Israel Hamas War: यहां की हर गली में जिंदगी मर्सिया पढ़ती है

Israel Hamas War Update: मीडिया की आजादी को समर्पित संस्थाओं का कहना है कि ग़जा़ में अभी तक 24 पत्रकार रिपोर्टिंग करते हुए मारे गए। उफ्फ! क्या है इस सभ्य और विकसित होते समाज का सच? एक दुनिया है जो बारूद के मुहाने पर बैठी है तो दूसरी दुनिया है जो कि इस बारूद को लगातार उपलब्ध करा रही है , इस हिंसा का समर्थन कर रही है।

Anshu Sarda Anvi
Written By Anshu Sarda Anvi
Published on: 29 Oct 2023 12:58 PM GMT
Israel Hamas War Update 24 Journalists Killed
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Israel Hamas War Update 24 Journalists Killed (Photo - Social Media) 

'तुम

इस शहर में मत आना

यह जलकर राख हो गया है

इसके हर हिस्से में

अधजली लाशों की- बू आती है

यहां के झीलों में विषैला पानी बहता है

सुबह-शाम-

अब यहां परिंदे दिखाई नहीं पड़ते,

भयाक्रांत चिनार के पेड़ सूख गए हैं;

आम आदमी यहां-

अपने-अपने घरों में

रात को कफ़न ओढ़ कर सोता है,

यहां की हर गली में

जिंदगी मर्सिया पढ़ती है, और-

मौत के संगीत के साथ रतजगा होता है।'

यह कविता अमेरिकन अंग्रेजी के प्रसिद्ध व्याख्याता डॉ हरि शरण लाल ने कश्मीर के आतंकवाद के दिनों में उजड़े हुए कश्मीर पर लिखी थी। कमोबेश यही स्थिति होती है हर उसे क्षेत्र की, राज्य की, देश की जो या तो आतंकवाद से जूझ रहा होता है या युद्धरत होता है‌ । बसे-बसाए पूरे के पूरे शहर उजड़ जाते हैं। पूरा का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर जमींदोज हो जाता है। उन खंडहरों के रूप में बंदूकों, मिसाइलों , हैंड ग्रेनेड की विजय के चिन्ह दिखाई देते हैं। उन खंडहर हो चुकी इमारत के भीतर से सन्नाटा नहीं बल्कि क्रोध, पीड़ा और बेबसी की आवाज आती है। इन सबके बावजूद युद्ध न तो सोचते हैं और न ही रुकते हैं, बंद होते हैं।


दो दिन पहले हम सभी ने ग़जा़ की पट्टी के युद्ध में अपनी पत्नी, बेटे, बेटी और पोते को खोने वाले पत्रकार वाएल अल- दहदौह की फोटो देखी थी, जिन्होंने इजरायली बमबारी में अपने परिवार को खोया है। अल दहदौह अल जजीरा के ग़जा़ ब्यूरो चीफ हैं। वे वहां के जमीनी हालात की ग़जा़ की पट्टी के युद्ध के शुरू होने से ही रिकॉर्डिंग कर रहे थे। अल दहदौह की अपने बच्चों के शव गोदी में लिए अस्पतालों में घूमते हुए की फोटो हमें बताती है कि किस तरह से सिर्फ अपनी ही नहीं बल्कि पीछे अपने परिवार की भी जान हथेली पर रखकर ये पत्रकार इन युद्धरत क्षेत्रों की ग्राउंड रिपोर्टिंग करते हैं। हम भले ही इन ग्राउंड रिपोर्टिंग पर चर्चा करें, बहस करें पर उस पत्रकार से यह भला कौन पूछ सकेगा कि वह जिस युद्ध की रिपोर्टिंग कर रहा है उस युद्ध ने उसके बच्चे, उसके परिवार को उससे हमेशा के लिए छीन लिया है। वह पत्रकार जब अपने परिवार से दूर जाता होगा रिपोर्टिंग के लिए तब अपने बच्चों, परिवार से क्या वादा करके निकलता होगा? कौन जानता है कि अपने फर्ज को अदा करते हुए वह इस तरह से अपने परिवार को ही खो देगा। वह दुनिया को सच्ची खबरें तो देता रहा पर अपने परिवार को नहीं बचा सका।

ग़जा़ में एक तरफ बेगुनाह बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग मारे जा रहे हैं तो पत्रकार भी बड़ी तादाद में निशाना बन रहे हैं। मीडिया की आजादी को समर्पित संस्थाओं का कहना है कि ग़जा़ में अभी तक 24 पत्रकार रिपोर्टिंग करते हुए मारे गए। उफ्फ! क्या है इस सभ्य और विकसित होते समाज का सच? एक दुनिया है जो बारूद के मुहाने पर बैठी है तो दूसरी दुनिया है जो कि इस बारूद को लगातार उपलब्ध करा रही है , इस हिंसा का समर्थन कर रही है। पिछले कई दिनों से जारी इजरायली बमबारी और घेराबंदी में वहां की घटनाओं को कवर कर रहे पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर इजरायल ने इस संघर्ष के समय में पत्रकारों की सुरक्षा गांरटी लेने से इनकार किया है।


इसी बीच एक पुरानी किताब 'सरहद जीरो मील' पढ़ी, जिसे वरिष्ठ पत्रकार रंजन कुमार सिंह ने लिखा था। यह किताब उन्होंने कश्मीर की सरहद की भयावता, नियंत्रण रेखा और हमारे वीर जवानों की वीरगति और खुद उनकी पत्रकारिता के जोखिमों पर लिखी है। यूनेस्को के डाटा रिकॉर्ड के अनुसार सन् 1993 से अभी तक 819 पत्रकार युद्ध या संघर्ष को कवर करते हुए मारे गए हैं। इस दुनिया में लगभग हर समय में दो देशों के बीच युद्ध चलता ही रहता है। युद्ध का अर्थ ही होता है अराजकता, रक्तपात, नरसंहार, अत्याचार, गोलाबारी, बमबारी और घेराबंदी। और इस अराजकता और विनाश को जो अपनी लाइव रिपोर्टिंग और तस्वीरों के रूप में हमारे सामने लाते हैं, यह जोखिम उठाते हैं ताकि हम महसूस कर सके इस दुनिया में चल रहे संघर्ष को , उन्हें हम युद्ध संवाददाता के रूप में जानते हैं। वे उन पीड़ाओं के बारे में लिखते हैं जिनसे निर्दोषों को गुजरना पड़ता है क्योंकि उनके देश के राजनेताओं ने विजय के लिए अपने देश को युद्ध के मैदान में झोंक दिया होता है। वे सिर्फ शब्दों में ही आतंक की उन कहानियों का उल्लेख नहीं करते है बल्कि वे पत्रकार साथी पत्रकारों की मौत देखते हैं या सैनिकों द्वारा प्रताड़ित और पीटे जाते हैं। क्योंकि हर पक्ष उन्हें दूसरे पक्ष का समझकर उन पर अत्याचार कर देता है। और इस काम में जोखिम भी शामिल हैं, किसी को पता भी नहीं चलता है कि कब गोली उसके धड़ को अलग कर गई और उनकी मौत हो गई। प्रसिद्ध टीवी एंकर रिचा अनिरूद्ध ने मणिपुर हिंसा की लाइव रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को अपने कर्तव्य के साथ-साथ अपने परिवार के विषय में सोचने के लिए भी आगाह किया था।


मनोवैज्ञानिक रूप से इस तरह के युद्धों और संघर्षों का उस क्षेत्र में रहने वाले बच्चों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ने वाला होता है। इनकी मनोवैज्ञानिक समस्याओं में साल दर साल इजाफा ही हुआ है। पिछले साल प्रकाशित एक रिपोर्ट जो कि 'सेव दि चिल्ड्रन' ने प्रकाशित की थी , के अनुसार ग़जा़ की पट्टी के बच्चों में पहले के वर्षों में मनोवैज्ञानिक समस्याएं 55 फ़ीसदी दर्ज फीसद दर्ज की गई जबकि 2022 में यह आकड़ा बढ़कर 88 फ़ीसदी हो गया। ग़जा़ की पट्टी जिसकी 80फीसदी आबादी अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर है, दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। वहां रहने वाले बच्चों में डर, बेचैनी, उदासी, असुरक्षा जैसी परेशानियां अंदर ही अंदर घर कर चुकी हैं। यह सिर्फ ग़ज़ा की पट्टी के बच्चों के बीच ही मनोवैज्ञानिक संकट नहीं बल्कि हर उसे अशांत क्षेत्र में जहां या तो दो देश युद्धरत हैं या देश के विभिन्न क्षेत्रों में अशांत, अप्रिय स्थिति है, वहां के बच्चें भी इसी तरह के मनोवैज्ञानिक संकट से जूझते हैं और जूझ रहे हैं। ये वे जगह होती हैं जहां सब कुछ अनिश्चित एवं असुरक्षित होता है। वे नहीं जानते हैं कि कब बिजली -पानी की स्थिति सामान्य होगी? वे नहीं जानते हैं कब बच्चों को उनकी शिक्षा प्राप्त होनी शुरू होगी? वे नहीं जानते हैं कि उन्हें कब इस बमबारी और धमाकों की आवाज से छुटकारा मिलेगा? वे यह भी नहीं जानते हैं कि कब उनकी जिंदगी सामान्य हो पाएगी ? वे नहीं जानते हैं कि कब वे झूठे दिलासा भरे शब्दों से बाहर निकलेंगे? न ही वे महिलाएं जानती हैं कि वे अपने परिवार को कैसे ऐसी स्थिति में संभालें।

युद्ध रोकने की क्या कोशिश है की जा रही हैं ? शायद कुछ भी नहीं। पर इन सब के बीच उन महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों की क्या गलती जो इस तरह के छापामार युद्ध में एक शील्ड की भांति , एक कवच की भांति प्रयोग किए जाते हैं। यह सिर्फ इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध नहीं, यह सिर्फ रूस -यूक्रेन युद्ध नहीं बल्कि मानवता के हर कदम पर, हर क्षेत्र में, हर व्यक्ति के ऊपर संकट है जो इस युद्ध से प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है। यह मानवीय सभ्यता पता नहीं अब किस मोड़ पर जाकर इस युद्ध से मुक्त होकर रुकेगी। क्या यह युद्ध देख कर जवान होती पीढ़ी भी इसी तरह के आतंकवाद की ओर मुड़ जाएगी या वह शांति के प्रयासों के बारे में गंभीरता से सोचेगी।

( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

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