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भारतीय राजनीतिः राष्ट्रनीति के यक्ष-प्रश्न, है किसी दल के पास जवाब
भारतीय विचार सरणि में राजनीति, राष्ट्रनीति का एक अंग रही है। जब राजनीति, राष्ट्रनीति से अलग होने की कोशिश करती है तो जनमन में पीड़ा होती है। भारतीय विचार पद्धति, खण्ड-खण्ड में नहीं विचार करती। हमारी दृष्टि एकात्म रही है।
ओमप्रकाश मिश्र
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारतीय राजनीति पर समय-समय पर अनेकों बार सार्थक प्रश्न उठाये गये हैं। उसमें न्यायपालिका, मीडिया, बौद्धिक वर्ग आदि ने कई बार आलोचना/समालोचना की है। कानूनों का भी परीक्षण हुआ, परन्तु भारतीय राजनीति पर, भारत राष्ट्र की राष्ट्रनीति की दृष्टि से परीक्षण व प्रश्न तुलनात्मक रूप से कम उठाये गये हैं।
देश व राष्ट्र
राष्ट्र की संकल्पना, देश/राज्य की संकल्पना से बहुत प्राचीन है। राष्ट्र व देश एक संकल्पना नहीं हैं। देश बनने के लिए भूमि का टुकड़ा तथा जनसंख्या आवश्यक है, किन्तु राष्ट्र बनने के लिए तीन घटक आवश्यक हैं।
पहला जिस देश में लोग रहते हैं, उस भूमि के बारे में ‘मातृ‘ भाव का होना। दूसरा उसकी समान संस्कृति या मूल्य अवधारणा तथा तीसरा अपने पुरखों व अपने इतिहास के विषय में प्रबल भावना।
देश दिखाई पड़ता है। राष्ट्र अदृश्यमान है। जैसे शरीर दिखाई पड़ता है। और आत्मा अदृश्य है। जो अस्मिता व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण होती है, वैसे ही राष्ट्र की अस्मिता भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। राष्ट्रीय अस्मिता के कमजोर होने पर राष्ट्र कमजोर हो जाता है।
टुकड़ों टुकड़ों में राष्ट्र विचार नहीं
राष्ट्र की अस्मिता ही, राष्ट्र का प्राणतत्व है। राष्ट्र की भूमि के खण्ड का सम्बन्ध, जन का सम्बन्ध माता व पुत्र का होता है। हमारी राष्ट्रीयता का आधार ’’भारत माता” है।
राष्ट्र व राज्य एक नहीं होते। राष्ट्र भूसांस्कृतिक श्रद्धा से निर्मित होते हैं। राज्य, किसी भूभाग पर सत्ता या शासन की व्यवस्था होते हैं। एक राष्ट्र में कई देश हो सकते हैं।
भारत एक भौगोलिक शब्द नहीं है, वरन् एक सांस्कृतिक शब्द हैं, यह एक संस्कृति का समृद्ध परम्परा का नाम है। राष्ट्र विचार, टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं है।
कोई राष्ट्रनीति नहीं
पिछले अनेकों दशकों या साफ-साफ कहें कि 1947 से हीं, भारत में राष्ट्रनीति नहीं, वरन् राजनीति, वह भी स्वार्थ, लाभ की दृष्टि से ही ज्यादातर दिखलायी पड़ती है।
भारतीय राजनीति में 1947 से लेकर अनेकों वर्षों तक एक ही राजनैतिक दल सत्ता में रहा तथा शासन प्रशासन पर पश्चिमी देशों की सोच का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
अधिकांश राजनैतिक दलों व नेताओं ने राजनीति का उद्देश्य, केवल व केवल सत्ता प्राप्ति व उससे लाभ आदि का अर्जन किया जाना समझा है।
लोकनीति से समझें राष्ट्रनीति
राजनीति अलग होती है, तथा राष्ट्रनीति के मुख्य तत्व अलग होते हैं। राष्ट्रनीति को लोकनीति के रूप में समझा जा सकता है, जिसे स्मृतिकार बृहस्पति ने कहा कि राज्य वृत्त एक अलग विषय है और लोकवृत्त अलग राष्ट्रनीति का लक्ष्य, राष्ट्र निर्माण होता है, सत्ता प्राप्ति मात्र नहीं।
राष्ट्र-निर्माण का परमलक्ष्य, राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाना है। सारी दुनिया का इतिहास यह स्पष्ट करता है कि राष्ट्र का निर्माण कभी भी शासन/सत्ता के द्वारा हुआ हो, ऐसा नहीं है।
जब जन सामान्य, जागृत होकर, संगठित रूप से चरित्र निर्माण के द्वारा राष्ट्र निर्माण का सर्वांगीण प्रयास करेगा, तभी जनकल्याण, राष्ट्र निर्माण व परम वैभव का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है।
महान चिन्तक/मनीषी दत्तोपन्त ठेंगड़ी जी के अनुसार-
’’जिसके कारण भारतीय जीवन मूल्य टूट रहे हैं, राष्ट्रीय जागृति समाप्त होती जा रही है।“ मै कालेज में था तो हमें एक कविता पढ़ाई जाती थी, जिसमें कहा गया था कि, ’’अर्थातुराणां न पिता न बन्धुः (जो केवल अर्थ प्राप्ति के लिए आतुर, वह नहीं देखता कि बाप कौन है और भाई कौन है) और ’’कामातुराणां न भयं न लज्जा” (कामातुर को भय और लज्जा नहीं होती)। आज के सन्दर्भ में यह कहना पड़ता है कि ’’सत्ता तुराणां न दलः न राष्ट्र” अर्थात सत्तातुर लोगों के लिए न दल है न राष्ट्र।
(दत्तोपंत ठेंगडीः जीवन दर्शन: खण्ड 3) (पृष्ठ 91) सुरूचि प्रकाशन, नई दिल्ली।
ठेंगड़ीजी का यह उद्बोधन 1984 का है यानी आज से लगभग 36 वर्ष पहले का।
उसके पश्चात तो परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद या भाषायी राजनीति, माफिया- नेता गठजोड़, ब्यूरोक्रेसी की रीढ़ विहीनता, समाज में धनाढ्यों की इज्जत (धन चाहे जैसे आया हो)।
उपेक्षा का दौर
अर्थनीति में राष्ट्रनीति की निरन्तर उपेक्षा, मीडिया के इको सिस्टम से राजनीति का प्रभावित होना, चुनावों में बेतहाशा खर्च, काला धन, भ्रष्टाचार, आदि-आदि तत्वों ने स्थिति को और भी जटिल बना दिया है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व राजनीति में कूदने का मतलब त्याग, परमवैभव की प्राप्ति हेतु स्वतंत्रता आन्दोलन में हिस्सेदारी होती थी। उस समय राजनीति में लोग, समाज व राष्ट्र को कुछ अर्पण करने जाते थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कुछ वर्षों तक उसकी छाया/प्रतिछाया दिखी।
पाने की लालसा बढ़ी
परन्तु पिछले खासकर चार दशकों से जो राजनीति में आये, उनमें अधिकांशतः कुछ पाने की लालसा से ही राजनीति में आये। समाज व राष्ट्र को कुछ देने का कही कोई मंतव्य, अधिकतर लोगो में नहीं दिखता है।
भारत राष्ट्र में परिवार व्यवस्था अर्थात कुटुम्ब संकल्पना के कारण समाज का ताना-बाना खड़ा हैं, परन्तु परिवाद का रोग, जिस तरह भारतीय राजनीति में घुन की तरह घुस गया है, उससे प्राप्ति राजनीति का लक्ष्य, जनकल्याण नहीं वरन् सत्ता व लाभ की प्राप्ति है।
बौद्धिक वर्ग की उपेक्षा
राजनैतिक सत्ता आती है और जाती है, महत्व तपश्चर्या राष्ट्रचिन्तन, नैतिक नेतृत्व का है। दुर्भाग्य है कि पिछले लगभग तीन दशकों में एक प्रवृत्ति राजनैतिक क्षेत्र में बढ़ रही है कि बौद्धिक वर्ग को महत्व कम मिलना शुरू हुआ है। हाथी, बहुत बड़ा शक्तिशाली होता है परन्तु बहुत छोटा सा अंकुश उस पर नियन्त्रण करता है।
क्षेत्रवाद, परिवारवाद, जातिवाद, माफिया, धनबल के अतिरिक्त, एक प्रमुख तत्व बौद्धिक लोगों का राजनीति से हाशिए पर जाना रहा है। पहले राजनीति में जो भी लोग आते थे, बौद्धिक वर्ग से आते थे।
बालगंगाधर तिलक, डा. भीमराव अम्बेडकर, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, वीर सावरकर, दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, अटल बिहारी बाजपेयी आदि नेता अच्छे लेखक भी थे।
चाणक्य कुटिया में
राजसत्ता में बड़ी शक्ति होती है, किन्तु चन्द्रगुप्त मौर्य को आचार्य चाणक्य की आवश्यकता थी। हमारे यहाँ राजा को कभी भी सर्वोच्च सत्ता या शक्तिमान नहीं माना गया।
कानून बनाने का अधिकार, राजा को या शासन को नही था, हमारे यहाँ राजा को संविधान का पालक ही माना गया। हमारे यहाँ स्मृतियाँ, लगोटी वालों ने बनायी थी।
हमारे यहाँ गुरूकुल प्रणाली की शिक्षा थी, जो राष्ट्र को समर्पित शक्ति तैयार करती थी। मुनि वशिष्ठ महल में नहीं रहते थे। चाणक्य तो अपनी कुटी में ही रहे, जबकि वे ही चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाये।
क्षुब्ध राजनीतिक स्वार्थ
राष्ट्र की सुरक्षा के सम्बन्ध में सभी राजनैतिक दलों को राष्ट्रहित की दृष्टि से राष्ट्र का चिन्तन करना चाहिए। इधर ऐसा देखा गया कि क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ साधना के लिए राष्ट्रहित का विचार कई राजनैतिक दल नहीं करते।
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राजनीति में संवाद व संप्रषेण का स्तर दिनों दिन गिरता जा रहा है। अपनी राय को रखने के लिए कितने खराब शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है? यह देखकर चिन्ता होती है।
राजनैतिक विरोध उचित हैं किन्तु भाषा की मार्यादा भी अत्यन्त आवश्यक है। पहले लोग समस्या पर विचार विमर्श करके पत्र से विचार ज्यादातर व्यक्त करते थे।
बिगड़ गया अभिव्यक्ति का तरीका
अब ’तत्काल सेवा’ की भाँति ट्विटर जैसे साधनों का उपयोग, बिना विषय वस्तु को समझे ही, करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। समाज के सभी अंगों की भाषा आदि बदली है, परन्तु अभिव्यक्ति का तरीका राजनीति में, सबसे ज्यादा खराब हुआ है।
भारतीय विचार सरणि में राजनीति, राष्ट्रनीति का एक अंग रही है। जब राजनीति, राष्ट्रनीति से अलग होने की कोशिश करती है तो जनमन में पीड़ा होती है। भारतीय विचार पद्धति, खण्ड-खण्ड में नहीं विचार करती। हमारी दृष्टि एकात्म रही है।
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हमारे यहाँ, राष्ट्र के परम वैभव की प्राप्ति हेतु, राष्ट्रनीति का मूलतत्व, राष्ट्र चिन्तन, नैतिक सत्ता व ’’वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा है। सारी दुनिया हमारा परिवार है और राष्ट्रहित हमारा परमहित है, जब यह सोच राजनैतिक दलों में बढ़ेगी, तभी राष्ट्र परम वैभव प्राप्त कर सकेगा।