TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

Hriday Narayan Dixit: लोकमंगल है भारतीय दर्शन

भारतीय दर्शन का उद्देश्य लोकमंगल है। कुछ विद्वान भारतीय चिंतन पर भाववादी होने का आरोप लगाते हैं। वे ऋग्वेद में वर्णित कृषि व्यवस्था पर ध्यान नहीं देते।

Hriday Narayan Dixit
Published on: 22 Sept 2022 5:14 PM IST
Indian Philosophy Purpose Lokmangal Article of Hriday Narayan Dixit
X

लोकमंगल है भारतीय दर्शन। (Social Media)

Hriday Narayan Dixit: भारतीय दर्शन का उद्देश्य लोकमंगल है। कुछ विद्वान भारतीय चिंतन पर भाववादी होने का आरोप लगाते हैं। वे ऋग्वेद में वर्णित कृषि व्यवस्था पर ध्यान नहीं देते। अन्न का सम्मानजनक उल्लेख ऋग्वेद में है, अथर्ववेद में है। उपनिषद् दर्शन ग्रन्थ हैं। उपनिषदों में अन्न की महिमा है। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहते हैं, ''अन्नं बहुकुर्वीत - खूब अन्न पैदा करो।'' निर्देश है, ''अन्नं न निन्दियात - अन्न की निंदा न करे।'' छान्दोग्य उपनिषद् में व्यथित नारद को सनत् कुमार (Sanath Kumar) ने बताया, ''वाणी नाम धारण करती है, वाणी नाम से बड़ी है, वाणी से मन बड़ा है। संकल्प मन से बड़ा है। चित्त संकल्प से बड़ा है। ध्यान चित्त से बड़ा है। ध्यान से विज्ञान बड़ा है। विज्ञान से बल बड़ा है। लेकिन अन्न बल से बड़ा है।'' अन्न की महिमा बताते हैं, ''दस दिन भोजन न करें। जीवित भले ही रहे तो भी वह अद्रष्टा, अश्रोता, अबोद्धा अकर्ता अविज्ञाता हो जाता है। अन्न की प्राप्ति हो जाने पर वह द्रष्टा, श्रोता, बोद्धा कर्ता विज्ञाता हो जाता है। वाणी से लेकर अन्न महिमा तक सभी सूत्र इह लौकिक हैं।

अन्न की अपेक्षा जल श्रेष्ठ

संपूर्णता पूर्वजों की अनुभूति है लेकिन समझने के लिए विश्लेषण पद्धति का भी उपयोग है। नारद (Narada) के अशांत होने के कारण हैं। संभवतः वे समग्रता में नहीं सोचते। सनत् कुमार उंगली पकड़कर उन्हें क्रमानुसार सीढ़ी पर चढाते हैं। सीढ़ी चढ़ते समय हरेक अगले पायदान पर पिछड़ा पायदान छूटता जाता है। अगले क्षण पिछड़ा पैर छूटकर अगड़ा बन जाता है। बताते हैं, ''अन्न की अपेक्षा जल श्रेष्ठ है। अच्छी वर्षा नहीं होती तो प्राण दुखी हो जाते हैं कि अन्न कम होगा।

जल ही यत्र तत्र सर्वत्र है

अंतरिक्ष, द्युलोक, पर्वत देव मनुष्य, पशु पक्षी वनस्पति और सभी प्राणी मूर्तिमान जल हैं।'' यहां जल ही यत्र तत्र सर्वत्र है। ऋग्वेद में जल को संसार की माताएं कहा गया है। यूनानी दार्शनिक थेल्स ने जल को सृष्टि का आदि तत्व बताया है। फिर जल की अपेक्षा तेज को बड़ा बताते हैं। तेज वायु को निश्चल करता है। आकाश को तप्त करता है। लोग कहते हैं कि गर्मी हो रही है। अब वर्षा होगी। यह तेज ही वर्षा का हेतु है।'' फिर आकाश को तेज से बड़ा बताते हैं, ''आकाश में सूर्य चंद्र हैं, विधुत, नक्षत्र व अग्नि है। आकाश द्वारा ही एक दूसरे को पुकारते हैं। आकाश से ही सुनते हैं। आकाश में ही उत्पन्न होते हैं। आकाश की ओर ही बढ़ते हैं।''

आकाश भारतीय चिंतन के पंचमहाभूतों में सर्वाधिक सूक्ष्म

आकाश भारतीय चिंतन के पंचमहाभूतों में सर्वाधिक सूक्ष्म है। यूनानी दार्शनिक केवल चार महाभूत मानते थे। वे आकाश को नथिंग कहते थे लेकिन भारत में यह प्रथमा है। सृष्टि का विकास सूक्ष्म से स्थूल की ओर हुआ है। सनत् कुमार ने कहा, ''स्मरण आकाश से बड़ा है। लोग स्मरण न करने पर न सुन सकते हैं, न मनन कर सकते हैं। स्मरण करते हुए सुन सकते हैं।'' स्मरण से ज्ञान विज्ञान स्मृति कोष में संचित होते हैं। गीता के अंत में अर्जुन प्रबोधन के लाभ बताते हैं, ''नष्टो मोहा स्मृति लब्धा तव प्रसादमान अच्युत - हमारा मोह नष्ट हो गया। आपके प्रसाद से स्मृति मिली।'' स्मृति महत्वपूर्ण है।

आशा स्मरण की अपेक्षा श्रेष्ठ है: सनत् कुमार

सनत् कुमार ने कहा, ''आशा स्मरण की अपेक्षा श्रेष्ठ है। आशा से प्रकाशित स्मरण ही मन्त्रों का पाठ करता है। कर्म करता है। पुत्रों और पशुधन की इच्छा करता है। लोक परलोक की कामना करता है।'' आशा भविष्य के प्रति विश्वास है। आशा सकारात्मक भाव है। आशा का भाव मनुष्य जाति के प्रति प्रकृति का अनूठा वरदान है। आशा से भरे पूरे लोगों ने ऐतिहासिक उपलब्धियां पाईं हैं।

''प्राण में सारा जगत समर्पित''

उपनिषद् दर्शन में प्राण की महत्ता है। प्राण से प्राणी हैं। सनत् कुमार प्राण को आशा से बड़ा बताते हैं, ''रथ चक्र की नाभि में अरे होते है, उसी तरह प्राण में सारा जगत समर्पित है। प्राण प्राण की शक्ति द्वारा गमन करता है। प्राण प्राण को देता है - प्राण प्राणेन याति प्राणः, प्राणं ददाति प्राणं ददाति प्राणाय ददाति। प्राण पिता है। प्राण माता है। प्राण भाई है, प्राण बहन है। प्राण आचार्य है। तैत्तिरीय उपनिषद् में भी प्राण की महत्ता है, ''प्राण से देव अनुप्राणित हैं। सभी जीव प्राण से जीते हैं। प्राण जीवों की आयु है।''

प्रश्नोपनिषद् में कहा, आदित्य ही प्राण हैं

प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है, ''आदित्य ह वै प्राणः - आदित्य ही प्राण हैं।'' अन्यत्र बताते हैं, ''सभी जीवों का प्राण सूर्य उदित हो रहा है।'' मजेदार प्रश्न है, ''संसार को कौन और कितने देव धारण करते हैं? उत्तर है, ''आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वाणी, मन, आँख, कान, देवता संसार को धारण करते हैं इनमे प्राण वरिष्ठ हैं।'' देवों की सूची ध्यान देने योग्य है। सब प्रत्यक्ष हैं। देव कल्पना नहीं है। बताते हैं कि, ''प्राण में सब कुछ प्रतिष्ठित है।'' प्राण प्रजापति है, वही गर्भ में आता है, वह अग्नि है, इंद्र रूद्र और सूर्य है। यहां जो कुछ प्रतिष्ठित है, सब प्राण के वश में है।'' प्राण सर्वत्र व्याप्त है। ऋषि की प्रार्थना है कि, ''प्राण हमारा मंगल करें। हमें छोड़कर बाहर न जाए।''

उपनिषदों में है विज्ञान का उल्लेख

उपनिषदों में विज्ञान का उल्लेख है। उपनिषदों में इसका अर्थ सत्य प्राप्ति की उपासना है। भारतीय चिंतन में सत्य को 'नित्य' कहा गया है। नित्य सदा से है सदा रहता है। यही सत्य है। सनत् कुमार ने कहा, ''जो सत्य को विशेष रूप से जानता है, वह तभी सत्य बोलता है।'' शंकराचार्य के भाष्य में कहते हैं, ''वह सत्य विज्ञान बिना जिज्ञासा किये, बिना प्रार्थना किये नहीं जाना जा सकता। इसलिए विज्ञान की विशेष जिज्ञासा करनी चाहिए।'' श्रद्धा के विषय में कहते हैं, ''मनुष्य श्रद्धा करता है, तभी मनन करता है। श्रद्धाहीन मनन नहीं करते।'' श्रद्धा असंभव पर विश्वास है। फिर निष्ठा को महत्वपूर्ण बताते हैं। इसके बाद सुख का निर्वचन है। नारद ने कहा मैं सुख की जिज्ञासा करता हूँ। सुख है क्या?

सनत् कुमार ने कहा, ''यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति - निश्चित ही जो भूमा है, वही सुख है, इससे अल्प में सुख नहीं।'' भूमा छान्दोग्य उपनिषद् की महत्वपूर्ण धारणा है। भूमा विराट सम्पूर्णता है। बादरायण ने, ''ब्रह्मसूत्र में भूमा को ब्रह्म बताया है।'' सम्पूर्णता में सुख है, इससे अल्प में सुख नहीं। कहते हैं, ''जहां वह कुछ और नहीं देखता, कुछ और नहीं सुनता, कुछ और नहीं जानता। वह भूमा है। जहां वह कुछ और देखता है कुछ और सुनता जानता है, वह अल्प है।'' अल्प में दुख है।

संपूर्णता उपास्य है। छान्दोग्य उपनिषद् में इसी का नाम भूमा है। ब्रह्म सूत्रों में यह ब्रह्म है। ऋग्वेद में यह अदिति या पुरुष है। चीनी दार्शनिक लाओत्सु (Chinese philosopher Lao Tzu) का 'ताओ' है। बताते हैं, ''भूमा अमृत है। अल्प मरण धर्मा है। भूमा ही ऊपर है, वही पीछे है। वही सामने है। वही दांए हैं। वही बांए हैं और वही यह सब हैं। इसी अनुभूति को स्वयं पर लागू करते हैं - मैं ही ऊपर हूँ। मैं ही दांये हूँ। मैं ही सामने हूँ। मैं ही यह सब हूँ। उपनिषदों में ब्रह्म के लिए भी ऐसा ही कहते हैं - ब्रह्म आगे हैं। ब्रह्म पीछे हैं। ब्रह्म ऊपर हैं। ब्रह्म ही दांए बांए सर्वत्र हैं। ऋग्वेद में सविता सूर्य के लिए कहते हैं - सविता ऊपर हैं। यही नीचे बांए दांए हैं। नाम अनेक लेकिन तत्व एक है। नाम में क्या धरा है?



\
Deepak Kumar

Deepak Kumar

Next Story