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Hriday Narayan Dixit: प्रकाश प्रिय हैं भारतवासी

Hriday Narayan Dixit: हम भारतीय सनातनकाल से प्रकाशप्रिय हैं। हम सब के चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा है। सम्पूर्ण अस्तित्व अपने मूल स्वरूप में प्रकाश रूपा है।

Hriday Narayan Dixit
Published on: 20 Oct 2022 2:47 PM GMT
Hriday Narayan Dixit
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Hriday Narayan Dixit: प्रकाश प्रिय हैं भारतवासी

Hriday Narayan Dixit: हम भारतीय सनातनकाल से प्रकाशप्रिय हैं। भारत का भा प्रकाशवाची है ।'रत' का अर्थ संलग्नता है। भारत अर्थात प्रकाशरत राष्ट्रीयता। हम सब के चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा है। सम्पूर्ण अस्तित्व अपने मूल स्वरूप में प्रकाश रूपा है। अष्टावक्र ने जनक की सभा में कहा था, ''वह ज्योर्तिएकम् है।'' हंसोपनिषद् में अस्तित्व को ऊध्र्व गतिशील पक्षी के रूपक में समझाया गया है। यह पक्षी हंस जैसा है। अग्नि और सोम इसके दो पंख हैं। समय और अग्नि भुजाए हैं।" मंत्र का अंतिम भाग अप्रतिम प्रकाशवाची है। बताते हैं, "एषो असो परमहंसौ भानुकोटि प्रतीकोशो येनेदं व्याप्तं - यह परम हंस करोड़ो सूर्यो के तेज जैसा प्रकाशमान है। इसका प्रकाश संपूर्ण अस्तित्व को व्याप्त करता है।" छोटा मोटा प्रकाश नहीं करोड़ों सूर्यों का प्रकाश। गीता (Gita) में अर्जुन ने विराट रूप देखा। उसे भी "दिव्य सूर्य सहस्त्राणि' की अनुभूति हुई। यजुर्वेद में सोम से कहते हैं "आप ज्योतिरसि विश्वरूपं" है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि उदय के पूर्व गहन अंधकार है। तब रात या दिन नहीं हैं। फिर प्रकाश है।''

प्रकाश को नमस्कार हमारी सांस्कृतिक परंपरा

हम भारतीय सभा गोष्ठी में दिन में भी दीप जलाते हैं। स्वयं के बनाएं स्वयं के जलाए दीपों को नमस्कार करते हैं। सांझ आती है। विद्युत चालित प्रकाश उपकरण सक्रिय किए जाते हैं। हम उन्हें भी नमस्कार करते हैं। प्रकाश को नमस्कार हमारी सांस्कृतिक परंपरा है। प्रकृति अनेक रूपों में व्यक्त होती है। छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ने बताया है कि "प्रकृति का समस्त सर्वोत्तम प्रकाश रूपा है।" मनुष्य का सर्वोत्तम प्रतिभा कहा जाता है। 'प्रति-भा' प्रकाश इकाई है। आभा और प्रतिभा भी प्रकाशवाची हैं। जहां जहां प्रकाश प्रकृति का सर्वोत्तम, वहां वहां प्रतिभा। हम धन्य हो जाते हैं। प्रकाश दीप्ति एक विशेष अनुभूति देती है। पूर्वजों ने प्रकाश दीप्ति अनुभूति को दिव्यता कहा। जो भारत में दिव्य है, अंग्रेजी में डिव।

हम भारतीय सनातन काल से बहुदेव उपासक

सूर्य प्रकाश में वही दिवस है। इसी की अन्तः अनुभूति दिव्यता या डिवाइनटी है। इसलिए जहां जहां दिव्यता वहां वहां देवता। हम भारतीय सनातन काल से बहुदेव उपासक हैं। हमने जहां-जहां प्रकाश पाया, वहां वहां देव पाया और माथा टेका। सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। सूर्य नमनीय हैं। गायत्री मंत्र में सविता देव से बुद्धि की प्रार्थना है। सविता प्रकाशदाता सूर्य हैं। वे सविता देव सहस्त्र आयामी प्रकाश रूपा हैं। चन्द्र किरणें भी प्रकाश रूपा हैं। उनकी प्रभा दिव्य है। चन्द्र प्रकाश सूर्य प्रकाश का अनुषंगी है। सूर्य प्रकाश भी संभवतः किसी अन्य विराट प्रकाश के स्रोत से आता है।

प्रकाश का मूल स्रोत है रहस्य

प्रकाश का मूल स्रोत रहस्य है। कहां से आता है यह प्रकाश? इसका ईधन क्या है? सूर्य का ईंधन अक्षय नहीं हो सकता। प्रकाश का यह स्रोत अजर और अमर जान पड़ता है। कठोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद् व श्वेताश्वतर उपनिषद् में एक साथ आए एक रम्य मंत्र में उसी विराट प्रकाश का संकेत है "न तत्र सूर्यो भाति, न चन्द्रतारकम्। नेमा विद्युत भान्ति कुतोऽयमग्नि - उस विराट प्रकाश केन्द्र पर सूर्य नही चमकता और न ही चन्द्र तारागण। वहां विद्युत और अग्नि की दीप्ति भी नहीं है।" आगे बताते हैं "तमे भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्व इदं विभाति - उसी एक प्रकाश से ये सब प्रकाशित होते हैं।

अज्ञान वाची है अंधकार

हम सब अंधकार से व्यथित हैं। अंधकार अज्ञान वाची है। यह तमस गहरा है। रात्रि रम्य है। दिवस श्रम है, रात्रि विश्रम। दिवस बर्हिमुखी यात्रा है - स्वयं से दूर की ओर गतिशील। रात्रि दूर से स्वयं की ओर लौटना है। रात्रि आश्वस्ति है। रात्रि का संदेश है - "अब स्वयं को स्वयं के भीतर ले जाओ। अपने ही आत्म में करो विश्राम।" दिन भर कर्म। कर्मशीलता में थके, टूटे, क्लांत चित्त को विश्राम की प्रशान्त मुहूर्त देती है रात्रि। तमस् हमारे जीवन का भाग है। इसीलिए प्रति दिवस एक रात गहन तमस के हिस्से। प्रत्येक मास अमावस्या आती है। संभवतः यही बताने कि तमस् भी संसार का अंग है।

रात्रि में चन्द्रप्रकाश होता है। क्रमशः घटता बढ़ता हुआ। अमावस्या अंधकार से परिपूर्ण रात्रि है। जान पड़ता है कि अमावस ही चन्द्रमा की अवकाश रात्रि है। उस रात की आकाश गंगा दीप्ति वर्षाते हुए बहती हैं। सभी तारे और नक्षत्र अपनी पूरी ऊर्जा में प्रकाश देने का प्रयास करते हैं लेकिन अमावस का अंधकार नहीं भेद पाते। अमावस अपने प्रभाव क्षेत्र को तमस् से भर देती है वैसे ही पूर्णिमा प्रकाश से भरती है। तमस् और प्रकाश की अनुभूति प्रतिदिन भी उपस्थित होती है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक का काल प्रकाशपूर्ण रहता है और सूर्यास्त से सूर्योदय तक तमस् प्रभाव। तमस् और दिवस प्रतिपल भी घटते हैं जीवन में। आलस्य, प्रमाद, निष्क्रियता, निराशा और हताशा के क्षण तमस् काल हैं। उत्साह और उल्लास के क्षण प्रकाश प्रेरणा हैं।

तमसो मा ज्योतिर्गमय की स्तुति में प्रकाश हमारी प्रियतम आकांक्षा

"तमसो मा ज्योतिर्गमय" की स्तुति में प्रकाश हमारी प्रियतम आकांक्षा है। पूर्णिमा परिपूर्ण चन्द्र आभा है। शरद् पूर्णिमा की रात चन्द्र किरणें धरती तक उतरती हैं अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ। वैदिक ऋषि इसी तरह की सौ पूर्णिमा देखना चाहते थे। 'जीवेम शरदं शतम्' में 100 शरद देखने की प्यास है। शरद चन्द्र अपनी पूरी आभा में स्थावर जंगम पर अमृत रस बरसाता है। शरद पूनो के ठीक 15 दिन बाद की अमावस्या गहन अंधकार लाती है। पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर इसी अमावस्या को झकाझक प्रकाश से भर दिया।

पूर्वजों ने अमावस को अपने कर्म से बनाया प्रकाश पर्व

पूर्वजों ने अमावस को अपने कर्म से प्रकाश पर्व बनाया। शरद् पूर्णिमा की रात रस, गंध, मधु, ऋत और मधुआनंद तो 15 दिन बाद झमाझम दीपमालिका। जहां जहां तमस् वहां वहां प्रकाश-दीप। सूर्य और शरद चन्द्र का प्रकाश प्रकृति की अनुकम्पा है तो दीपोत्सव मनुष्य की कर्मशक्ति का रचा गढ़ा तेजोमय प्रकाश। प्रकाश ज्ञानदायी और समृद्धिदायी भी है। गजब के द्रष्टा थे हमारे पूर्वज। उन्होंने अमावस की रात्रि को अवनि अम्बर दीपोत्सव सजाये। भारत इस रात 'दिव्य दीपशिखा' हो जाता है। परिपूर्ण उत्सवधर्मा होता है। वातायन मधुमय होता है। आनंदी अचम्भा है यह। अमावस की रात प्रकाश पर्व की मुहूर्त घोषित करना। प्रत्यक्ष रूप में शरद् पूनों को ही प्रकाश पर्व जानना चाहिए था। लेकिन तब गहन तमस् का क्या होता? भारत के लोग इसी अमावस को प्रकाश से भरने की सांस्कृतिक कार्रवाई करते हैं।

भारत का मन अवधपुरी में है रमता

भारत का मन अवधपुरी में रमता है। यह अयोध्या है। इसे पराजित नहीं किया जा सकता। मधु समृद्ध है यह नगरी। मर्यादा पुरुषोत्तम राजा राम यहीं जन्में। वे यहीं शिशु रूप उगे। तरूण हुए, अरूण हुए। आचार्यो से शिक्षा पाई। यहीं वेद पढ़े, विज्ञान जाना, ज्ञान पाया। तमाम स्मृतियां हैं अयोध्या के अन्तर्मन में। श्रीराम क¨ राजसत्ता मिलने जा रही थी कि नियति ने वनवास दिया। वे चित्रकूट रमे। अनेक काण्ड हुए। पहले बाल काण्ड। अयोध्या की घटनाएं। किष्किंधा और सुंदर। फिर पौरूष पराक्रम की अभिव्यक्ति वाला लंका काण्ड। श्रीराम की लंका विजय भी सांस्कृतिक धरोहर है। वे युद्ध जीते। चाहते तो लक्ष्मण को लंका का राज्य सौंप सकते थे लेकिन उन्होंने रावण के परिजन विभीषण को ही राज सौंपा। वापस आ गए अयोध्या। सो क्यों? उन्होंने अंगद को यह रहस्य बताया। तुलसी के शब्दों में "सुनु कपीस अंगद लंकेशा। पावन पुरी रूचिर यह देशा" - यह पुरी पवित्र है और यह देश सुंदर। तब अपने राम को पाकर अयोध्या ज्योतिर्मय हो गई। सब तरफ प्रकाश दीप। आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दीप पर्व की ज्योतिर्मयता में हैं। भारत का मन पुलकित है। लाखों दीप। मनभावन ज्योर्तिमयता। रामराज्य के आदर्शो की निष्ठा।

Deepak Kumar

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