हम जीतेंगे।'

साल 2014 के पहले तक एक रटा रटाया इतिहास हमें पढ़ाया जा रहा था। हमें मध्यकालीन इतिहास, आधुनिक काल ही नहीं प्राचीन भारत के इतिहास के बारे में भी सही जानकारी नहीं दी गयी। अकबर को महान बताया गया। कहा गया कि शाहजहाँ ने मुमताज़ के मोहब्बत में ताजमहल बनवाया। बताया गया कि अकबर भी महान था। अशोक भी। गोरों के जुल्म व ज़्यादती को कुछ इस तरह छिपाने की कोशिश हुई- वे नहीं होते तो रेलवे की ये लाइनें नहीं होतीं, डॉक नहीं होता। भारत में विकास नहीं होता। अंग्रेज कलेक्टर द्वारा लिखे गये गज़ेटियर देखें, क्या ग़ज़ब लिखा है। दिल्ली का लुटियन इलाक़ा देखें, यह अंग्रेजों की ही देन है। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद को आतंकी कहा गया। सुभाष चंद्र बोस अस्पृश्य हैं क्योंकि हिटलर से मिल चुके थे। भारत का विभाजन मोहनदास करमचंद गांधी के नाते हुआ था। आदि इत्यादि।

हमारा इतिहास हमेशा अपने हिसाब से लिखा और बदला जाता रहा है। क्योंकि दस्तावेज लिखने वाले अपना दृष्टिकोण उसमें अवश्य ही डालते हैं। दुनिया भर में नरसंहार से लेकर युद्ध अपराधों तक की हजारों ऐतिहासिक घटनाओं को पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों और विस्तार से सार्वजनिक स्मृति से मिटा दिया गया है। यह उस प्रकार के ज्ञान निर्माण को परिभाषित करता है जिसे समय समय पर देखा गया है। वर्तमान समय भी अलग नहीं है।

नेहरू-सरदार पटेल (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

आर्टिकल 370 - कौन सही, कौन गलत

भाजपा और संघ परिवार ने देश की सभी गड़बड़ियों के लिए जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहराया है। उनका यह भी दावा है कि सरदार पटेल को अगर जिम्मेदारी दी गयी होती तो वह कश्मीर समस्या हल कर लेते।

भाजपा के सीनियर नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा था कि- जवाहरलाल नेहरू और कुछ अन्य नेताओं को छोड़ कर कांग्रेस पार्टी भी जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने का कड़ा विरोध करती थी। आडवाणी ने सरदार पटेल की जीवनी के हवाले से लिखा है कि पटेल भी अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे। लेकिन पंडित नेहरू के प्रति सम्मान के कारण उन्होंने इसके लिए जोर नहीं दिया।

इस बारे में अशोक विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय संबंध और इतिहास के प्रोफेसर श्रीनाथ राघवन ने लिखा है कि यह धारणा गलत है कि कश्मीर की स्थिति के बारे में निर्णय लेने वाले नेहरू अकेले थे। उनके अनुसार, कैबिनेट और रक्षा समिति की बैठकों के रिकॉर्ड स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि नेहरू और पटेल दोनों ही कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद के मामले डील करने में निकटता से शामिल थे। राघवन लिखते हैं कि अनुच्छेद 370 के मसौदे के लिए बातचीत कई महीनों तक एनजी अय्यंगार (बिना विभाग के कैबिनेट मंत्री और कश्मीर के पूर्व दीवान), शेख अब्दुल्ला और उनके वरिष्ठ सहयोगियों के बीच हुई थी। नेहरू ने शायद ही कभी पटेल की सहमति के बिना एक कदम उठाया हो। राघवन लिखते हैं कि जब अय्यंगार ने नेहरू से अब्दुल्ला को एक मसौदा पत्र तैयार किया, जिसमें बातचीत में हुई समझ का सारांश दिया गया था, तो उन्होंने इसे पटेल को एक नोट के साथ भेजा: "क्या आप कृपया जवाहरलाल जी को सीधे अपनी स्वीकृति के बारे में बताएंगे? वह आपकी मंजूरी मिलने के बाद ही शेख अब्दुल्ला को पत्र जारी करेंगे। जब अब्दुल्ला ने जोर देकर कहा कि अनुच्छेद 370 को यह तय करने के लिए जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा पर छोड़ देना चाहिए कि मौलिक अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों को अपनाया जाए या नहीं, तब सरदार पटेल ने अय्यंगार को इसके साथ आगे बढ़ने की अनुमति दी क्योंकि नेहरू विदेश में थे। राघवन के अनुसार, नेहरू जब वापस आये तब उनको भेजे एक पत्र में पटेल ने बताया कि बड़ी मुश्किल से उन्होंने कांग्रेस को इस प्रावधान को स्वीकार करने के लिए राजी किया था।

इतिहासकार एजी नूरानी भी इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं कि कश्मीर के भविष्य पर 15-16 मई, 1949 को नई दिल्ली में वल्लभभाई पटेल के आवास पर बातचीत हुई थी, जहां नेहरू और अब्दुल्ला मौजूद थे। इस समय, सबसे महत्वपूर्ण विषयों में से एक था 'राज्य के लिए एक संविधान का निर्माण' और वे विषय जिनके संबंध में राज्य को भारत संघ में शामिल होना चाहिए।

वीर सावरकर (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

वीर सावरकर

वीर सावरकर के बारे में कई तर्क दिए जाते हैं। भाजपा नेता नेता अमित शाह ने एक बार कहा था कि 1857 के विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा सबसे पहले सावरकर ने दी थी और सावरकर ने कभी अंग्रेजों के साथ समझौता नहीं किया था।

इस पर नीलांजन मुखोपाध्याय ने अपनी किताब में लिखा है कि- 1857 के विद्रोह को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का नाम सबसे पहले कार्ल मार्क्स ने दिया था। यही नहीं, वीर सावरकर को ब्रिटिश शासन में जो भी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं थी, उसके एवज में ब्रिटिश हुकूमत ने उनको उस समय (साथ ) रुपये महीना का भत्ता बाँध दिया था, जो 1929 से दिया जाने लगा। मुखोपाध्याय लिखते हैं कि जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। तब उन्होंने सावरकर को आर्थिक सहायता देने का फैसला लिया था। इसके अलावा, मुखोपाध्याय के अनुसार सावरकर आरएसएस के कामकाज से पूरी तरह असहमत थे।

मराठी लेखक गिरीश विद्याधर कात्रे ने लिखा है - सावरकर ने 1911 से 1923 तक अपने 12 साल के कारावास के दौरान आठ दया याचिकाएं दायर कीं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण नवंबर 1913 में दायर की गई थी। इस याचिका में इस्तेमाल की गई भाषा की भावना विनम्रता और खेद से भरी थी।

महात्मा गांधी (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

गाँधी और देश का बंटवारा

एक नैरेटिव है कि महात्मा गाँधी ने देश का बँटवारा करा दिया। लेकिन तथ्य कुछ और बताते हैं। महात्मा गाँधी के निजी सचिव और उनकी जीवनी के लेखक महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई ने कहा है कि गांधीजी विभाजन के लिए जिम्मेदार नहीं थे। वह शायद एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने विभाजन आदेश पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद भी इस विचार का विरोध किया था। असलियत यह है कि विभाजन आदेश पर हस्ताक्षर करने से पहले किसी भी नेता ने उन्हें सूचित तक नहीं किया था। गाँधी को बंटवारे का समाचार अपने निजी सचिव से मिला था। देसाई के अनुसार, फरवरी 1947 के बाद गांधीजी को कांग्रेस कार्यसमिति की एक भी बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया था। उसी दौरान ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की थी कि भारत को स्वतंत्रता दी जाएगी। कार्यसमिति के कई नेता उनसे व्यक्तिगत रूप से मिले। लेकिन पूरी समिति के समक्ष उनके विचार कभी नहीं सुने गए।

डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी लिखा है कि देश के बँटवारे के लिए जिस तरह जवाहर लाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना व सरदार वल्लभ भाई पटेल मुख्य रूप से दोषी थे, उस तरह का दोषी मैं गांधी को नहीं मानता। लोहिया लिखते हैं कि नेहरू और सरदार पटेल ने साफ़ तौर पर आपस में तय कर लिया था कि बंटवारे का काम निश्चित रूप से पूरा होने के पहले गांधीजी को इस बारे में बता देना अच्छा नहीं होगा।

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

महाराणा बनाम अकबर

18 जून, 1576 को सम्राट अकबर के नेतृत्व में एक विशाल मुगल सेना ने मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप को हरा दिया था। इस युद्ध को हल्दीघाटी की लड़ाई के रूप में जाना जाता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि महाराणा प्रताप युद्ध के मैदान से भाग गए, हालांकि बाद के वर्षों में उन्होंने मुगलों के खिलाफ अपना छापामार युद्ध जारी रखा। लेकिन 2017 में राजस्थान विश्वविद्यालय ने यह दिखाने के लिए एक नई किताब पेश करने का फैसला किया कि महाराणा प्रताप ने लगभग 450 साल पहले प्रसिद्ध युद्ध में अकबर को हराया था। इससे पहले राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार ने नौवीं और दसवीं कक्षा के लिए पाठ्य पुस्तकों को बदल दिया ताकि इतिहास में बदलाव किया जा सके। इस परिवर्तन का विचार स्पष्ट रूप से इतिहास के एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर केएस गुप्ता की 'महाराणा प्रताप: कुंभलगढ़ से चावंड' नामक पुस्तक से आया था। उनका कहना है कि उन्होंने समकालीन राजस्थानी स्रोतों के निकट समकालीन फारसी अभिलेखों की जांच की और परिस्थितियों का अध्ययन किया।

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

रानी गाइदिन्ल्यू

मणिपुर चुनाव के पहले रानी गाइदिन्ल्यू का नाम काफी चर्चा में रहा। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करने वाली इस नगा नेता का काफ़ी गुणगान भाजपा द्वारा इस तरह किया गया मानो इसके पहले किसी ने इस क्रांतिकारी महिला के लिए न कुछ किया था और न कुछ कहा था। जबकि असलियत यह है कि गाइदिन्ल्यू को रानी नाम जवाहरला नेहरु ने 1937 में दिया था। 1946 में भारत की अंतरिम सरकार की स्थापना के बाद गाइदिन्ल्यू को प्रधानमंत्री नेहरू के आदेश पर जेल से रिहा किया गया था। 1953 में, प्रधानमंत्री नेहरू ने इंफाल का दौरा किया, जहां रानी गाइदिन्ल्यू ने मुलाकात की। उन्हें अपने लोगों की कृतज्ञता और सद्भावना से अवगत कराया। बाद में वह जेलियांग्रोंग लोगों के विकास और कल्याण पर चर्चा करने के लिए दिल्ली में नेहरू से मिलीं। उन्हें 1972 में स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार, 1982 में पद्म भूषण और 1983 में विवेकानंद सेवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

टीपू सुल्तान

कर्नाटक में टीपू जयंती मनाने को लेकर भाजपा ने बहुत विरोध प्रकट किया था। राज्य में जगह जगह भाजपा ने यह कहते हुए विरोध प्रदर्शन किया कि टीपू सुल्तान एक आतंकवादी थे। उन्होंने मंगलुरु में कोड़ावा और कैथोलिक्स का उत्पीड़न किया था।

भाजपा ने भले ही अब टीपू का विरोध किया है। लेकिन 2015 के पहले भाजपा ने ही टीपू सुलतान का महिमामंडन किया था। 2012 में कर्नाटक में कन्नड़ एवं संस्कृति विभाग ने एक किताब प्रकाशित की थी जिसका नाम था- "टीपू सुल्तान, ए क्रूसेडर फॉर चेंज।" इस किताब में टीपू सुल्तान की उपलब्धियों का वर्णन किया गया था। इस किताब में भाजपा सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगदीश शेत्तर द्वारा लिखा एक सन्देश भी छपा था जिसमें उन्होंने टीपू सुल्तान की प्रशंसा की थी।

आज भी टीपू एक्सप्रेस नाम की एक ट्रेन हुब्बाल्ली से मैसूर के लिए चलती है। यही नहीं, सीबीएसई की कक्षा 8 की एक किताब में टीपू की प्रशंसा में एक चैप्टर भी है।

कश्मीरी पंडित

द कश्मीर फाइल्स फिल्म में 32 साल पहले कश्मीर घाटी में हिन्दुओं के खिलाफ हुई हिंसा का दर्दनाक वर्णन किया गया है। अब भले ही हिन्दुओं पर जुल्मों की बात उठाई जा रही है। लेकिन जब ये घटनाएँ घटीं थीं तब केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी। कश्मीर में जगमोहन गवर्नर थे। दुर्भाग्य की बात है कि जगमोहन के ही कार्यकाल में कश्मीर घाटी में ये घटनाएँ घटीं थीं।

इतिहास ने हमें राणा प्रताप व झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के बार में नहीं बताया। हकीकत यह है कि श्याम नारायण पांडेय नहीं होते तो राणा प्रताप को कोई नहीं जान पाता। सुभद्रा कुमारी चौहान नहीं होती तो रानी लक्ष्मीबाई बाई गुमनामी के अंधेरे में खो जाती। यदि बाजीराव मस्तानी फ़िल्म नहीं बनती तो श्रीमन पेशवा बाजीराव वल्लाल भट्ट को लोग नहीं जान पाते। हमारे देश के ये ऐसे शूरवीरों में हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में जितने भी युद्ध लड़े सभी जीते।

एकलव्य का अंगूठा गुरू द्रोणाचार्य ने कटवा लिया। यह हमारे दिमाग़ में ठूँस ठूँस कर भर दिया गया है। सच्चाई जानने के लिए महाभारत के वन पर्व को पढ़ें। इस क़िस्से की सच्चाई पता चल जायेगी। क़िस्सा यह है कि एकलव्य ने तीर चलाया तो कुत्ते का मुँह वाणों से भर गया। अर्जुन तीर निकालते हैं तो देखते हैं कि कुत्ते के मुँह के अंदर कोई निशान नहीं है। कोई खरोंच तक नहीं आयी। यह दिव्यास्त्र राजा चला सकता है। जब द्रोणाचार्य ने एकलव्य से पूछते हैं कि यह दिव्यास्त्र चलाना किससे सीखा। तब एकलव्य उत्तर देता है- आपसे। द्रोणाचार्य कहते हैं, बालक मैं तो तुम्हें जानता नहीं, बालक तुम अपना परिचय दो। मैं मगध नरेश जरासंध के प्रधान सेनापति हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य हूँ। यानी हम आप समझ सकते हैं कि एकलव्य को वनवासी बता कर गुरू द्रोण द्वारा उसका अंगूठा माँग लेने का मिथ कैसे फैलाया गया? इससे हमारी तमाम पीढ़ियों के मन में किस तरह का भाव भरा गया?

इतिहास पक्ष का नहीं होता। पर हम पक्ष का इतिहास लिखते आ रहे है। इसी पक्ष सके इतिहास के चलते पीढ़ियाँ अपनी धरती से कटी हैं। हम मोर्चे हारे तो उससे युद्ध पराजय के रूप में इतिहास में लिख दिया गया। यही नहीं, जिस आधार पर भारत प्राचीन भारत दुनिया में विश्व गुरु माना जाता था। उस सारे तथ्यों और सख़्त को हमारे इतिहास लेखकों ने जाने कहा विलुप्त कर दिया। अगर स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास लिखने में भी कई गड़बड़ियां की गई तक़रीबन 700 साल तक भारत अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ता रहा। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहासकारों में यह लिखा कि आज़ादी कांग्रेस के नाते कांग्रेस के अलावा और भी जो लोग स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई अपने अपने ढंग से अपने इलाकों में लड़ रहे थे और उन लोगों को उन लोगों की अनदेखी की गई भारत के प्राचीन वैभव कहीं पर इतिहास में कोई जगह नहीं दी गई है। इस मुद्दे पर अमित शाह ने जो चुनौती पेश की ही उससे निपटने के लिए आधी कोशिश उन्हें भी करनी पड़ेगी। क्यों कि वह सरकार में हैं।

(लेखक पत्रकार हैं।)

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Shreya

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