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Jantar Mantar of conscience: अंतरात्मा का जन्तर मन्तर
Jantar Mantar of conscience: “अन्तरात्मा के सभी आभारी हैं, इसलिए यह सब पर भारी है । यह अंतरात्मा जो न करा दे, थोड़ा है। वक्त की नब्ज़ हर जगह अंतरात्मा ने थाम रखी है। आप इसे आत्मा का अंतर कहें या अंतर की आत्मा ! कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ने वाला ।
Jantar Mantar of conscience: “अन्तरात्मा के सभी आभारी हैं, इसलिए यह सब पर भारी है । यह अंतरात्मा जो न करा दे, थोड़ा है। वक्त की नब्ज़ हर जगह अंतरात्मा ने थाम रखी है। आप इसे आत्मा का अंतर कहें या अंतर की आत्मा ! कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ने वाला । सच कहें तो अंतरात्मा ही आज का सबसे बड़ा जंतर मंतर है।”
गंभीर व्यंग्य के लिए जरूरी है जीवन में तमाम विसंगतियों के बीच भी स्वयं को सुचारु रूप से बरतने के लंबे अनुभव का होना । वह अनुभव जिसमे अपने परिवेश में व्याप्त असंवादी स्वरों पर तीक्ष्ण दृष्टि रही हो । उनके विवेचन के प्रति जागरूकता और सजगता ही नहीं उनपर स्पष्टता और निडरता से अपने विचार रखने का भाव समान रूप से समाहित हो। यही नहीं जिसमें व्यंग्यकार की प्रखर दृष्टि और संवादों में उसका अनुभव उभर कर आता हो जो पाठक को न सिर्फ पठन बल्कि स्वस्थ चिंतन हेतु भी प्रेरित करता हो।
सुविख्यात पत्रकार और व्यंग्यकार अनूप श्रीवास्तव की पुस्तक ‘अन्तरात्मा का जंतर मन्तर’ आम आदमी के सामाजिक जीवन से जुड़े सभी आवश्यक विषयों के विभिन्न पक्षों की विरूपताओं पर गहन दृष्टि रखते हुए पूरी गंभीरता से उनकी पड़ताल करती है। हालांकि व्यंग्यकार के पत्रकार हृदय की छवि इनके व्यंग्यों सहज दिखती है। संभवतः इसलिए इन व्यंग्यों में मुख्य विषय राजनीति से उठाए हुए हैं लेकिन इसके केंद्र में एक आम आदमी है। व्यंग्यों में जहां एक ओर स्वस्थ हास्य है तो वहीं दूसरी ओर तमाम प्रसंगों में गंभीर चिंतन तथा अनुभव के लंबे पड़ावों की झलक दिखती है ।
कुछ व्यंग्य तब लिखे गए जब व्यंग्य साहित्य का स्वर्णिम काल था । तब जब आपसी संवादों में स्वस्थ व्यंग्यों के प्रयोग से साहित्यकार बिना किसी वैमनस्यता के एक दूसरे की चुटकियां लेते थे जिनसे जाने कितनी कालजयी व्यंग्य रचनाएं अस्तित्व में आईं। इस आधार पर कह सकते हैं कि इन व्यंग्यों में अगर समसामयिकता की झलक है तो काफी कुछ पत्रकारिता तथा जीवन अनुभव के विषय और प्रकरण भी हैं जो कहीं-कहीं संस्मरण जैसे रोचक लगते हैं । ये अनुभवजनित व्यंग्य नवीनता और प्राचीनता के बीच की सुनहरी कड़ी की तरह पढ़ने वाले को सम्मोहित करते हैं, चकित करते हैं और आगे पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं ।
पुस्तक में छोटे बड़े कुल 54 व्यंग्य हैं जिनका मुख्य विषय राजनीति तथा उसके चक्र में उलझी और इंच इंच खिसकती आम आदमी की गति है ।,कुर्सी का कुरुक्षेत्र, गरीबी गई तेल लेने, जिनकी रोटियाँ तोड़ते हैं, 'अनशन की गणेश परिक्रमा' तथा 'अच्छे दिनों के खूँटे' कुछ ऐसे रोचक व्यंग्य हैं जो तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों के बीच प्रसिद्ध हुए लोकोत्तियों तथा मुहावरों के माध्यम से राजनीति की दशा और दिशा का मूल्यांकन करते हैं।
‘वक्त के साथ न्याय करने के तरीके बदलते गए। रिट पिटीशनों में बदलते गए।,रस्सी का काम वकीलों ने ले लिया । किस मामले में रस्सी को ढील देनी है और किस मामले में रस्सी को खींचे रखना है, यह उनके इशारे पर होने लगा और न्याय की रस्सी जिरह और बहस के हवाले हो गई।,दरबार कोर्ट में तब्दील हो गए। चार लाइन का न्याय पाने को चार से चालीस लगाने लगे। राजा से चला न्याय प्रजा तक आते आते ‘अन्य आय’ में बदल गया।” न्यायिक प्रकियाओं के बदलते स्वरूप को देखते हुए लिखा गया व्यंग्य 'जनता दर्शन' में शब्दों की कलात्मकता प्रभावित करती है कि 'लोकतंत्र का सीधा मतलब नेता का जनता से जुगाड़ है, यानि सिर्फ भीड़ भाड़ है ।.इसमे नेता के लिए भीड़ है और जनता के लिए भाड़ है।”
‘मूर्खता के दस्तावेज’ सिद्ध करती है कि मूर्खताओं के अनेक प्रकार हैं।यूं कहने को मूर्खताओं का भी वर्गीकरण किया जा सकता है- जैसे सामाजिक मूर्खताएं, धार्मिक मूर्खताएं, शैक्षिक मूर्खताएं और आर्थिक मूर्खताएं लेकिन राजनीतिक मूर्खताएं इतनी दमदार होती हैं कि उसके आगे अन्य सारी मूर्खताएं बौनी पड़ जाती हैं ।,अकारथ से महारथ तक, मण्डल से कमंडल तक, भूमंडल से खरमंडल तक मूर्खता के झंडे फहरा रहे हैं। ‘लोकतंत्र फिर स्ट्रेचर पर’ में लोकतंत्र के चुनावी स्ट्रेचर पर होने का रोचक वर्णन है तो ‘छप्पर फाड़ महंगाई’ में लेखक बताते हैं कि कैसे अपनी वैल्यू समझ आते ही समय-समय पर महंगाई ने प्याज और चीनी पर सवार होकर सरकारें बदल दी थीं ।
वामपंथी काम पंथी हो रहे हैं
स्वर्णिम वैश्विक छवि से इतर अपनी मौलिकता से भटक कर हमने देखा देखी में कैसे खुद को पश्चिमी अंधानुकरण में लगा दिया है इस विषय के और भी कई पहलू हैं जो 'देखा देखी' व्यंग्य के जरिए बखूबी समझ आते हैं । देखा देखी का माहौल ये है कि यह संक्रमण सभी राजनीतिक पार्टियों में फैल चुका है.... .. नतीजन भाजपा अपने को जप रही है । सपा अपने ही घर पर खप रही है । वामपंथी काम पंथी हो रहे हैं ।बहुजन हिताय सर्वजन हिताय के कंधों पर खड़ा है शिव सेना और मनसे कई सालों से देखा देखी में ही दिख रहे हैं । छोटे मोटे दलों को समझ ही नहीं आ रहा है, उनमें कौन खड़ा है, कौन पड़ा है।
भाषा शैली सहज है जो पाठक को साहित्यिक संदर्भों में समृद्ध करती है वहीं शब्दों के युक्तिपूर्वक चयन से उत्पन्न वाक्यों की कलात्मकता बार बार चकित करती है । राजनीतिक व्यंग्य इस पुस्तक के केंद्र में है लेकिन सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक चेतना के विषयों पर दृष्टि के संदर्भ में भी यह पुस्तक खरी उतरती है।
बहुप्रतीक्षित उत्तम पठनीय कृति के लिए व्यंग्यकार को शुभकामनाएं ।
भारती पाठक