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मरहबा ईरानी खातून ! पाइंदाबाद !!

कुर्द नस्ल की युवती महसा आमिनी अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से जीना चाहती थी। उसी की शहादत का नतीजा है कि विश्व के सभी राष्ट्र ईरान का बहिष्कार कड़ाई से कर रहे हैं।

K Vikram Rao
Written By K Vikram Rao
Published on: 25 Sept 2022 2:39 PM IST
Iranis Kurdish girl Mehsa Amini protested the hijab and was beaten to death by the police
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 हिजाब का किया विरोध करने वाली ईरानी की कुर्द नस्ल की युवती महसा आमिनी: Photo- Social Media

एक कन्नडभाषी युवती है उडुपी (कर्नाटक) की। नाम है 21-वर्षीया साना अहमद। वह हिजाब पहनना चाहती हैं। न्यायालय में मुकदमा लड़ रहीं हैं। इसी दौरान तीन हजार किलोमीटर दूर इस्लामी ईरान (Iran) की राजधानी तेहरान (Tehran) में पश्चिमोत्तर पर्वतश्रृखला की कुर्द नस्ल की युवती महसा आमिनी (Mehsa Amini) हैं, जिसने हिजाब के विरोध (protest against hijab) में प्राणोत्सर्ग कर दिये। इस्लामी ईरान के कट्टरराज में जेल में पीट-पीट कर मारे जाने पर पुलिस के हाथों वह मरी। महसा अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से जीना चाहती थी। सरकार की तानाशाही की खिलाफत की उसने। उसी की शहादत का नतीजा है कि विश्व के सभी राष्ट्र ईरान का बहिष्कार कड़ाई से कर रहे हैं। जिन पर्शियन तरूणियों के चेहरे देखकर चान्द भी शर्माता हो, आज वे नरकीय वातावरण में जी रही हैं।

अचरज होता है कि व्यक्तिगत स्वाधीनता का संघर्षशील देश रहा ईरान अब इस्लामी कट्टरता का शिकार है। उदारवाद से घिन करता। अपनी ही समाजिक आजादी को तजने पर तैयार रहे। बजाये उन तमाम प्रगतिशील महिलाओं के अभियान से जुड़ने के। समस्त नारी समाज को जागृत करें। नरनारी के समानता को दृढ़तर बनाये। उधर यह कन्नड़ युवती युगों की पारम्परिक जकड़ में बंधी रहना चाहती हैं। उस तोते की मानिन्द जिसे पिजंड़े से प्यार हो गया है। वह नभचारी पक्षी नहीं होना चाहती। उन्मुक्त, निर्बाध। आज विश्व की सबसे महान जंग नारी स्वतंत्रता की इस्लामी ईरानी गणराज्य में हो रही है।

ईरानी औरतों का हिजाब विरोध पूरे देश में फैला

हिन्दी की मशहूर लेखिका और लखनऊ की तरक्कीपसंद नाइश हसन का विश्लेषण मर्म को छू जाता है। यदि वह हिन्दू होती तो कट्टर इस्लामिस्ट उसे मार्गभ्रष्ट तथा भटकी खातून करार देते। वह धर्मनिष्ठ मुसलमान है। उसने अपने स्तम्भ में स्पष्ट लिखा: ''ईरानी औरतों के इस विद्रोह की आग तेहरान, साकेज और कुर्दिस्तान की राजधानी सननदाज सहित पूरे देश में फैल चुकी है। पूरी दुनिया इस विद्रोह को देख रही है और ईरानी महिलाओं को अपना समर्थन भी भेज रही है। ईरान की सरकार महिलाओं को 60 की उम्र में भी बिना हिजाब सड़क पर आने की इजाजत नहीं देती, दंडित करती है। मॉरल पुलिसिंग का अधिकार सरकार ने ही दिया है। बढ़ते विरोध को देखते हुए ईरानी सरकार अपनी नैतिक पुलिस की आलोचना नहीं सुनना चाहती। उन्हीं क्रूर सिपाहियों का राज चलाना चाह रही है।

घरों की ओर लौट जाओ" और "जड़ों की ओर लौट चलो

ईरान में धर्मगुरू सैयद रूहोल्लाह मुसावी उर्फ अयातुल्लाह खोमैनी के नेतृत्व में 1979 में धर्म के नाम पर एक क्रांति हुयी। इस दौरान महिलाओं के लिये दो नारे बहुत जोर-शोर से उछाले गये, "घरो की ओर लौट जाओ" और "जड़ों की ओर लौट चलो।" ईरान में जड़ों की तरफ लौटने का मतलब जड़ता की तरफ लौटना साबित हुआ। आधुनिकता के खिलाफ परंपरावादी शक्तियां संगठित होने लगीं। संगीत पर पाबंदी लगायी जाने लगी। औरतों पर फर्जी इस्लामी कायदे-कानून लादे जाने लगे। सागर तटों पर स्त्री-पुरूष के स्नान पर रोक लगायी गयी। इसी दौरान औरतों को मनुष्य से मवेशी बनाने के लिये कई नियम भी लाये गये। मुताह (एक निश्चित रकम के बदले एक निश्चित समय के लिये शादी) उनमें से एक है। खौमैनी ने ही मुताह की इजाजत दी, इसे ब्लेसिंग बताया। अवैध संबंधों के शक में 43 साल की ईरानी महिला शेख मोहम्मदी अश्तिआनी को 2010 में उसके नाबालिग बेटे के सामने 99 कोड़े मारे गये।"

इसी संदर्भ में गत जुलाई की घटना है। इस्लामी जम्हूरिया की दो तरुणिओं समीना बेग (पाकिस्तान) और अफसानेह हेसामिफर्द (ईरान) ने विश्व में सबसे ऊंची चोटी (एवरेस्ट के बाद) काराकोरम पर्वत श्रृंखला पर फतह हासिल कर, जुमे (22 जुलाई 2022) की नमाज अता की थी, तो हर खातून को नाज हुआ होगा। सिर्फ सरहद पर ही नहीं, ऊंचाई पर भी वे पहुंच गयी। यही इन दोनों युवतियों ने बता दिया कि सब मुमकिन है। बस इच्छा शक्ति होनी चाहिये। सुन्नी समीना और शिया अफसानेह आज स्त्रीशौर्य के यश की वाहिनी बन गयीं हैं।

हिन्दुस्तान में कौमियत मजहब पर आधारित नहीं

मगर फिर याद आती है मांड्या (कर्नाटक) की छात्रा मुस्कान खान, जिसने पढ़ाई रोक दी थी। क्योंकि उसे कॉलेज के नियमानुसार हिजाब नहीं पहनने दिया गया था। बजाये जीवन की ऊंचाई के मुस्कान खान अदालत (हाईकोर्ट-बंगलूर और उच्चतम-दिल्ली) तक चली गईं। मुसलमान उद्वेलित हो गये। क्या होना चाहिये था? शायद ईस्लामी मुल्कों की तरुणियां ज्यादा मुक्त हैं। मगर सेक्युलर भारत में क्यों नहीं हैं ? हिन्दुस्तान में कौमियत मजहब पर आधारित नहीं है। फिर भी हिजाब पर बवाल क्यों?

चिंतक चार्ल्स फ्राइड ने लिखा था कि ''व्यक्ति स्पंदित रहता है। जो भी भिन्न राय रखता है, भटकता है।''आखिर मौलिक अधिकार व्यक्तिगत होते। धर्म हर नागरिक के लिये अनिवार्य नहीं हैं। यही नियम लागू होना चाहिए ईरानी तरूणियों पर।



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Shashi kant gautam

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