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इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ कड़ाई का सही वक्त

raghvendra
Published on: 22 Feb 2019 6:23 PM IST
इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ कड़ाई का सही वक्त
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कुछ दिनों पहले ही कश्मीर के बारामुला जिले को आतंकमुक्त क्षेत्र घोषित किया गया। ऑपरेशन ऑल आउट के दौरान सेना ने पांच सौ आतंकियों को जहन्नुम पहुंचाया परंतु वेलेंटाइन डे पर एक आत्मघाती आतंकी हमले में केंद्रीय आरक्षी बल के 44 जवान शहीद हुए और कई दर्जन घायल हो गए। इन तीन पंक्तियों में विरोधाभास हैं परंतु हैं दोनों ही सच्चाई। कोई इससे इनकार नहीं कर सकता कि कश्मीर में सेना आतंक का मोर्चा जीतने के करीब है और इस आत्मघाती हमले की सच्चाई से भी मुंह फेरा नहीं जा सकता। इस हमले से देश आतंक के नए दौर में प्रवेश करता दिख रहा है जिसमें बहुत बड़े खूनखराबे के लिए अधिक आतंकियों की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि एक-दो आत्मघाती ही बड़ी कार्रवाई को अंजाम दे सकते हैं। वैसे तो कश्मीर में पहले भी फिदायीन हमले होते रहे हैं परंतु पूर्व में इस तरह के हमले विदेशी मूल के जिहादी करते रहे हैं। पहली बार कश्मीर के ही रहने वाले 21 वर्षीय आदिल अहमद डार उर्फ वकास ने इस तरह की हरकत को अंजाम दिया है।

जम्मू-कश्मीर पुलिस के पूर्व महानिदेशक एम.एम.खजूरिया ने ठीक ही कहा है कि आतंकवाद एक-दो प्रहारों से या कुछ महीनों में मिटने वाला नहीं और इस लंबी लड़ाई को सामरिक मोर्चे के साथ-साथ वैचारिक धरातल पर भी लडऩा होगा। हथियारों की दृष्टि से तो सेना व सुरक्षा बल अपने काम को सफलतापूर्वक अंजाम दे रहे हैं परंतु विचारों की लड़ाई से हम कहीं न कहीं कमतर दिख रहे हैं। तभी तो विदेशी ताकतें, जिहादी तंजीमें हमारे युवाओं को गुमराह करने में सफल हो जाती हैं। रक्षा एजेंसियां व विशेषज्ञ कई बार चेता चुके हैं कि इस्लामिक आतंकवाद की मां वहाबी विचारधारा जड़ें फैला रही हैं। सऊदी अरब से इस काम के लिए बहुत-सा पैसा अवैध तरीके से भारत पहुंच रहा है जिससे जगह-जगह मस्जिदें, मदरसे बन रहे हैं जहां मध्ययुगीन सोच को बाल व युवा मस्तिष्क में रोपा जा रहा है। पुलवामा हमले को अंजाम देने वाले आदिल की पोस्ट को गौर से पढ़ें तो वह भी इसी वहाबी विचारों से ग्रसित दिखता है जो आतंक को जिहाद मानती है और बेमौत मारे जाने को शहादत। पहले से ही इस्लामिक आतंक का दंश झेल रहे कश्मीर में वहाबी वायरस आग में घी डाल रहे हैं।

दुनिया में खतरा बनकर सामने आया वहाबी सम्प्रदाय इस्लाम की एक कट्टर शाखा है। विश्व के अधिकांश वहाबी कतर, सउदी अरब और यूएई में हैं। सउदी अरब के लगभग 23 प्रतिशत लोग वहाबी हैं। इसे इस्लाम का पहला पुर्नोत्थानवादी आंदोलन माना जाता है जो मुसलमानों को मूल इस्लाम से जोडऩे की बात करता है। इसके नेता शाह वालीउल्लाह, लेकिन संस्थापक उत्तर प्रदेश के रायबरेली के सैयद अहमद बरेलवी (1786-1831 ई.) थे। इनका जन्म एक नामी परिवार में हुआ जो स्वयं को पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहिब का वंशज बताते थे। सैयद अहमद 1821 ईस्वीं में मक्का गए जहां इनकी इस्लामिक विद्वान अब्दुल वहाब से दोस्ती हुई। वे वहाब के विचारों से अत्यंत प्रभावित हुए और एक कट्टर गाजी के रूप में भारत लौटे।

अब्दुल वहाब के नाम से इस आंदोलन का नाम वहाबी आंदोलन रखा गया। सैयद अहमद ने अपनी सहायता के लिए चार खलीफा नियुक्त किए। भारत में इसका मुख्य केन्द्र पटना और शाखाएं हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं मुंबई में खुलीं। सैयद अहमद काफिरों के देश (दारुल हरब) को मुसलमानों के देश (दारुल इस्लाम) में बदलना चाहते थे। उन्होंने पंजाब में खालसा राज के विरूद्ध जिहाद की घोषणा की और 1830 ई. में पेशावर पर विजय प्राप्त की, परन्तु शीघ्र ही वह उनके हाथ से निकल गया। 1849 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी ने खालसा राज को समाप्त कर पंजाब को महारानी के शासन में सम्मिलित कर लिया तो भारत को ही वहाबियों ने अपना दुश्मन मान लिया। 1860 ई. के बाद ब्रिटिश सरकार ने वहाबियों का दमन करने के लिए सैनिक अभियान चलाया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम 20 वर्षों तक वहाबियों ने पहाड़ी सीमावर्ती कबीलों की सहायता की, परन्तु इसके बाद यह आंदोलन धीमा होता चला गया। इस रुढ़ीवादी आंदोलन ने देश के मुसलमानों में अलगाववाद की भावना जागृत की और अब उन्हें आतंकवाद की ओर धकेल रहा है।

यह हैरानी की बात है कि तमाम आधुनिक टेक्नॉलजी से लैस अमेरिका सहित शेष विश्व आत्मुग्धता में खोया रहा और वहाबी आतंकवाद का चोला पहने आईएसआईएस खतरनाक हो गया। सीरिया का संकट जब शुरू हुआ तो ईरान और खुद सीरिया ने दुनिया को चेताया कि उनके यहां गृहयुद्ध भडक़ा रहे लोग अलकायदा के ही आतंकवादियों का समूह है। बहुत से देश इस चेतावनी को नजरन्दाज करते रहे और सीरिया को कथित रूप से आजाद कराने के लिए वहां के आतंकी संगठनों की मदद करते रहे। गृहयुद्ध से परेशान होकर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने अमेरिका से हाथ मिलाया। इससे गृह युद्ध तो थमा, लेकिन जिन आतंकी संगठनों को खून मुंह लग चुका था वो कहां चुप बैठते। उन्होंने एक नई मुहिम शुरू की, वो सीरिया और इराक के कुछ हिस्सों को मिलाकर अपना आईएसआईएस स्टेट बनाएंगे।

अमेरिका ने आईएसआईएस संकट को शिया-सुन्नी संघर्ष बताया लेकिन इस तथ्य को भुला दिया कि इसकी जड़ वो वहाबी आतंक है जिसकी पैदाइश अलकायदा के रूप में सऊदी अरब में हुई। जिसने ओसामा बिन लादेन से लेकर अबू बकर, अल बगदादी तक की मंजिल बिना सऊदी अरब की मदद के तय नहीं की। भारत में इसे वहाबी आतंक के नाम से जाना जाता है, जो कभी लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान, अलकायदा, अहले हदीस, तो कभी लश्कर-ए-झंगवी के नाम से सामने आता है। सऊदी अरब के बाद पाकिस्तान वहाबी विचारधारा का केंद्र बना जो भारत में इसका निर्यात कर रहा है। मुस्लिम तीर्थ काबा वाला सऊदी अरब का मक्का शहर मुसलमानों का तीर्थस्थल है। इसीलिए पाकिस्तान के साथ-साथ कई भारतीय दल विशेषकर धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाले लोग कट्टर वहाबी विचारधारा की आलोचना को इस्लाम की निंदा से जोड़ देते हैं और जाने अनजाने इसका संरक्षण करते हैं।

जब भी इस्लाम में सुधारवाद की बात होती है तो धर्मनिरपेक्ष दल व बुद्धिजीवी न केवल कठमुल्लों के साथ खड़े नजर आते हैं बल्कि सुधार के प्रयासों को सांप्रदायिक बताते हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने तीन तलाक के खिलाफ संसद में बिल पेश किया तो इन धर्मनिरपेक्षतावादियों ने खूब होहल्ला किया। शाहबानो केस में मुस्लिम पोंगापंथियों के सामने हथियार डाल देने वाले देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस का रवैया अत्यंत शर्मनाक रहा जिसने लोकसभा में तो इस बिल का समर्थन किया परंतु राज्यसभा में सफलतापूर्वक अड़ंगा डाल दिया। कांग्रेस अब इसे समाप्त करने की बात कह रही है। खतरनाक बात है कि वहाबी कट्टरपंथ आज नवीनतम तकनीक से लैस है। सोशल मीडिया व संचार के आधुनिक साधनों से यह सीधे युवाओं की पहुंच में आ चुका है। इसी खतरे को भांपते हुए केंद्र सरकार ने 21 जनवरी को सूचना तकनोलोजी अधिनियम 2000 में संशोधन कर दस एजेंसियों को लोगों के कंप्यूटर चेक करने के अधिकार देने का प्रयास किया तो विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस कदम का मुखर विरोध किया गया।

देश जब आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद जैसी खूनी विचारधाराओं से संघर्ष कर रहा है तो इस तरह का वैचारिक भटकाव कहीं न कहीं देशविरोधी ताकतों को प्राश्रय देने का काम करता दिखता है। लोकतंत्र में वैचारिक भिन्नता उसका गुण है परंतु राष्ट्रीय मुद्दों पर वैचारिक बिखराव दुश्मनों को गलत संदेश देता है। भारत आतंकवाद के खिलाफ लंबे समय से लड़ाई कर रहा है जिसे विभाजित मानसिकता व बिखरी हुई शक्ति से नहीं निपटा जा सकता। जरुरत इस बात की है कि देश में पनप रहे इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ न केवल सख्ती अपनाई जाए बल्कि देश के युवाओं को वैचारिक धरातल पर इतना परिपक्व किया जाए कि भविष्य में दूसरा आदिल अहमद डार अपनों का खूनखराबा करने को तैयार न हो।

राकेश सैन



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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