भारत को दबने की जरुरत नहीं

Jalvayu Parivartan Sammelan: इस बार ग्लासगो में होने वाले जलवायु-परिवर्तन सम्मेलन शायद क्योतो और पेरिस सम्मेलनों से ज्यादा सार्थक होगा। उन सम्मेलनों में उन राष्ट्रों ने सबसे ज्यादा डींगें हांकी थीं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा गर्मी और प्रदूषण (Pollution) फैलाते हैं।

Dr. Ved Pratap Vaidik
Written By Dr. Ved Pratap VaidikPublished By Shreya
Published on: 30 Oct 2021 3:11 AM GMT
PM Narendra Modi
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (फाइल फोटो साभार- सोशल मीडिया) 

Jalvayu Parivartan Sammelan: इस बार ग्लासगो में होने वाले जलवायु-परिवर्तन सम्मेलन (Climate Change Conference) शायद क्योतो और पेरिस सम्मेलनों से ज्यादा सार्थक होगा। उन सम्मेलनों में उन राष्ट्रों ने सबसे ज्यादा डींगें हांकी थीं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा गर्मी और प्रदूषण (Pollution) फैलाते हैं। उन्होंने न तो अपना प्रदूषण (Pradushan) दूर करने में कोई मिसाल स्थापित की और न ही उन्होंने विकासमान राष्ट्रों के लिए अपनी जेबें ढीली कीं ताकि वे गर्मी और प्रदूषित गैस और जल से मुक्ति पा सकें। संपन्न राष्ट्रों ने विकासमान राष्ट्रों को हर साल 100 बिलियन डॉलर देने के लिए कहा था ताकि वे अपनी बिजली, कल-कारखानों और वाहन आदि से निकलनेवाली गर्मी और प्रदूषित गैस को घटा सकें। वे सौर-ऊर्जा, बैटरी और वायु-वेग का इस्तेमाल कर सकें ताकि वातावरण गर्म और प्रदूषित होने से बच सकें। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) के अमेरिका ने तो पेरिस समझौते का ही बहिष्कार कर दिया।

ये सब संपन्न देश चाहते थे कि अगले तीस साल में जलवायु प्रदूषण (Jalvayu Pradushan) यानी कार्बन-डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide- CO2) की मात्रा घटे और सारे विश्व का उष्मीकरण (Heating) ज्यादा से ज्यादा 2 डिग्री सेल्सियस तक हो जाए। इस विश्व-तापमान को 1.5 डिग्री तक घटाने का लक्ष्य रखा गया। अमेरिका और यूरोपीय देश, जो सबसे ज्यादा गर्मी फैलाते हैं, उनका दावा है कि वे 2050 तक अपने तापमान को शून्य तक ले जाएंगे। वे ऐसा कर सकें तो यह बहुत अच्छा होगा। वे यह कर भी सकते हैं, क्योंकि उनके पास वैसी तकनीक है, साधन हैं, पैसे हैं। लेकिन यही काम वे इस अवधि में वैश्विक स्तर पर हुआ देखना चाहते हैं तो उन्हें कई वर्षों तक 100 बिलियन नहीं, 500 बिलियन डॉलर हर साल विकासमान राष्ट्रों पर खर्च करने पड़ेंगे।

ये राष्ट्र अफगानिस्तान जैसे मामलों में बिलियनों नहीं, ट्रिलियनों डॉलर नाली में बहा सकते हैं। लेकिन विकासमान राष्ट्रों की मदद में उदारता दिखाने को तैयार नहीं हैं। क्या वे नहीं जानते कि सारी दुनिया में तापमान-वृद्धि का दोष उन्हीं के माथे है? पिछले दो-ढाई सौ साल में एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका का खून चूस-चूसकर उन्होंने जो अपना अंधाधुंध औद्योगीकरण किया और उपभोक्तावाद की ज्वाला भड़काई, उसने ही विश्व-तापमान उचकाया और उसी की नकल दुनिया के सारे देश कर रहे हैं।

अरबों डॉलर का हर्जाना मांगना चाहिए भारत को

लगभग 50-55 साल पहले जब मैं पहली बार अमेरिका और यूरोप में रहा तो मैं वहां यह देखकर दंग रह जाता था कि लोग किस लापरवाही से बिजली, पेट्रोल और एयरकंडीशनिंग का दुरुपयोग करते हैं। अब इस मामले में चीन इन देशों को मात दे रहा है। लेकिन भारत में प्रति व्यक्ति ऊर्जा का उपयोग सारी दुनिया के कुल औसत से सिर्फ एक-तिहाई है।

भारत यदि कोयला और पेट्रोल आधारित अपनी ऊर्जा पर उतना ही नियंत्रण कर ले, जितना विकसित राष्ट्र दावा कर रहे हैं तो उसकी औद्योगिक उन्नति ठप्प हो सकती है, कल-कारखाने बंद हो सकते हैं। लोगों का जीवन दूभर हो सकता है। इसीलिए भारत को इस मामले में बड़ा व्यावहारिक होना है। किसी के दबाव में नहीं आना है और यदि संपन्न राष्ट्र दबाव डालें तो उनसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्त्रोतों को विकसित करने के लिए अरबों डॉलर का हर्जाना मांगना चाहिए। भारत ने पिछले 10-12 वर्षों में जलवायु परिवर्तन के लिए जितने लक्ष्य घोषित किए थे, उन्हें उसने प्राप्त करके दिखाया है।

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Shreya

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